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जंगे-आजादी में कलमकारों की कहानी

उपेक्षा के कारण आंदोलन में साहित्यकारों के विस्तृत योगदान को नहीं जाना जा सका
आजादी के आंदोलन में साहित्यकारों की भूमिका

आजादी की लड़ाई में केवल नेताओं, स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों ने ही भाग नहीं लिया था, बल्कि लेखकों और कवियों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतिहासकारों ने उनके इस योगदान को अनदेखा किया और उन्हें विशेष रूप से रेखांकित नहीं किया। अमर शहीद गणेशशंकर विद्यार्थी की दंगे में हत्या की घटना का जिक्र तो इतिहास की किताबों में मिल जाता है लेकिन ताराचंद या विपिन चन्द्र जैसे इतिहासकारों ने माखनलाल चतुर्वेदी, राहुल सांकृत्यायन,  बालकृष्ण शर्मा नवीन, सुभद्रा कुमारी चौहान, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, जगदंबा प्रसाद  ‘हितैषी’, रामबृक्ष बेनीपुरी, बनारसी प्रसाद भोजपुरी, यशपाल, फणीश्वर रेणु के जेल जाने की कथा और आजादी की लड़ाई में उनके योगदान की चर्चा नहीं की है।

हिंदी में जहां-तहां इन लेखकों के बारे में कुछ लिखा मिलता है लेकिन इन सभी लेखकों के संपूर्ण योगदान पर आज तक कोई मुकम्मल किताब नहीं है। आजादी की लड़ाई में 400 से अधिक किताबें जब्त हुई थीं। वे किताबें अब नहीं मिलती हैं। कुछ साल से जब्तशुदा साहित्य के बारे में शोध कार्य होने और उनके संचयन प्रकाशित होने से एक झांकी अब जरूर मिलती है लेकिन इन लेखकों की अच्छी जीवनियों के न प्रकाशित होने से उनके विस्तृत योगदान के बारे में नई पीढ़ी को पता नहीं चलता।

आज भी विद्यार्थी जी की कोई अच्छी जीवनी नहीं है। बेनीपुरी जी ने कई लोगों की जीवनियां लिखीं पर उनकी कोई अच्छी जीवनी नहीं है। इसी तरह नवीन जी और माखनलाल जी या सुभद्रा कुमारी चौहान की जीवनियां नहीं हैं।

यह सही है कि इनमें से कई लेखकों की रचनावलियां आ गई हैं। राहुल जी ने तो मेरी जीवन यात्रा लिख दी थी। उग्र ने अपनी आत्मकथा अपनी खबर लिख दी थी। इसलिए हम उनके जीवन के प्रसंगों को थोड़ा-बहुत जानते हैं, लेकिन वे कोई बाकायदा इतिहास की पुस्तकें नहीं हैं, इसलिए राष्ट्रीय आंदोलन में उनके विस्तृत योगदान को नहीं जाना जा सका।

आज कितने लोगों को मालूम है कि माधवराव सप्रे पहले व्यक्ति थे जिन पर 1905 में राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ था। माखनलाल चतुर्वेदी के बारे में कहा जाता है कि वे बारह बार जेल गए थे और 69 बार उनके घर की तलाशी ली गई थी। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘पुष्प की अभिलाषा’ से अगली पीढ़ी को भी प्रेरणा मिली थी। राहुल जी चार बार जेल गए और उन्होंने जेल में कई किताबों की रचना की। यशपाल की तो बरेली जेल में शादी ही हुई थी। यह भारतीय जेल में अपने किस्म की पहली घटना थी। यशपाल ने विश्व साहित्य का अध्ययन जेल में रहकर किया। सुभद्रा जी 17 साल की उम्र में ही गिरफ्तार हुईं और ‘42 के आंदोलन में अपने नाटककार पति लक्ष्मण सिंह के साथ जेल गईं। नवीन जी ने ही भगत सिंह को हिंदी-उर्दू की शिक्षा दी। भगत सिंह मतवाला में बलवंत सिंह के नाम से लिखते थे। ये कुछ ऐसे रोचक और दुर्लभ प्रसंग हैं, जिन्हें आज की पीढ़ी को जानना चाहिए।

