उदयन वाजपेयी ने समास के बाइसवें अंक में भारतीय ज्ञान और सभ्यता विमर्श को लेकर जो चिंता व्यक्त की है, वह गंभीर, आम भारतीय मन के लिए अनुकरणीय और निहायत जरूरी है। इस अंक में हमेशा की तरह एक लंबा साक्षात्कार है। वागीश शुक्ल ने प्रश्नों के दीर्घ उत्तर से अपने कृतित्व, व्यक्तित्व और अपनी वैचारिकी पर रोशनी डाली है। बौद्धिक हलकों में गालिब पर आने वाली उनकी किताब की अभी भी प्रतीक्षा है। साक्षात्कार के साथ ही वागीश शुक्ल का लेख है– योगवासिष्ठ में वेतालोपाख्यान। भारतीय फारसी कविता के शीर्ष पुरुष मिर्जा बेदिल पर भी योगवासिष्ठ का प्रभाव है। ‘गोमती की महागाथा’ को शम्सुर्रहमान फारूकी ने लिखा है। जिन्हें इतिहास में रुचि है, वह इसे जरूर पढ़ें। वीनेश अंताणी, अनामिका अनु और सृजना शर्मा की कहानियां भी ताजगी लिए हुए हैं और बहुत पठनीय हैं। शहरी मध्यवर्ग की विसंगतियों पर आशुतोष पोद्दार का नाटक आनंद भोग मॉल बाजार से आक्रांत जीवन को लेकर लिखा गया है।
शिरीष ढोबले और कुमार शहानी की कविताओं के साथ खलील मामून की नज्में हैं, जो पाठकों को समृद्ध करती हैं। मदन सोनी ने शिरीष ढोबले की कविताओं पर विहंगम दृष्टि डाली है, यह लेख हिंदी के विद्वत कवि समाज और विचारकों को आसानी से समझ में आएगी। वहीं ध्रुव शुक्ल ने अपने लेख में विजयदेव नारायण साही और मुजीब रिजवी की जायसी पर जो आलोचनात्मक नजरिया है उसका विश्लेषण किया हैं।
अनामिका अनु और आस्तीक वाजपेयी अपने लिखे से भरोसा दिलाते हैं कि हिंदी का भविष्य सुनहरा है। इस अंक की ज्यादातर सामग्री भारतीय ज्ञान के स्वर्णिम अतीत की ओर ले जाती है। समास सिर्फ छपने के लिए नहीं छपती। बल्कि संपादक ध्यान रखते हैं कि पत्रिका की विश्वसनीयता भी बनी रहे और पठनीयता भी। निःसंदेह यह अंक हिंदी के गंभीर पाठकों के लिए है।
समास
अंक 22
संपादक: उदयन वाजपेयी