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शहरनामा / अल्मोड़ा

चौखम्भा चोटी सूरज की पहली किरण से दमकती है तब अल्मोड़ा में सुहानी सुबह का आगाज होता है
यादों में शहर

सिरहाने खड़ी चौखम्भा चोटी

अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड का प्राचीन एवं महत्वपूर्ण शहर है। मानसखण्ड ग्रन्थ में अल्मोड़ा के भू-भाग को ‘रामक्षेत्र’ कहा गया है। यहां की पहचान ‘राजपुर’, ‘अल्मपुर’, ‘आलमनगर’ नाम से भी रही है। इतिहासकारों के मुताबिक कुमाऊं के चंद शासकों ने चम्पावत से राजधानी अल्मोड़ा (खगमराकोट) स्थानान्तरित की जो अनुश्रुतियों के आधार पर 1563 ई. के आसपास है और खगमरा, दुगालखोला से शुरू हुई छोटी सी बसाहट आज समृद्ध पहाड़ी शहर अल्मोड़ा है। नंदादेवी मंदिर की घण्टियों की टुन-टुन, स्याहीदेवी, कसारदेवी और बानड़ीदेवी पहाड़ियों से उतरते मन्द बयार के झोंकों तथा वन पंछियों के संगीत कलरव के बीच सिरहाने खड़ी चौखम्भा चोटी सूरज की पहली किरण से दमकती है तब अल्मोड़ा में सुहानी सुबह का आगाज होता है।

बाल, माल व पटालों का शहर

घोड़े की काठी सदृश्य पहाड़ी पर बसे अल्मोड़ा की पहचान बालमिठाई, मालरोड व पटालों से होती है। बालमिठाई यहां की प्रसिद्ध मिठाई है जिसे पर्यटक व पर्वतीय प्रवासी सौगात के तौर पर ले जाते हैं। किसी समय माल रोड पर सैर करने का अलग आनंद था। बर्फ से ढके हिम शिखर व हरे-भरे पहाड़ों के बीच सीढ़ीदार खेत व गांवों के मनोरम दृश्यों के नजारे, ऊंचे भवनों के निर्माण के कारण दुर्लभ हो गए हैं। शहर की शान, खदानों से निकलने वाली पटालों (पत्थर की स्लेटें) से बाजार के रास्ते बिछे रहते थे पर अब शहर की गलियों, सीढ़ियों, घर-मंदिर के अहातों और घर की छतों पर ये पटालें बची हुई हैं। अल्मोड़ा की नैसर्गिक सुंदरता, एकांत व आध्यात्मिक परिवेश ने स्वामी विवेकानंद, लामा गोविन्दा, मां आनंदमयी, महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, जवाहरलाल नेहरू, अमेरिकी चित्रकार अर्ल ब्रुस्टर, महान कृषि विज्ञानी बोसी सेन तथा मलेरिया की खोज करने वाले वैज्ञानिक रोनाल्ड रॉस जैसी महान हस्तियों को आकर्षित किया। अल्मोड़ा में इनके प्रवास की अवधि कुछ दिनों से लेकर दीर्घ समय तक रही। स्वामी विवेकानंद का यहां तीन बार आगमन हुआ।

संस्कृति, साहित्य, राजनीति की त्रिवेणी

अल्मोड़ा कला, संस्कृति, शिक्षा, साहित्य और राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र रहा है। प्रख्यात रंगकर्मी पं. उदयशंकर के अल्मोड़ा स्थित इंडिया कल्चर सेंटर से जोहरा सहगल, गुरुदत्त सहित अनेक प्रख्यात रंगकर्मी जुड़े रहे। पर्वतीय लोक के चितेरे व रंगकर्मी मोहन उप्रेती, बृजेन्द्र लाल शाह, नईमा उप्रेती व लोक गायक मोहन रीठागाड़ी ने इसी शहर से कुमाऊनी लोकसंगीत को नया आयाम दिया। लोक साहित्यकार गुमानी पंत तथा कविताओं से राष्ट्रप्रेम जगाने वाले गौर्दा का भी अल्मोड़ा से सम्बन्ध था। हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने वाले श्यामाचरण पंत, इलाचन्द्र जोशी, हेमचन्द्र जोशी, सुमित्रानंदन पंत, शिवानी, शैलेश मटियानी जैसे साहित्यकार अल्मोड़ा से ही निकले। अल्मोड़ा पं.गोविन्द बल्लभ पंत, बदरीदत्त पांडे, हरगोविन्द पंत व रामसिंह धौनी जैसे स्वाधीनता सेनानी व राजनीतिज्ञों की कर्मभूमि भी रही है। 1871 में अल्मोड़ा से छपने वाले ‘अल्मोड़ा अखबार’ का योगदान भी स्वाधीनता आंदोलन में रहा।

