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भाजपा: मोदीमय या बेचैनी का आलम

पार्टियों को तोड़कर विस्तार करने की रणनीति से भाजपा और संघ के अपने कार्यकर्ताओं की ही उपेक्षा हो रही है
बेजोड़ जोड़ी : शीर्ष का एकाधिकार कहीं समस्या तो नहीं बन रहा?

इतिहास गवाह है कि कई बार अतिशय मजबूती भी शीर्ष नेतृत्व में असुरक्षा-भाव और मातहतों में बेचैनी पैदा कर देती है। हाल में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपनी सर्वोच्च निर्णयकारी संस्था पार्टी के संसदीय बोर्ड के सदस्यों में फेरबदल किया और तेजतर्रार पूर्व पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी तथा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की जगह कुछ कम नामचीन चेहरों को स्थान दिया, तो कई तरह के सवाल सियासी फिजा में तैरने लगे। सवाल तो बनते हैं क्योंकि गडकरी को इकलौता ऐसा नेता माना जाता है जो खुलकर बोलते हैं और शिवराज भी पार्टी में मौजूदा शीर्ष नेतृत्व के करीबी नहीं माने जाते हैं। फिर उनकी जगह किसी कद्दावर नेता को भी नहीं रखा गया। जो लाए गए, उनमें सियासी अहमियत रखने वाला शायद ही कोई हो। तो, क्या यह किसी खास तरह का सियासी संकेत है? यह भी कि क्या शीर्ष नेतृत्व की मजबूती और एकाधिकार अब पहले से जारी सुगबुगाहटों को विस्तार दे रहा है?

योगी की बढ़ती लोकप्रियता से संकट

योगी की बढ़ती लोकप्रियता से संकट

पार्टी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी के 2014 में प्रभावी होने के साथ ही ऐसी अटकलें लगने थीं कि पार्टी की पांत में कुछ बेचैनी है, लेकिन उसके बाद से पार्टी ही नहीं, संघ परिवार के लगभग सभी एजेंडे खूब परवान चढ़े- अयोध्या में राम मंदिर, अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता, आदि जिन्हें एनडीए-1 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान मुल्तवी रखना पड़ा था। उसके अपने हिंदुत्व के एजेंडे का भी देश में बोलबाला है। पाठ्य-पुस्तकों में भी उसके अफसाने शामिल किए जाने लगे हैं। हाल में आई उस खबर पर गौर कीजिए कि कर्नाटक में आठवीं कक्षा की इतिहास की किताब में जिक्र है कि “वीर सावरकर बंद तन्हा कोठरी से बुलबुल के पंख पर सवार होकर मातृभूमि के दर्शन कर आते थे।” (सावरकर अंदमान सेलुलर सेल में ऐसी कोठरी में बंद रहे जिसमें रोशनी आने का भी सुराख नहीं था, हालांकि दस साल की सजा के बाद माफीनामे पर वे छूट गए थे)।

संघ परिवार के एजेंडे ही नहीं, पार्टी का देश के कई हिस्सों में ऐसा दबदबा कायम हुआ जैसा पहले कभी नहीं था। आज भाजपा की सदस्य संख्या कई करोड़ में है और खुद को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का वह दावा करती है। पार्टी चुनावी मशीन में तब्दील हो गई और जहां, खासकर कांग्रेस की शह वाले कई राज्यों में चुनाव में पिछड़ भी गई तो जोड़-तोड़ से सरकार बनाने में कामयाब हो गई। फिलहाल 11 राज्यों में उसकी अपनी या सहयोगियों के साथ गठजोड़ की सरकार है। नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का आज मुकाबला कोई दूसरा नेता नहीं कर सकता।

हाल के कई जनमत सर्वेक्षणों में मोदी की लोकप्रियता में काफी गिरावट के संकेत मिले हैं। गिरावट इतनी तेज है कि 2016 के मुकाबले लोकप्रियता आधे अंक पर आ गई है। खासकर देश में अर्थव्यवस्था, महंगाई, बेरोजगारी के मोर्चों पर सरकार से लोगों की नाराजगी और बेचैनी के आंकड़े दो-तिहाई से ऊपर जा रहे हैं। यह जरूर है कि अर्थव्यवस्था में गिरावट कोविड-19 महामारी की वजह से लगाए गए लॉकडाउन का भी नतीजा है और कीमतों में वृद्घि इस साल यूक्रेन युद्ध से अंतरराष्ट्रीय बाजार में आई तंगी की वजह से भी है, लेकिन 2020 में महामारी के पहले ही नोटबंदी और गलत ढंग से लागू की गई जीएसटी की वजह से अर्थव्यवस्था नौ तिमाहियों से गोता लगाने लगी थी, जो महामारी के दौरान शून्य से 23 अंक नीचे ऐसे गर्त में पहुंच गई कि दुनिया में ऐसी निचाई कहीं नहीं देखी गई।

