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पुस्तक समीक्षाः आजादी का तार्किक पाठ

वर्मा अपने अगाध अध्ययन और पांडित्यपूर्ण विश्लेषण से पाठकों को विवेक और तार्किकता से इन समस्याओं के प्रति विचार करना सिखाते हैं
लालबहादुर वर्मा की  सक्रियता का शानदार दस्तावेज

लालबहादुर वर्मा इतिहास के प्रोफेसर और लेखक थे। वर्मा हिंदी क्षेत्र के उन अध्यापकों में थे जिन्होंने अपने अध्यापन के साथ सामान्य जनता को शिक्षित करने के लिए असाधारण कार्य किया। उन्‍होंने नुक्कड़ नाटक किए, पैंपलेट छापे, पत्रिकाओं का संपादन-प्रकाशन किया, पुस्तकों का प्रकाशन किया, पेशेवर इतिहास लेखन किया, घूम-घूमकर लोगों तक अपने व्याख्यानों के माध्यम से संवाद करने की कोशिश की और जटिल विषयों पर सरल भाषा में किताबें तो लिखीं। अपने जीवनकाल (1938 से 2021) में एक मध्यवर्गीय व्यक्ति तमाम सीमाओं से टकराते हुए अपने समाज के प्रबोधन के लिए जो और जितना कर सकता है, वर्मा जी का जीवन इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं।

उनकी आत्मकथा के दोनों खंड उनकी इसी सक्रियता का शानदार दस्तावेज हैं। उनके निधन के प्राय: साल भर बाद उनकी किताब 'आजादी का मतलब क्या' आई है जिसे उनके जीवनानुभवों और संघर्षों से उपजी दृष्टि का निचोड़ कहा जा सकता है। इस किताब में उन्होंने मनुष्य की मुक्ति को परिभाषित करने के साथ मुक्ति के अवरोधकों को भी उद्घाटित किया है। उनके प्रत्येक विवरण में इतिहास, राजनीति, समाज और दर्शन का ज्ञान झलकता है किन्तु उन्होंने अपनी सहज अभिव्यक्ति और सरल भाषा से उसे बोधगम्य बना दिया है।

पुस्तक के प्रारम्भ में ही वर्मा लिखते हैं, 'क्या मुक्ति को नकारात्मक व्याख्या द्वारा ही समझा जा सकता है? क्या मुक्ति दासता के बंधनों की अनुपस्थिति मात्र है? क्या मुक्ति कोई सकारात्मक व्याख्या द्वारा नहीं समझी जा सकती? वास्तव में मुक्ति एक सूक्ष्म और विराट अवधारणा है। इसके निहितार्थ हिंदू धर्म में जीवन के चरम और परम मोक्ष लक्ष्य के रूप में स्थापित थे। यानी मुक्ति मनुष्य के आवागमन से मुक्ति, यानी आत्मा के परमात्मा में विलीन होने की स्थिति मानी जाती है।  पर मुक्ति केवल एक धार्मिक और आध्यात्मिक धारणा नहीं, यह एक 'सेक्युलर' और 'सांसारिक' धारणा भी है। इसमें स्वतंत्रता की इच्छा और इच्छा की स्वतंत्रता को राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए अनिवार्य माना जाता है। यह स्वतंत्रता बौद्धिक स्वतंत्रता और नैतिक स्वतंत्रता बन जाती है।'

इस छोटी-सी पुस्तक के कुल बीस अध्यायों में से चौदह अध्याय किसी न किसी मुक्ति या आजादी से संबंधित हैं। जैसे गरीबी से आजादी या अज्ञान से मुक्ति। वे अलग-अलग अध्यायों में पितृसत्ता, विकृत राष्ट्रवाद, युद्ध, सांस्कृतिक गरीबी, प्रदूषण, संकीर्णता, भय, जाति, अजनबियत, उभोक्तावाद जैसी विकृतियों से आजादी या मुक्ति की जरूरत बताते हैं। वर्मा इसके लिए इन विकृतियों या समस्याओं के इतिहास, इनकी राजनीति और बहुधा भारत के संदर्भ में इनका गहराई से विश्लेषण करते हैं। गरीबी से मुक्ति वाले अध्याय में वे स्वतंत्रता के बाद हुए कार्यों और औपनिवेशिक दौर में हुए शोषण के साथ हमारी परंपरा में आए दरिद्र नारायण जैसे शब्दों की भी व्याख्या करते हैं तो इस बुराई का धर्म, संस्कृति और भूगोल से संबंध भी बताते हैं। संकीर्णता से मुक्ति की चर्चा में वे सामंतवाद और पूंजीवाद के दौर में संकीर्णता के कारणों को पहचान धर्म को विभाजन का बड़ा कारण बताते हैं।

उन्होंने लिखा है, 'सारी दुनिया के धर्म इस अर्थ पर बराबरी की बात करते हैं कि दुनिया के सभी जीव-जंतु, मनुष्य तो खास तौर से, एक ही ईश्वर की संतान हैं। इसके नाम चाहे जो हों। भारत में तो इसे और अच्छे तरीके से स्थापित किया गया था- आत्मवत सर्वभूतेषु। लेकिन हुआ क्या? हुआ यह कि कुछ आत्मा अपने को परमात्मा साबित करने लगीं और बाकी आत्माएं निकृष्ट। यहां तक कि भारत में तो कुछ को अछूत कहा गया। इस विडंबना को बहुत बड़े-बड़े मनुष्यों ने भी हल करने की कोशिश नहीं की। कोशिश हुई भी तो सिद्धांतीकरण मात्र तक। कर्म में तो यह जड़ होती चली गई।' पुस्तक के संपादक अशोक कुमार पांडेय ने संक्षिप्त भूमिका में इस किताब के लिखे जाने और इसकी जरूरत को भलीभांति स्पष्ट किया है।     

कहना न होगा कि मनुष्यता से गहरे प्रेम से उपजी चिंताएं इसके केंद्र में हैं। वर्मा अपने अगाध अध्ययन और पांडित्यपूर्ण विश्लेषण से पाठकों को विवेक और तार्किकता से इन समस्याओं के प्रति विचार करना सिखाते हैं। सच्चा अध्यापक यही कर सकता है कि वह सही तरीके से सोचना सिखाए।  

आज़ादी का मतलब क्या

लालबहादुर वर्मा

प्रकाशक | राजपाल एंड संस, दिल्ली

मूल्य: 265 रुपये |पृष्ठः 160

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