दो संस्कृतियों की झलक
मध्य प्रदेश का नक्शा उठाएंगे, तो उत्तर में सबसे ऊपर बाईं ओर दिखाई देगा अम्बाह। मुरैना जिले की तहसील। तोमर राजपूतों की संख्या अधिक होने का कारण पड़ा था यह नाम। यहां अंबरीष नाम के एक राजा हुआ करते थे। धीरे-धीरे यह अपभ्रंश होते-होते अंबरीष नगरी से अम्बाह हो गया। अम्बाह से राज्यों की सीमाएं मिलती हैं। उत्तर प्रदेश और राजस्थान। कहने को तो अम्बाह मध्य प्रदेश में है लेकिन यहां की संस्कृति में दोनों राज्यों की झलक देखने को मिलती है। महिलाएं करवा चौथ का व्रत भी करती हैं और गणगौर भी पूजती हैं। दिवाली के समय बच्चे झेंजी और टेसू खेलते हैं, तो पितृ पक्ष में दीवारों पर सांझी बनाई जाती है।
पीतल की तोप
अम्बाह की कचहरी पुरानी आलीशान इमारत है। प्रवेश द्वार पर पीतल से ढली बड़ी तोप रखी है, जहां अक्सर लोग अपनी शाम बिताते हैं। दरअसल एक ठीया भी है यह लोगों के मिलने का। उसके ठीक सामने सड़क पार फोटो कॉपी की सबसे पुरानी दुकान है, जहां आकर लोग सरकारी जरूरत के कागजात तैयार कराते हैं। पचासा मैदान को अम्बाह का ‘रंगराडो’कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। खेल, पुलिस परेड, जूनियर भर्ती की प्रेक्टिस, दौड़, कुश्तियां, तथा बड़े सांस्कृतिक आयोजन, कवि सम्मेलन सब यहीं होते हैं।
हर मर्ज की दवा गंज
गंज में जरूरत की हर छोटी-बड़ी चीज मिलती है। सीधी सड़क के दोनों ओर दुकान हैं, जहां कंघी से लेकर लोहे की अलमारी और संदूक तक सब मिलेगा। दाएं मुड़ें तो सब्जी मंडी। पास में है, हाथी गढ्ढा। ये इतना बड़ा गढ्ढा है कि हाथी समा जाए। कहते हैं, किसी समय राजा के हाथी यहीं आकर बैठते थे। किला कभी राजा के रहने की जगह रही होगी। आजादी से भी बहुत पहले से किले में सरकारी स्कूल लगता रहा है। जहां देश के जाने-माने विद्वान प्रोफेसर रामसिंह तोमर ने शिक्षा ग्रहण की।
निगम दफ्तर के चटखारे
नगरपालिका भवन के बाहर लगे चाट के ठेलों पर भीड़ हमेशा मिलेगी। चाट को यहां भल्ला कहते हैं। मिट्टी की सरैयों मे बर्फ के रंगबिरंगे गोले अब पुरानी बातें हो गई हों पर किसी न किसी स्वरूप में वे खाने को मिल जाते हैं। सुबह नाश्ते में आलू की खौलती हुई सब्जी के साथ बेड़ई का स्वाद भी मिलता है, तो समोसा और कचौरी के साथ गरम-गरम जलेबियां भी मिल जाती हैं। सारग (शादी-ब्याह का सीजन) के दिनों मे यहां खरीददारी करने वालों के कारण पैर रखने की जगह नहीं होती। यहीं है सबसे पुराना महाविद्यालय, अम्बाह पी जी कॉलेज। जिसके प्रथम प्राचार्य रामचंद्र श्रीवास्तव ‘चंद्र जी’ थे। चंद्र जी प्रसिद्ध साहित्यकार थे और कुछ समय के लिए उन्होंने इंदौर से छपने वाली साहित्यिक पत्रिका वीणा का संपादन भी किया। अम्बाह मेले के कवि सम्मेलन में अनेक बड़े कवि उनके बुलावे पर ही आ जाते थे।
जयेशवर का मेला
हर वर्ष लगने वाला जयेशवर महादेव मेला फरवरी से शुरू हो कर होली तक लगता है। यह मेला मनोरंजन के साथ-साथ जरूरतें पूरी करने का साधन है। अब से करीब तीस-पैंतीस साल पहले तक अम्बाह की सीमा बस अड्डे से शुरू होती थी। ये बस स्टैंड अम्बाह के रहवासी क्षेत्र से एकदम बाहर था। यहां से मुरैना की सबसे पहली बस सुबह छह बजे जाती थी। अगर वो चूक गई तो फिर कम से कम दो घंटे इंतजार करना होता था। अम्बाह के व्यापारी इसी बस को पकड़ने की कोशिश करते थे, जिससे वे मुरैना पहुंच कर आगरा, मथुरा, कानपुर, दिल्ली, सूरत अपने-अपने कामों के लिए समय से निकल सकें। ठीक इसी तरह रात आठ बजे ‘मथुरा-पोरसा’ आखिरी बस आया करती थी। इसके बाद अम्बाह में कोई बस नहीं आती थी। बताते हैं कि दस्यु समस्या होने के कारण बस लूट लिए जाने का डर रहता था। इसलिए बहुत संभल कर वहां बसों का आना-जाना रखा जाता था। अब उन बसों का और समय की पाबंदी का दौर चला गया। अब तो गैर सरकारी बसें और विशेषकर ‘कट्टा’(कमांडर या अन्य नामों वाली जीपों का लोकल नाम) हर आधे घंटे या सवारी की संख्या मिल जाने पर उपलब्ध हैं।
पुराने शहर की यादें
एक ही टॉकीज हुआ करती थी, लक्ष्मी नाम से। अपने छोटे से हॉल में न जाने कितनी सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली रिकॉर्ड बनाने वाली फिल्मों की गवाह रही। मल्टीप्लेक्स के दौर ने इसे खत्म कर दिया। यूं तो खत्म और भी चीजें हो गई, नेहरू पार्क, पोस्ट ऑफिस, डाक बंगला, सन 1887 में बना अम्बाह का थाना, उपजेल, वाटर बक्स (वाटर वर्क्स), पत्थर से बनने वाली पटियाएं, हीरोवाली माता, और तालाब जो कभी पानी आपूर्ति का सबसे बड़ा साधन रहा होगा। ये सब बस किस्से हैं। लेकिन फिर भी अम्बाह बहुत कुछ बच गया है, जिनकी वजह से यह प्रसिद्ध है। जैसे, कुशल सुनार, खोए की गुजिया, मामा की दुकान की देशी घी की सोहन पपड़ी, गजक, भीमकाय हउआ पीपी की दुकान की गुजिया और पेड़े के लिए, खजूर की चटाई पर रखी गुड़ की बड़ी-बड़ी परिया, गर्मियों में सरसों की कटाई के बाद घानियों से आते शुद्ध सरसों के तेल और खुले गले से गाए जाने वाले लोक संगीत, लांगुरिया, विशेष अवसरों के गीतों और मंदिरों पर सुंदर कांड और रामायण को सुंदर ढंग से गाने के लिए। यहां की एक और विशेषता है, अधिकतर पुरुष पैदल हों, साइकिल पर या फिर बसों में कंधे पर दुनाली (बंदूक) और कमर में कारतूस का बेल्ट जरूर बंधा होगा।
(कवयित्री और लेखिका)