कुछ माह पूर्व ही पहले से अधिक बहुमत के साथ सत्ता में लौटी भारतीय जनता पार्टी के लिए गुरुवार को आये हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के नतीजे एक झटके की तरह हैं। महाराष्ट्र में पार्टी की विधानसभा सीटों की संख्या में बीस से अधिक की कमी आई है, और उसे शिव सेना के रूप में एक आक्रामक और ज्यादा मोलभाव की स्थिति वाले सहयोगी के साथ तालमेल बैठाना पड़ेगा। वहीं, हरियाणा में पार्टी को अगर सरकार बनानी है तो उसे समझौते की मुश्किल शर्तों से गुजरना होगा क्योंकि वहां पार्टी बहुमत से छह सीट पीछे है। जो पार्टी मई में 10 लोक सभा सीटें जीतकर सत्तर से अधिक विधानसभा सीटों में आगे थी, वह केवल 40 सीटों पर अटक गई। पार्टी के अधिकांश मंत्रियों का हारना यह साबित करता है कि वह जमीनी हकीकत को पहचनाने में नाकाम रही और पचहत्तर पार के महत्वाकांक्षी लक्ष्य का दावा करती रही।
पहले बात हरियाणा की करें तो पार्टी ने चुनाव का जो एजेंडा बनाया वह मतदाताओं को प्रभावित नहीं कर सका। कश्मीर में अनुच्छेद 370 को समाप्त करने और पाकिस्तान पर आक्रामक रुख पार्टी के बड़े नेताओं की रैलियों के भाषणों का बड़ा हिस्सा थे। साथ ही एनआरसी को भी उछाला गया। पार्टी राष्ट्रवाद के मुद्दे पर अधिक और अपनी सरकार के कामकाज पर कम आश्रित दिख रही थी। लेकिन उसके उलट कांग्रेस ने स्थानीय मुद्दों पर खुद को केंद्रित रखा। जहां तक अनुच्छेद 370 का सवाल है तो कांग्रेस ने उसे मुद्दा ही नहीं बनाया। हरियाणा में कांग्रेस विधायक दल के नेता और चुनाव प्रभारी नियुक्त होने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के साथ इस लेखक की बातचीत में जब यह मुद्दा आया तो उन्होंने साफ किया कि मैंने इसका समर्थन किया है। अब यह कानून बन गया है तो इस पर क्या बात करनी। हम स्थानीय मुद्दों पर अपना कैंपेन केंद्रित रखेंगे। साथ ही, खट्टर सरकार की नाकामियों को उजागर करेंगे।
जिस तरह से कांग्रेस 31 सीटों पर पहुंची है उससे लगता है कि वह मतदाताओं की नब्ज पहचानने में कामयाब रही है। साथ ही हुड्डा के नेतृत्व में पार्टी ने राज्य में जाट और गैर जाट के बीच मतों को बांटने की भाजपा की पुराऩी रणनीति से भी खुद बचाकर रखा। हालांकि आईएनएलडी से टूटकर बनी जेजेपी ने दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व में बेहतर प्रदर्शन किया है और जाट मतों को अपनी और खींचा है। उसने आईएनएलडी के वास्तविक वारिस के रूप में खुद को स्थापित तो कर ही लिया है, दस सीटों के साथ वह किंगमेकर की भूमिका में भी है।
हरियाणा के नतीजे भाजपा के लिए भारी झटका हैं और उसे हर मर्ज की एक दवा के फार्मूले को बदलना पड़ेगा। नतीजों से यह संकेत मिला है कि मतदाता और खासतौर से युवा बेरोजगारी, किसानी और खराब अर्थव्यवस्था के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। यह पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के लिए भी मतदाताओं की तरफ से एक चेतावनी है। भले ही पार्टी ने मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में चुनाव लड़ा है, लेकिन चेहरा तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष व गृह मंत्री अमित शाह ही सबसे बड़े थे।
जहां तक महाराष्ट्र की बात है तो मतदान के बाद भी भाजपा अकेले 145 सीटें जीतकर बहुमत हासिल करने का दावा कर रही थी। लेकिन स्थिति काफी बदल गई है और वह मुश्किल से सौ के आंकड़े को छू सकी है। पिछले विधानसभा चुनावों की तुलना में उसकी सीटें करीब 20 कम हैं। ऐसे में पार्टी का यह कहना कि उसके कामकाज को लोगों ने स्वीकार किया है, सही नहीं ठहराया जा सकता है। भले ही शिव सेना की सीटें भी पिछले चुनाव से कम हैं लेकिन जिस तरह से उद्धव ठाकरे बयान दे रहे हैं कि मुख्यमंत्री के पद पर बात होनी चाहिए, वह भाजपा के लिए आने वाले दिनों की मुश्किलों का संकेत है। दूसरी ओर, महाराष्ट्र के चुनाव नतीजे विपक्ष को भले ही सत्ता से दूर रखे हुए हैं, उसके बावजूद ये नतीजे राज्य में एक मजबूत विपक्ष की वापसी है। एक बार फिर शरद पवार ने साबित कर दिया है कि असली मराठा नेता अभी वही हैं। भले ही उनकी पार्टी के नेताओं को भाजपा और शिव सेना ने चुनावों से पहले तोड़ा हो, उसके बावजूद पवार का असर बरकरार है। साथ ही जिस तरह से उन्होंने कहा था कि उनका साथ छोड़ने वाले अवसरवादियों को जनता सबक सिखाएगी, वह तमाम नेताओं के चुनाव में हारने से साबित भी हो गया है।
यहां भी दिलचस्प बात यह है कि अपने चुनावी कैंपेन में शरद पवार लगातार कह रहे थे कि कश्मीर, अनुच्छेद 370 और दूसरे विभाजनकारी मुद्दे यहां कारगर नहीं हैं, यहां किसानों की आत्महत्या, बंद होते उद्योग और बेरोजगारी बड़ा मुद्दा है- सही साबित हुआ है। विपक्षी नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोपों और केंद्रीय जांच एजेंसियों की अतिसक्रियता को भी पवार ने भुनाया है। उनके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय द्वारा केस दर्ज करने के घटनाक्रम को उन्होंने पूरी तरह से अपने पक्ष में इस्तेमाल कर इसे मराठा अस्मिता से जोड़ते हुए कहा था कि मराठे कभी दिल्ली के आगे नहीं झुके हैं।
इसलिए भले ही महाराष्ट्र में भाजपा और शिव सेना के गठबंधन को बहुमत मिल गया हो, वहां आने वाले दिनों में बहुत सहज रिश्तों वाले गठबंधन की सरकार नहीं रहने वाली है। जहां तक हरियाणा का सवाल है तो वहां भाजपा अगर सरकार बनाती है तो वह कैसा गणित होगा यह अगले कुछ दिनों में साफ होगा। हालांकि कांग्रेस भी कोशिश करेगी कि वह सत्ता पर काबिज हो सके, लेकिन यह सब कुछ जेजेपी के दुष्यंत चौटाला और जीते हुए निर्दलीयों पर निर्भर करेगा। लेकिन यह साफ हो गया है कि राज्यों के चुनावों के मुद्दे केंद्रीय मुद्दों से अलग हैं और आने वाले विधानसभा चुनावों की रणनीति बदलने के लिए भाजपा को सोचना पड़ेगा।