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20 फरवरी 2023 · FEB 20 , 2023

आवरण कथा/नजरिया: गिग इकोनॉमी का संकट

यह कथित ‘गिग’ अर्थव्यवस्था मौटे तौर पर डिजिटल क्रांति की पैदाइश है
सपनों की मंजिलः कैलिफोर्निया स्थित गूगल मुख्यालय

एक जमाना था जब बीसेक साल के किसी नौजवान को जब किसी कंपनी में पहली नौकरी मिलती थी, तो वह अपना काम अच्छे से सीखता था और धीरे-धीरे तरक्की करते हुए साठ की उम्र तक वरिष्ठ प्रबंधक जैसे पद पर पहुंच कर रिटायर होता था। बाद के वर्षों में पीछे मुड़ कर देखने पर उसे अपनी नियोक्ता कंपनी के साथ किए काम पर गर्व और उपलब्धि का अहसास होता था। उसे उम्मीद बंधती थी कि उसके और उसके बेटे की तरह उसके नाती-पोते भी उसी कंपनी की सरपरस्ती में अपनी जिंदगी काट लेंगे।

वो समय अब चला गया। हम सभी के परिवारों में पिता, दादा, चाचा, आदि होंगे जिनका ऐसा ही अनुभव रहा है। हम में से हालांकि शायद ही कोई हो जो ऐसे अनुभव का दावा कर सके। आज नौकरियां आजीवन नहीं चलती हैं। कुछ साल किसी एक नियोक्ता के साथ आप रह गए तो समझिए किस्मत है। अब स्थायी नौकरी की सुरक्षा की जगह तदर्थ रोजगार या सीमित अवधि के अनुबंध किए जाते हैं।

हमारा दौर और हमारी जिंदगी अब ज्यादा से ज्यादा फुटकर कामों की मोहताज होती जा रही है, जिसे अंग्रेजी में आजकल ‘गिग इकोनॉमी’ कहने का चलन है। लोगों के पास नौकरियां नहीं हैं। इसके बजाय वे घुमंतू नटों की तरह फुटकर काम कर रहे हैं। माना जाता है कि ऐसे रोजगारों में उन्हें इस बात की आजादी होती है कि वे कौन सा काम करें और कब करें। हकीकत हालांकि यह है कि उनके पास कमाई का कोई ऐसा स्रोत नहीं होता जिस पर वे अपना भरोसा टिका सकें। न ही उनके पास बुनियादी स्वास्थ्य सुविधा या सेवानिवृत्ति के लाभ की कोई सुरक्षा होती है।  

यह कथित ‘गिग’ अर्थव्यवस्था मोटे तौर पर डिजिटल क्रांति की पैदाइश है। स्थायी नौकरियों की जगह अनुबंध आधारित रोजगारों ने पहले ही ले ली थी। सूचना प्रौद्योगिकी के एक उद्योग के रूप में उभार ने छोटी अवधि की मजदूरी का एक बाजार पैदा कर दिया। इस उद्योग को एंजल निवेशक और उद्यमी पूंजी के निवेशक चलाते हैं। ऐसे पूंजीपति अपनी मनमर्जी से किसी उत्पाद पर पैसे लगाते हैं या उससे हाथ खींच लेते हैं। ये किसी स्टार्ट-अप को कभी भी चढ़ा और गिरा देते हैं। इनका कोई धर्म-ईमान नहीं होता है। आज भले ही प्रौद्योगिकी क्षेत्र की कंपनियां दुनिया के सबसे बड़े कारोबार चला रही हैं लेकिन अपने श्रमिकों के प्रति जिम्मेदारी और जवाबदेही न लेने की उनकी प्रवृत्ति में कोई बदलाव नहीं आया है।

सिलिकॉन वैली में हुई ताजा छंटनी इसका उदाहरण है। गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, अमेजन और फेसबुक जैसी कंपनियों के दो लाख से ज्यादा कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया है। इनमें से एक-तिहाई लोग भारत के हैं। ये सब नई नौकरियों के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं क्योंकि इन्हें जल्द नौकरी नहीं मिलेगी तो अमेरिकी वीसा नियमों के मुताबिक इन्हें भारत वापस आना पड़ेगा। चूंकि पूरा उद्योग ही श्रमबल में कटौती कर रहा है इसलिए इन्हें नौकरी मिलने की संभावना काफी कम है। भारत आकर भी इन्हें नई नौकरी मिलना मुश्किल है क्योंकि मीडिया में आई रिपोर्टों की मानें तो घरेलू प्रौद्योगिकी उद्योग भी अगले कुछ महीनों में एक लाख बीस हजार कर्मचारियों की छंटनी कर सकता है।

आइटी क्षेत्र में सामूहिक छंटनी समय-समय पर होती रही है। इसका एक चक्र होता है। इस बार हालांकि कोरोना महामारी आने के बाद डिजिटल सेवाओं की मांग में विस्फोट के चलते टेक कंपनियों ने जमकर भर्ती की लेकिन महामारी खत्म होने के बाद इस मांग में गिरावट आ गई। तमाम कर्मचारियों ने इस बीच अपनी जिंदगी में बड़े बदलाव लाते हुए देश बदला, महाद्वीप बदले ताकि उनकी कंपनियों और उनके निवेशकों को मुनाफा हो सके और उनकी जेब भारी रहे। आज हालत यह है कि इन्हीं कंपनियों के एचआर प्रबंधक बड़ी आसानी से अपने ही भर्ती किए हजारों कर्मचारियों को सूचना देने में कोई संकोच नहीं कर रहे कि कंपनी को अब उनकी सेवाओं की जरूरत नहीं रह गई है।