ऐतिहासिक धरोहरों की नगरी

अल्मोड़ा में रामलीला मंचन का इतिहास डेढ़ सौ साल से ज्यादा पुराना है। नवरात्रों में कुमाऊनी शैली पर आधारित विशिष्ट रामलीलाएं होती हैं। हुक्का क्लब की रामलीला तथा दशहरे के दिन रावण परिवार के डेढ़ दर्जन से अधिक पुतलों का प्रदर्शन हजारों लोग देखते हैं। चंद राजाओं के समय से चली आ रही बैठ होली भी विशेष है, जिसमें पौष माह के पहले रविवार से फागुन की पूर्णिमा तक घर-घर, शास्त्रीय रागों में निबद्ध होलियां गायन होता है। हर साल नंदादेवी के मेले में पहाड़ी लोक संस्कृति की शानदार झलक मिलती है। मुहर्रम के दौरान आकर्षक ताजिये भी यहां की पहचान हैं। ऐतिहासिक धरोहरों के शहर में एक समय 350 से अधिक नौलों (जलकुण्ड) का उपयोग पेयजल के लिए होता था, पर रखरखाव के अभाव में ये दम तोड़ रहे हैं। चंद शासकों के काल में बने मंदिर, नौल, धारे और पहाड़ी वास्तुकला के घर अपनी पहचान खो रहे हैं। पुराने घरों की देहरी व छज्जों पर उकेरी गई काष्ठकला खत्म होने के कगार पर है।

जाड़ों की धूप का स्वाद

यहां के परम्परागत व्यंजन आलू के गुटके, पहाड़ी रायता, सिंगल, दाड़िम की चटनी, रस-भात, भट्ट की चुड़कानी व डुबुक-भात की झलक अल्मोड़ियों की रसोई में मिल ही जाती है। जाड़ों की धूप में खास परम्परा है नींबू सानकर खाना। मीठे के शौकीन, जोगा साह की चॉकलेट, जीवन सिंह हीरासिंह हलवाई का खेंचुवा व खीमसिंह मोहन सिंह की बाल मिठाई नहीं भूले हैं। केशब हलवाई व डांगी जी की कुरकुरी जलेबियों की मिठास दुकान की भीड़ बयां कर देती है। चाट के शौकीनों को चौधरी, सुमंगलम व कन्हैयालाल के यहां देखा जा सकता है।

चतुर अल्मोड़िये

चतुरता व हाजिर जबाबी के लिए प्रसिद्ध अल्मोड़ियों के लिए किस्सा प्रचलित है कि ‘जब मैं तुम्हारे घर आऊंगा तो क्या खिलाओगे और जब तुम मेरे घर आओगे तो क्या लाओगे’ यानि हर तरह से अपना ही लाभ। काम बने या ना बने पर अल्मोड़िये मीठी जुबान से आत्मविश्वास के साथ कह देते हैं ‘दाज्यू चिन्ता मत करना हो, सब काम हो जाएगा।’ हिन्दी बोलचाल में ‘ठैरा’, ‘बल’, ‘शिबौशिब’, ‘मल्लब’, ‘दिगौ’, ‘हाय’, ‘सौल कठौल’ व ‘कुड़बुद्धि’ जैसे शुद्ध कुमाऊनी शब्दों को प्रयोग में लाना अल्मोड़ा वासियों की फितरत में शामिल है।

चंद्रशेखर तिवारी

(पर्यावरण और संस्कृति से जुड़े विविध विषयों के लेखक)

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