सदानीरा का ‘एंथ्रोपोसीन’ अंक शीर्षक से ही कौतूहल पैदा कर रहा था। इस शब्द से परिचित था, लेकिन हिंदी साहित्यिक दुनिया इस पर विशेषांक लिख रही है, यह नई बात थी। एंथ्रोपोसीन पश्चिमी दुनिया के लिए भी पिछले कुछ दशकों की ही सोच है। वह युग जिसमें हम रह रहे हैं, जब मानव जीवन प्रकृति पर बहुत अधिक प्रभाव डालने लगी है। इसे एंथ्रोपोसीन कहने की कवायद चल रही है।
चंदन श्रीवास्तव लिखते हैं, एंथ्रोपोसीन के लिए उपयुक्त हिंदी शब्द क्या हो। यह एक वैज्ञानिक रुझान है किसी भी समस्या को समझने के लिए। पहले उसकी परिभाषा और उसका नाम तय करते हैं। सोपान का आलेख पाठक को झकझोरता है, समझाता है और चेतावनी देता है।
पत्रिका में इतिहासकार की नजर से नदी तटों का जमीनी खाका तैयार करते हैं रमाशंकर सिंह। पत्रकार की नजर से सुंदरवन डेल्टा की यात्रा कराते हैं, उमेश कुमार रे। वैज्ञानिक दृष्टि से समझाते हैं नदियों के विशेषज्ञ दिनेश मिश्र। साहित्यकार की बहुआयामी चेतना उभर कर आती है अमिताव घोष के साक्षात्कार में। इन लेखों में अकादमिक आडंबर नहीं हैं। बल्कि चित्रों और कविताओं का रोचक पुल है।
एक बात इस पत्रिका में आरंभ से अंत तक दिखाई दी। वह यह कि यह भारतीय दृष्टि से एंथ्रोपोसीन का आकलन और विमर्श है। इसकी बनावट पाश्चात्य न होकर भारतीय सोच से है।
सदानीरा
(अप्रैल-जून 2022)
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