यह सच है कि हिंदी साहित्य में राष्ट्रवादी साहित्य का पर्याप्त मूल्यांकन नहीं हुआ और वामपंथी आलोचकों ने उसकी उपेक्षा की। साहित्य जगत में महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी की चर्चा अधिक हुई, जिसके कारण लोग इन लेखकों के बारे में अधिक जानते हैं। लेकिन ये जेल नहीं गए थे फिर भी उन्होंने अपने लेखन से आजादी की भावना लोगों में बढ़ाई। रामविलास शर्मा ने निधन से कुछ वर्ष पूर्व स्वीकार किया कि हिंदी पट्टी में गणेशशंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी और बेनीपुरी ने अपनी पत्रकारिता और लेखनी से क्रांति की अलख जगाई। यह सच है कि आजादी की लड़ाई में हिंदी के बहुतेरे लेखकों ने भाग नहीं लिया, वे जेल नहीं गए, पर हिंदी में द्विवेदी युग, छायावाद युग और प्रेमचंद युग तीन बड़े काल खंड हुए, जिसने हिंदी समाज को प्रेरित और शिक्षित किया। द्विवेदी जी ने बीस वर्ष तक सरस्वती निकाल कर हिंदी पट्टी में तर्क, विवेक और वैज्ञानिक चेतना फैलाई। सरस्वती ने मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद, गणेशशंकर विद्यार्थी, पंत, प्रसाद को स्थापित किया और विशाल भारत ने अज्ञेय, जैनेन्द्र, हजारीप्रसाद द्विवेदी,  दिनकर को, तो मतवाला ने निराला, उग्र और शिवपूजन सहाय को स्थापित किया, प्रताप ने माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन और विद्यार्थी को स्थापित किया। अगर राष्ट्रीय आंदोलन न होता तो छायावाद जैसा काव्य आंदोलन नहीं होता और सोजे वतन, रंग भूमि, कर्मभूमि,  निर्मला, गोदान, कामायनी, साकेत, भारत भारती, राम की शक्ति पूजा, देहाती दुनिया, सुनीता, त्यागपत्र, चित्रलेखा, शेखर एक जीवनी जैसी कृतियां न लिखी जातीं। इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन में लेखकों ने आजादी की चेतना फैलाई, तो यह आंदोलन उनकी लेखनी में निखार भी ले आया और अनुपम कृतियों की रचनाएं हुईं। ये लेखक जनता की आवाज बने।

फिर भी साहित्य पर यह आरोप लगता है कि भारत विभाजन जैसी त्रासद घटना पर किसी बड़े लेखक ने कविताएं नहीं लिखीं। उस दौर के लेखकों ने विभाजन के दर्द को उस रूप में चित्रित नहीं किया जिस रूप में वह जख्म फैला और जहर बन गया था। झूठा सच और तमस आजादी के बाद की रचनाएं हैं, लेकिन उसे छोड़ दिया जाए तो किसी ने उस राजनैतिक उथल-पुथल को अपनी रचनाओं में दर्ज नहीं किया। हिंदी के लोग यह तर्क देते हैं कि साहित्य तात्कालिक घटनाओं पर आधारित नहीं होता क्योंकि वह सार्वजनीन होता है और हर युग को ध्वनित करता है। साहित्य कालजयी होता है, उसमें हर काल की अंतर्ध्वनियां होती हैं।

बहरहाल, आजादी की लड़ाई में जिन लेखकों ने भाग लिया, जेल गए, उन्हें जनता का बहुत प्यार भी मिला। 1948 में ही जबलपुर में सुभद्रा जी की प्रतिमा का अनावरण महादेवी जी ने किया। आज स्वतंत्र भारत में अपनी ही सरकारों ने आजादी का गला घोटने का काम किया, एक बार इमरजेंसी लगा कर और आज बिना इमरजेंसी लगाए। लेखकों ने असहिष्णुता के विरोध में पुरस्कार लौटाए तो सरकार समर्थक लेखकों ने उन्हें ‘अवार्ड वापसी गैंग’ बताया। देश को राजनैतिक आजादी भले मिल गई और नेताओं को भले लगता हो कि उनका स्वप्न पूरा हुआ लेकिन हिंदी के लेखकों ने जो सपना  देखा था आजादी का, वह अधूरा है। आज साहित्य के सामने गांधी, नेहरू, आंबेडकर, सुभाष, भगत सिंह जैसा कोई नायक नहीं है और न ही कोई बड़ा आंदोलन, जो लेखकों को बड़ी कृति रचने के लिए प्रेरित कर सके।

(लेखक कवि और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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