लंबे समय से अपने ही बूते टिके हैं शिवराज

लंबे समय से अपने ही बूते टिके हैं शिवराज

इन चिंताजनक पहलुओं के बावजूद भाजपा का इकबाल बुलंद दिखता है, तो उसकी भी वजहें अबूझ नहीं हैं। विपक्ष का शिराजा बुरी तरह बिखरा है और केंद्रीय एजेंसियों की उस पर दबिश उसे और कमजोर कर रही है, उसका बिखराव बढ़ा रही है। इसके नतीजे भाजपा को सहयोगियों को गंवाकर झेलना पड़ रहा है। बिहार में जनता दल-युनाइटेड (जदयू) और महाराष्ट्र में टूट-फूट करवाने के बाद शिवसेना के बाहर होने के बाद एनडीए में कोई बड़ा क्षेत्रीय दल नहीं बचा है। यह भी भाजपा के एक वर्ग में बेचैनी का सबब बताया जा रहा है, हालांकि मोदी-शाह जोड़ी कांग्रेस तथा क्षेत्रीय दलों को तोड़कर अपनी पार्टी को विस्तार देने की रणनीति पर चलती दिख रही है।

इसकी मिसाल के तौर पर पटना में 29-30 जुलाई को पार्टी से जुड़े संगठनों की कार्यकारिणी में पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा उत्साह में कह गए, “क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व मिट जाएगा। बची रह जाएगी, सिर्फ भाजपा।” इसका असर यह हुआ कि जदयू राजद-कांग्रेस-वामदलों के महागठबंधन की ओर चला गया और भाजपा बिहार की सरकार से बाहर निकल गई।

सूत्रों के मुताबिक, भाजपा की पांत के साथ आरएसएस में भी यह बेचैनी है कि पार्टियों को तोड़कर विस्तार करने की इस रणनीति से भाजपा और संघ के अपने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा हो रही है। हालात ये हैं कि लोकसभा में एक-तिहाई से ज्यादा सांसद दूसरी पार्टियों के हैं और राज्यों में विधायकों की पांत में भी इससे कुछ ज्यादा ही विधायक दूसरी पार्टियों से आए नेता हैं। अकसर ऐसी बात सामने आती है कि सरकार के कामकाज में मंत्रियों की नहीं, बल्कि सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय की चलती है। सूत्रों के मुताबिक केंद्रीय कैबिनेट में कोई खास चर्चा नहीं होती है, न ही पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक ठीक से होती है। चुनाव के उम्मीदवारों का चयन भी शीर्ष स्तर पर होता है। ऐसे में सवाल यह भी उठ सकता है कि ऐसी स्थिति में किसी के संसदीय बोर्ड में होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है। फिर अटकलें ये भी हैं कि भाजपा में आरएसएस के संपर्क सूत्र बी.एल. संतोष की भी शीर्ष नेताओं से बातचीत विरले ही हो पाती है।

गडकरी को पिछली सीट पर बैठाना आसान नहीं

गडकरी को पिछली सीट पर बैठाना आसान नहीं

यही स्थितियां शायद बेचैनी पैदा कर रही हैं, जो गडकरी या एकाध बार राजनाथ सिंह जैसे नेताओं के बयानों में भी झलकती हैं। मसलन, गडकरी ने किसी और संदर्भ में कहा कि मुझे किसी पद की परवाह नहीं है, तो उसका अर्थ उनकी नाराजगी की तरह लिया गया। गडकरी पहले भी ऐसी बातें कहते रहे हैं जिनसे संकेत मिलता रहा है कि पार्टी के भीतर दरारें हैं। सबके बावजूद सवाल यही है कि क्या मोदी की लोकप्रियता का कोई जवाब किसी के पास है? बिला शक मोदी आज उस ऊंचाई पर हैं जहां वे बेजोड़ हैं। ऐसे में भाजपा के किसी स्तर पर कोई बेचैनी है तो उसका हश्र क्या होगा, कहना मुश्किल है। वैसे, सच्चाई तो यह भी है कि कम से कम भाजपा या संघ परिवार से टूटा कोई नेता अभी तक अपनी कोई बड़ी हैसियत नहीं बना सका है। बलराज मधोक से लेकर कल्याण सिंह, उमा भारती तक इसकी स्पष्ट मिसालें हैं। फिर भी, सियासत कब क्या करवट लेगी कहना मुश्किल है।

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