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12 जून 2023 · JUN 12 , 2023

आवरण कथा/उत्तर प्रदेश: गोलबंदी पर निरुत्तर प्रदेश

भाजपा के विजय अभियान को रोकने का सबसे बड़ा दारोमदार समाजवादी पार्टी पर, लेकिन विपक्षी एकता के संकेत धुंधले
ये कामयाबियांः निकाय नतीजों के बाद योगी आदित्यनाथ और अन्य नेता

बीती 13 मई को जब उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनाव के परिणाम आए, तो भारतीय जनता पार्टी ने अपनी मामूली जीत का ऐसा तूमार बांधा कि सच्चाई उसके पीछे छुप गई। यूपी में अब सीधे 2024 में लोकसभा चुनाव होना है, इसलिए निकाय चुनाव के परिणामों को सूबे के सियासी तापमान और जमीनी हालात का तात्कालिक पैमाना माना जा सकता है। ऊपर से विजयीभाव और आश्वस्त दिख रही भाजपा को भीतर ही भीतर इन नतीजों का ताप महसूस हो रहा है। हकीकत यह है कि शहरों के बाहर नगरपालिका परिषद और नगर पंचायतों में भाजपा की बहुत बुरी हार हुई है। नगर पंचायत सदस्य और अध्यक्ष के पदों पर भाजपा के 20 और 35 फीसदी जबकि नगरपालिका परिषद के सदस्य और अध्यक्ष पदों पर क्रमश: एक-चौथाई और बमुश्किल आधे प्रत्याशी जीते। ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में गैर-भाजपा दलों की कुल सीटें भाजपा से ज्यादा रहीं।

इस परिणाम में सबसे बड़ी बात यह रही कि भाजपा की हार वाले यूपी के ऐसे 15 जिले हैं जहां से भाजपा के 12 सांसद और कुछ केंद्रीय मंत्री आते हैं। यही वजह है कि लोकसभा की 80 सीटों पर करवाए जा रहे पार्टी के सर्वे के बाद उन सांसदों के टिकट कटने तय हैं जो अपने इलाके की सीटें निकाय चुनाव में हार चुके हैं। अंदरखाने से आ रही सूचनाओं की मानें तो पार्टी लगभग 20-30 फीसदी सीटों पर प्रत्याशी बदलने की योजना बना चुकी है। लोकसभा चुनाव को अब केवल दस महीने बच रहे हैं, तो यह अस्वाभाविक भी नहीं है। लेकिन बाकी दलों की क्या स्थिति है?

निकाय चुनाव परिणाम

पिछले लोकसभा चुनाव में एक दुर्लभ राजनीतिक घटना हुई थी जब समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने आपस में हाथ मिला लिया था। इसका भाजपा की सेहत पर कुछ ही असर पड़ा। वह 62 सीटें जीतने में ही कामयाब हुई, जो 2014 की 71 सीटों से कम थीं। बसपा को 10 सीटें आसानी से मिल गई थीं। पिछले साल विधानसभा चुनाव में सपा और राष्ट्रीय लोकदल का गठबंधन हुआ, फर्क पड़ा मगर भाजपा की सरकार बन गई। क्या ऐसे किसी गठजोड़ या विपक्षी एकता का सीन इस बार नजर आता है? इस सवाल के केंद्र में प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी सपा है, जिसके कंधे पर भाजपा को हराने का दारोमदार है।

किधर जाएंगे मुसलमान?

