जब बात जनस्वास्थ्य और पौष्टिक भोजन की आती है तो भारत का नंबर दुनिया के पिछड़े देशों के भी बाद आता है। दुनिया के एक तिहाई कुपोषित बच्चे भारत में ही हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के अनुसार भारत में पांच साल से कम उम्र के 38.4 फीसदी बच्चों की लंबाई सामान्य से कम है। 2015-16 तक दस साल के दौरान कुपोषण के शिकार बच्चों का अनुपात 19.8 फीसदी से बढ़कर 21 फीसदी हो गया। 2015-16 में 15 से 49 साल की महिलाओं और लड़कियों में से 53.1 फीसदी एनीमिया की शिकार थीं। एनीमिया ग्रस्त महिलाएं जब बच्चे को जन्म देती हैं तो उन बच्चों में भी एनीमिया होने की आशंका रहती है।
कुपोषण का सबसे बड़ा कारण शरीर में विटामिन और खनिजों की कमी है। सर्वे के अनुसार 47 फीसदी महिलाओं को ही रोजाना भोजन में हरी सब्जियां मिल पाती हैं। 38 फीसदी महिलाओं को सप्ताह में एक बार सब्जियां नसीब होती हैं। इसी तरह दालें भी 50 फीसदी महिलाओं को ही रोजाना मिल पाती हैं। 45 फीसदी महिलाओं को सप्ताह में एक बार भी फल खाने को नहीं मिलता। प्रोटीन और विटामिन देने वाले चिकन, मीट और दूध भी एक तिहाई महिलाओं को ही मिल पाते हैं। पौष्टिक तत्वों की कमी के कारण महिलाओं और बच्चों के विकास पर बुरा असर पड़ता है। 6 से 23 माह के 9.6 फीसदी बच्चों को ही पर्याप्त आहार मिल पाता है। एक अनुमान के अनुसार कम वजन, बच्चों के धीमे विकास और पौष्टिक तत्वों की कमी से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे असर से एशिया और अफ्रीका में हर साल जीडीपी के 11 फीसदी के बराबर नुकसान होता है।
विटामिन ए और डी, आयरन, जिंक, आयोडीन और फोलिक एसिड की कमी से स्वास्थ्य संबंधी अनेक समस्याएं होती हैं। कुपोषण से निपटने के लिए खाद्य पदार्थों का फोर्टिफिकेशन सबसे सस्ता तरीका है। इसके तहत आटा, चावल, खाद्य तेल, नमक और दूध में विटामिन और खनिज मिलाए जाते हैं। सरकार ने “पोषण अभियान” के तहत व्यापक कार्यक्रम शुरू किया है, लेकिन इसके अपेक्षित नतीजे पाने के लिए इसे बेहतर तरीके से लागू करना जरूरी है। फोर्टिफिकेशन के अलावा खान-पान में विविधता और अतिरिक्त पोषण का तरीका भी अपनाया जाना चाहिए। फोर्टिफिकेशन में खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के दिशानिर्देशों का पालन तो होना ही चाहिए, देश में भी गुणवत्ता जांचने की व्यवस्था होनी चाहिए। यही नहीं, खाद्य नियामक एफएसएसएआइ, आइसीएमआर, निर्माताओं, थोक और खुदरा विक्रेताओं, आयातकों-निर्यातकों और होटल-रेस्तरां के लिए जिम्मेदारियां तय होनी चाहिए। गुणवत्ता की जांच के बाद ही एफएसएसएआइ इंडस्ट्री को फोर्टिफिकेशन का लोगो इस्तेमाल करने की अनुमति दे। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि नियामक किस आधार पर लोगो इस्तेमाल करने की इजाजत देता है। नियमित जांच के बगैर बड़े पैमाने पर फोर्टिफिकेशन सेहत के लिए नुकसानदायक हो सकता है। इसलिए जरूरी है कि एफएसएसएआइ स्पष्ट दिशानिर्देश बनाए और सिर्फ अधिकृत लोग ही नमूनों की जांच करें। नियामक को हर तिमाही जांच की रिपोर्ट भी सार्वजनिक करनी चाहिए।
भारत के लिए बांग्लादेश हो सकता है केस स्टडी
बांग्लादेश में कुपोषण से निपटने का कार्यक्रम भारत के लिए एक केस स्टडी का काम कर सकता है। बांग्लादेश ने शुरुआती रिसर्च से लेकर कार्यक्रम लागू करने तक, बड़े ही सुनियोजित तरीके से अभियान चलाया है। बांग्लादेश की तरह यहां भी राज्य और जिला स्तर पर यह पता लगाया जाना चाहिए कि कहां किन पोषक तत्वों की कमी है, किस इलाके में एनीमिया की वजह क्या है। इसी तरह, जिला स्तर पर उन फसलों, पौधों और पशुओं की पहचान की जानी चाहिए जो पोषक तत्वों से भरपूर हैं। इस सर्वे के आधार पर ही पोषक तत्वों की कमी दूर करने की नीति बनाई जाए तो वह अधिक कारगर होगी।
पोषक तत्वों की कमी दूर करने और खाद्य तेल में विटामिन फोर्टिफिकेशन के नियम बनाने में मैंने वहां (बांग्लादेश) की सरकार के साथ मिलकर काम किया था। नियम बनाने से पहले बांग्लादेश सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर पोषण का सर्वे किया था। इस पर सभी पक्षों से चर्चा के बाद जो रणनीति बनाई गई, उस पर विचार के लिए पूरे देश में वर्कशॉप का आयोजन किया गया। इसके बाद जो कानून बना उसमें सोया, पाम और राइस ब्रान जैसे खाद्य तेलों में विटामिन ए मिलाना जरूरी किया गया। बिना फोर्टिफाइ किए तेल के आयात और निर्यात पर रोक लगा दी गई। गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए सख्त नियम बनाए गए। नियम का उल्लंघन करने वालों के लिए जुर्माना और जेल का प्रावधान है। सरसों तेल, नारियल तेल और ऑलिव ऑयल को फोर्टिफिकेशन से बाहर रखा गया है।
(लेखक प्रोजेक्ट कंसर्न इंटरनेशनल के कंट्री डायरेक्टर हैं)