ऐसी छंटनी को बड़ी आसानी से बाजार की बाध्यताओं के नाम पर आंख मूंद कर स्वीकार कर लिया जाता है। इसके चलते कंपनियों और उनके अधिकारियों की किसी को नौकरी पर रखने या निकाल देने के प्रति कोई जवाबदेही नहीं बन पाती है। जैसे, गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई का कहना है कि कोविड के बाद उनकी जैसी परिकल्पना थी उसके हिसाब से ‘आर्थिक सच्चाई बिलकुल अलहदा’ निकली, जिसके चलते छंटनी करना अनिवार्य हो गया। फेसबुक और मेटा के मालिक मार्क जुकरबर्ग ने एक ब्लॉग पोस्ट में दावा किया कि महामारी के बाद ई-कॉमर्स में वृद्धि ‘अपेक्षा के अनुरूप नहीं हुई।’ अमेजन के एंडी जेसी ने तो सपाट ढंग से कह दिया कि यह छंटनी ‘कम लागत में ज्यादा ग्राहक की सेवा करने के लिए है।’

छंटनी की ये घटनाएं जब सुर्खियों में हैं, अमेरिका और दूसरी जगहों पर प्रौद्योगिकी कंपनियां लगातार तदर्थ श्रमबल के भरोसे चल रही हैं, जिसके प्रति इनकी जिम्मेदारी वेतन देने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जाहिर है, मानवीय श्रम के प्रति इनका रवैया इस इंडस्ट्री की मूल भावना के ही अनुरूप है जिसमें तेजी से आगे बढ़ने और उपलब्धि हासिल करने को प्राथमिकता दी जाती है। जिस तरह ये कंपनियां अपने उत्पादों के ‘अपग्रेड’ किए हुए संस्करण लाती हैं या नए फीचर जोड़ती घटाती हैं, उसी तरह इनके यहां कामगारों को रखा जाता है, बदला जाता है और निकाला जाता है। इस प्रक्रिया में उनके और उनके परिवारों की जिंदगी पर पड़ने वाले असर के बारे में सोचने का चलन नहीं है।

गिग इकोनॉमी और उसमें निहित असुरक्षा केवल प्रौद्योगिकी के क्षेत्र तक सीमित नहीं है। अब तमाम उद्योगों और पेशों में यह धीरे-धीरे रेंग कर पहुंच चुकी है। इसका सबसे प्रामाणिक उदाहरण राइडशेयर उद्योग है जिसकी अग्रणी कंपनी उबर के नाम पर बाकायदा ‘उबराइजेशन’ का एक मुहावरा चल पड़ा है। इसका प्रयोग मांग आधारित सेवाओं के संदर्भ में किया जाता है जिसमें कामगार के काम करने के अनियमित घंटे, कम पारिश्रमिक और सुरक्षा लाभों का अभाव शामिल होता है। यह उबराइजेशन अब अकाउंटिंग और वित्तीय सेवाओं, फोटोग्राफी से वीडियो प्रोडक्शन जैसी मीडिया सेवाओं, मील और ग्रॉसरी डिलीवरी, कूरियर सेवा, इत्यादि में भी देखा जा रहा है। यह सूची लगातार बढ़ रही है जिससे ज्यादा से ज्सादा आबादी गिग या फुटकर कामगारों में तब्दील होती जा रही है।

ऐसी स्थिति में जरूरी है कि सरकार कंपनी-कर्मचारी संबंध में कुछ संतुलन लाने के लिए हस्तक्षेप करे। ऐसा हस्तक्षेप दो तरीके से हो सकता है। अमेरिका और भारत सहित कई देशों में कामगारों के अधिकारों के संबंध में सुस्पष्ट कानून हैं। अंशकालिक या अनुबंध आधारित अस्थायी रोजगारों में लगे कामगार ऐसे कानूनी अधिकारों का लाभ नहीं ले पाते हैं। इसके कारण इनके श्रम के दुरुपयोग की आशंका बढ़ती है। इसके लिए श्रम कानूनों में बदलाव लाया जाना चाहिए ताकि इन कमियों को दूर किया जा सके और सुनिश्चित किया जा सके कि ये कामगार मौजूदा कानूनों से लाभान्वित हो सकें। अकसर केवल डिजिटल प्लेटफॉर्म पर या उसके माध्यम से सेवाएं देने वालों को गिग कामगार मान लिया जाता है और इस तरह इसकी परिभाषा संकीर्ण कर दी जाती है। श्रम अधिकार ऐसे होने चाहिए जो हर किस्म के स्थायी और अस्थायी रोजगार को कवर कर सकें, चाहे वह ऑनलाइन हो या ऑफलाइन।   

दूसरे, कंपनियों को उनके कामगारों के कल्याण के प्रति जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। अपने मूल्यांकन में कमी का दोष बाजार की ताकतों के मत्थे मढ़ देना स्वीकार्य नहीं है। कामगारों को उनके अधिकारों से वंचित करने वाली कंपनियों को दंडित किया जाना चाहिए।

बाजार को जनता के हित में काम करना चाहिए, इसके उलट नहीं।

सैफ शाहीन

(लेखक नीदरलैंड के टिलबर्ग विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं। मीडिया, तकनीक और समाज के अंर्तविभाजन पर उनका शोध है। ऑस्टिन के टैक्सास विश्वविद्यालय से पीएचडी। पहले वॉशिंगटन डीसी में पढ़ा चुके हैं। )

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