2019 की नाकामी के बाद सपा-बसपा गठजोड़ की गुंजाइश नहीं है। कांग्रेस के साथ सपा के जाने के अब तक कोई औपचारिक संकेत नहीं मिले हैं। फिर भी, कर्नाटक के मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में रालोद नेता जयन्त चौधरी का जाना कुछ संकेत जरूर देता है। कर्नाटक चुनाव में ‘बजरंग दल पर प्रतिबंध’ का कार्ड चलने वाली कांग्रेस को वहां मिली कामयाबी एकदम सामने है। इस संदर्भ में सपा की समस्याएं बढ़ती हुई दिखती हैं, जिसे ज्यादातर वोट मुसलमान और यादव देते हैं। जानकार मानते हैं कि अतीक अहमद हत्याकाण्ड और अन्य मामलों में मुसलमानों के हितों पर बात न करने का नुकसान सपा को हो सकता है और कर्नाटक में कांग्रेस की कामयाबी के मद्देनजर मुसलमान उधर देख सकता है। इस परिदृश्य में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआइएमआइएम) के निकाय चुनाव में प्रवेश और प्रदर्शन ने सपा के एमवाइ समीकरण को हिला दिया है।

पूर्वांचल के वरिष्ठ पत्रकार ए.के. लारी बताते हैं, "मुस्लिम मतदाताओं ने निकाय चुनावों में जिस प्रकार चतुराई से मतदान करके कई जगहों पर मजलिस के प्रत्याशियों को जिताया है, उसके मद्देनजर यह कहना लोकसभा के परिप्रेक्ष्य में मुश्किल है कि मुस्लिम मतदाताओं का रुझान सिर्फ एक पार्टी की तरफ होगा। उन्हें जिताऊ प्रत्याशी चाहिए। वह किसी भी दल का हो अब उन्हें फर्क नहीं पड़ता।"

उधर, भाजपा की नजर पसमांदा मुसलमानों पर है। भाजपा के नेताओं ने पिछले कुछ महीनों से सार्वजनिक मंचों से यह दावा करना शुरू किया है कि सरकारी योजनाओं का सबसे ज्यादा लाभ पसमांदा को मिला है। उन्हें अपनी ओर खींचने की जिम्मेदारी पार्टी ने बलिया से आने वाले दानिश आजाद अंसारी को सौंपी है। दानिश का चयन बहुत सोच-समझ कर किया गया है क्योंकि पूर्वांचल की घनी आबादी वाले जनपदों और इनमें मौजूद पसमांदा मुसलमानों की भारी संख्या और उनके बीच आपसी गतिरोध एवं गुटबाजी में भाजपा को उम्मीद की रोशनी दिखती है। हर बूथ पर 100 लाभार्थी वाली योजना के तहत भाजपा मुस्लिम-बहुल इलाकों में परिवारों को लाभार्थी बना रही है। ऐसे मुस्लिम-बहुल इलाकों में कुल 40 हजार बूथ हैं जहां भाजपा क्षेत्रवार अलग-अलग रणनीति बना रही है।   

यही वह परिदृश्य है जो अखिलेश यादव को दबाव में कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने की पहल के लिए बाध्य कर सकता है। सपा, कांग्रेस और रालोद की अगर एकता बन भी जाती है, तो लड़ाई इतनी आसान नहीं होगी क्योंकि यूपी में पिछड़ा और दलित वोट की जमीन बहुत तेजी से खिसक रही है। 

पिछड़ा और दलित वोट 

राज्य की आबादी में यादवों की अनुमानित हिस्सेदारी 11 प्रतिशत और दलितों की 21 प्रतिशत है। राज्य की 17 लोकसभा सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। 2019 लोकसभा और फिर 2022 विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद हुई समीक्षा के बाद भाजपा को यह समझ में आ गया है कि उसे यादव और जाटव के बीच मजबूत पकड़ बनाने की जरूरत है।

यादव मतदाताओं को रिझाने के लिए सपा से नाराज यादव नेताओं को उचित सम्मान देकर भाजपा की तरफ लाने का काम जोर-शोर से किया जा रहा है। इसका उदाहरण आजमगढ़ के लोकसभा उपचुनाव में देखने को मिला जब सपा के संस्थापक सदस्य और यदुवंशियों के कद्दावर नेता रामदर्शन यादव को भाजपा ने अपने साथ ले लिया। इसके अलावा मुलायम सिंह यादव के निधन पर मुख्यामंत्री योगी आदित्यनाथ का सैफई जाना, केंद्र सरकार द्वारा उन्हें मरणोपरांत पद्म पुरस्कार से सम्मानित करना, और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के शपथग्रहण वाले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा समाजवादी पार्टी के पूर्व राज्यसभा सदस्य और 'अखिल भारतीय यादव महासभा' के अध्यक्ष हरमोहन सिंह यादव की 10वीं पुण्यतिथि पर कानपुर में आयोजित गोष्ठी को वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये संबोधित करना कुछ ऐसी घटनाएं हैं जिन्हें राजनीतिक जानकार यादव मतदाताओं के बीच भाजपा की बड़ी सेंध का हिस्सा मान कर चल रहे हैं।  

2019 में मायावती और अखिलेश

दूसरी ओर जाटव मतदाताओं को खींचने की कवायद भी तेज हो चली है। इन मतदाताओं को साधने के लिए भाजपा ने जाटव समाज से आने वाली नेत्री बेबी रानी मौर्या को आगे किया है। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले उन्हें उत्तराखंड के राज्यपाल पद से हटाकर वापस बुला लिया गया था। अब वह यूपी सरकार में मंत्री हैं और भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी हैं। भाजपा ने अब तक उत्तर प्रदेश में गैर-जाटव अनुसूचित जातियों में खटीक, कोरी, धोबी, पासी, धानुक आदि समाज के लोगों को विशेष वरीयता दी थी। अब इस लिस्ट में जाटवों के नाम भी शामिल किए जा रहे हैं।

दलितों की इकलौती पार्टी रही बसपा के सामने अब अस्तित्व का संकट है। पार्टी का जनाधार हर चुनाव में खिसकता जा रहा है। कभी 20-22 प्रतिशत वोटों पर खड़ी रहने वाली बसपा को 2022 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ 12.88 प्रतिशत वोट मिले थे। यही स्थिति निकाय चुनाव में भी देखने को मिली है। ऐसे में बसपा की भूमिका भविष्य में बहुत हद तक वोटकटवा की होकर रह गई है जो कहीं न कहीं भाजपा को लाभ पहुंचाती ही दिख रही है।

बसपा के पास आज भी गुड्डू जमाली जैसे खेल बिगाड़ने वाले प्रत्याशी कई सीटों पर हैं लेकिन उनकी भूमिका सपा को हरवाने तक सीमित रह जाती है। दूसरी ओर युवा दलित मतदाताओं का भाजपा में जाना, चंद्रशेखर आजाद जैसे नए दलित नेताओं का अखिलेश के करीब आना और परंपरागत गैर-जाटव वोटों का कुछ सीटों पर सपा और कांग्रेस में जाना बसपा के लिए खतरे के बड़े संकेत हैं। राजनीतिक विशेषज्ञ अब भी बसपा को उत्तर प्रदेश में पूरी तरह खारिज करने के मूड में नहीं हैं, लेकिन एक राजनीतिक दल के रूप में बसपा का भविष्य बहुत हद तक आगामी लोकसभा चुनावों के नतीजों पर टिका हुआ है।   

भाजपा की बूथवार स्थिति

चुनाव में दलितों की भूमिका को कांग्रेस ने भी समझा है, लेकिन उसके प्रयोग लगातार फेल हुए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर मल्लिकार्जुन खड़गे को पार्टी की कमान सौंपने के बाद कांग्रेस ने नया प्रदेश अध्यक्ष बृजलाल खाबरी को बनाया, जो दलित हैं। खाबरी ने पदभार संभालते ही प्रदेश को छह प्रांतों में बांटकर पहली बार प्रांतीय अध्यक्ष के रूप में नया प्रयोग किया। जातिगत समीकरणों के आधार पर नेताओं को नई जिम्मेदारी सौंपी गई- नसीमुद्दीन सिद्दीकी को पश्चिमी प्रांत, नकुल दुबे को अवध, अनिल यादव को बृज, वीरेन्द्र चौधरी को पूर्वांचल, योगेश दीक्षित को बुंदेलखंड व अजय राय को प्रयाग प्रांत। इन सभी के लिए नगर निकाय चुनाव पहली परीक्षा थी, लेकिन सभी इसमें फेल हो गए।

गोलबंदी की सूरत

उत्तर प्रदेश की हालिया राजनीति के सबसे बड़े सियासी मौसम वैज्ञानिक और सुभासपा प्रमुख ओमप्रकाश राजभर ने लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के साथ मिलकर काम करने की वकालत की है। कर्नाटक चुनाव परिणाम के बाद जयन्त चौधरी और अखिलेश यादव के सुर भी कुछ बदले नजर आते हैं, लेकिन कांग्रेस अपने प्रयोगों से ही त्रस्त है।

प्रियंका गांधी वाड्रा द्वारा 2019 में प्रदेश कांग्रेस प्रभारी का पद संभालने के बाद से ही कांग्रेस खतरनाक रूप से लगातार नीचे खिसकती जा रही है। 2019 में केवल रायबरेली लोकसभा सीट और 2022 में 403 के सदन में केवल दो विधानसभा सीटें कांग्रेस का अब तक का सबसे बुरा प्रदर्शन है। नगरपालिका चुनावों में कांग्रेस के मत प्रतिशत में और गिरावट हुई है। प्रदेश कांग्रेस की अंतर्कलह और बिखरा प्रबंधन उस पर फिर से भारी पड़ा है। प्रियंका गांधी ने पिछले जून के बाद उत्तर प्रदेश का दौरा नहीं किया है। उनकी गैरमौजूदगी पार्टी को कमजोर कर रही है। इधर, प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने अपने वरिष्ठ नेताओं को तरजीह देनी ही बंद कर दी है। प्रियंका के आने के बाद से लगभग दो दर्जन बड़े नेताओं ने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया है।

प्रियंका गांधी वाड्रा

यह सच है कि यूपी में सपा अब भी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है और गैर-भाजपा वोटरों की पहली पसंद भी, लेकिन बीमारू कांग्रेस और ढलती हुई बसपा के बीच सपा के लिए आगामी लोकसभा चुनाव करो या मरो जैसा हो चला है। शिवपाल यादव समाजवादी खेमे में वापस आ चुके हैं, मुलायम सिंह यादव के दिवंगत होने के बाद सपा के परंपरागत वोटबैंक ने अखिलेश को सर्वसम्मति से अपना नेता भी मान लिया है, लेकिन उन्हें लंबी लड़ाई लड़नी है।

प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, "यह नई सपा है, इसमें जोश भी है और नए आयाम भी हैं लेकिन इन्हें राजनैतिक गठजोड़ और वर्तमान समय के अनुसार खुद को बदलना होगा। तभी ये एक मजबूत विपक्ष के रूप में भाजपा या किसी भी अन्य दल को टक्कर दे सकते हैं।"

उत्तर प्रदेश में योजनाबद्ध तरीके से चुनाव लड़ कर भाजपा को बेशक टक्कर दी जा सकती है, लेकिन इसके लिए सपा, रालोद सहित कांग्रेस एवं अन्य दलों को एकजुट होकर आपसी समन्वय के साथ टिकटों का बंटवारा करना होगा। इसमें सपा की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है जबकि कांग्रेस को संतोष करके उन्हीं सीटों पर दांव लगाना चाहिए जहां उसके प्रत्याशियों के जीतने की संभावना सबसे अधिक हो। कांग्रेस को कई सीटों पर अपना दिल बड़ा करना होगा। साथ ही राजभर वोटों के लिए सुभासपा और अन्य पिछड़े वोटों के लिए महान दल इत्यादि को भी साथ रखना होगा। कह सकते हैं कि यूपी में भाजपा के लिए पहले जैसा सपाट मैदान तो इस बार नहीं है, लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि उसकी घेराबंदी कैसे होगी।

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