अहिच्छत्र से बरेली तक
बरेली का इतिहास महज कुछ शताब्दियों का नहीं, बल्कि सहस्राब्दियों का है। इसका आरंभ प्राचीन अहिच्छत्र से माना जाता है, जिसे महाभारत में उत्तर-पांचाल की राजधानी बताया गया है। अहिच्छत्र क्षेत्र जैन और बौद्ध परंपराओं से जुड़ा रहा है। 23वें जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का प्रवास और बौद्ध धर्म का प्रभाव उसे धार्मिक-दार्शनिक दृष्टि से और भी महत्वपूर्ण बनाता है। 1940 में हुई खुदाई में यहां से प्राचीन सिक्के, मूर्तियां और अवशेष मिले, जो इसकी सांस्कृतिक गहराई की गवाही देते हैं। 16वीं शताब्दी में राजा जगत सिंह कठेरिया के पुत्र बांसदेव और बरलदेव ने यहां दो कस्बों- ‘बांस-बरेली’ और ‘बरल-बरेली’ की नींव रखी। समय के साथ दोनों ने आधुनिक बरेली का रूप लिया। 1657 में मुगल गवर्नर मुकरंद राय ने इसे सुदृढ़ किले के रूप में विकसित किया और 1658 में यह बदायूं सूबे का मुख्यालय बना। हर दौर में बरेली की शक्ल-सूरत बदलती रही, लेकिन आत्मा हमेशा जिंदा रही, पुरातन, बहुपरतीय और जीवंत। बरेली समय और सभ्यता के उतार-चढ़ाव की जीवित गवाही है।
नाथ नगरी
बरेली को नाथ नगरी का खिताब यूं ही नहीं मिला। यहां नाथ संप्रदाय की गहरी जड़ें हैं और अलखनाथ, त्रिवटीनाथ, मढ़ीनाथ और डोपेश्वरनाथ जैसे प्राचीन शिवालय इसकी पहचान बन चुके हैं। सुबह-शाम जब इन मंदिरों की घंटियां बजती हैं, तो शहर के अलग-अलग कोनों से आती आवाजें मिलकर साझी आध्यात्मिकता रचती हैं। बरेली का धार्मिक परिदृश्य केवल नाथ परंपरा तक सीमित नहीं है। यहां हरि मंदिर, इस्कॉन, बांके बिहारी, लक्ष्मी नारायण और दाऊजी जैसे वैष्णव मंदिर भी हैं, जहां आस्था अपने विविध रूपों में बहती है। इसके साथ ही दरगाह-ए-आला हजरत, शाह शराफत मियां की दरगाह, बीबी की मस्जिद और जामा मस्जिद इस्लामी विरासत की गहरी छाप छोड़ते हैं। इतना ही नहीं, बड़ा गुरुद्वारा और गुरु तेग बहादुर साहिब गुरुद्वारा भी इस शहर के धार्मिक रंगों में नई परत जोड़ते हैं। नवरात्र हो या ईद, गुरुपर्व हो या उर्स-यहां हर पर्व में लोग एक-दूसरे के साथ शामिल होते हैं।
जंगजू रगें
मुगल साम्राज्य के पतन के बाद बरेली अफगान रोहिला सरदारों का अहम ठिकाना बना। अली मोहम्मद खां और हाफिज रहमत खां जैसे सरदारों ने इसे मजबूत किया और इसे रोहिलखंड की राजधानी घोषित किया। 1774-75 का रोहिला युद्ध इतिहास का निर्णायक मोड़ साबित हुआ। अवध के नवाब और अंग्रेजी सेना ने मिलकर इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। इसके बावजूद बरेली की जंगजू रगें शांत नहीं हुईं। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में खान बहादुर खान रोहिला ने अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध स्वतंत्र सरकार की स्थापना की और बरेली को क्रांति का केंद्र बना दिया। अंग्रेज विजयी रहे और विद्रोह दबा दिया गया, पर बरेली का नाम स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्णिम गाथाओं में दर्ज हो गया।
जरी-झुमका, लस्सी और सुरमा
यहां की जरी और जरदोजी कढ़ाई देश-विदेश में भी प्रसिद्ध है। बरेली के कारीगरों के हुनर की हर जगह छाप है। इसे हैंडलूम सिटी भी कहा जाता है। सुरमा भी यहां का प्रसिद्ध और पारंपरिक उत्पाद है। खाने में दीनानाथ, परसाखेड़ा, कोहाड़ापीर और किला बाजार की लस्सी का स्वाद आज भी नहीं बदला है। कचौड़ी, आलू-पराठा और मसालेदार चाट ने शहर की गलियों को हमेशा महकाए रखा है। और झुमके के कहने ही क्या। इस झुमके ने बरेली को अमर प्रतीक बना दिया। 1966 की फिल्म मेरा साया का गीत झुमका गिरा रे ने उसे अमर कर दिया। आज परसाखेड़ा में बना 14 फुट ऊंचा झुमका स्मारक इस शहर की संस्कृति का मानो जीवंत प्रतीक है।
शब्द और सितारे
बरेली की पहचान बाजारों और तहजीब तक सीमित नहीं है, यह शहर शब्दों और सितारों की धरती भी है। उर्दू गजल की दुनिया में वसीम बरेलवी का नाम अलग मुकाम रखता है। उनके शेरों में जीवन की गहरी संवेदनाएं और मोहब्बत की नरमी मिलती है। जिन्हें सुनकर लगता है जैसे बरेली की मिट्टी ही इन लफ्जों में बोल रही हो। शहर के साहित्यिक माहौल में आज भी उनकी शायरी की गूंज सुनाई देती है। दूसरी ओर, आधुनिक दौर में प्रियंका चोपड़ा जैसी शख्सियत ने बरेली का नाम वैश्विक मंच पर पहुंचाया। बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक, फिल्मों और अवॉर्ड शोज में उनका चमकना बरेली की प्रतिभा का जीवंत प्रमाण है। यह वही संगम है जहां गजलों की महफिलों की तन्हाई भी मिलती है और रेड कार्पेट की जगमगाहट भी। इन दोनों ध्रुवों के बीच बरेली का वह आत्मविश्वास नजर आता है, जो बताता है कि यह शहर परंपरा और आधुनिकता को साथ लेकर चलता है। यहां की पहचान सूफी शेरो-शायरी से लेकर ग्लोबल स्टारडम तक फैली है।
परंपरा और यादों का नगर
बरेली केवल सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक और सैन्य दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यहां स्थित आइवीआरआइ (इंडियन वेटेनरी रिसर्च इंस्टिट्यूट) है, जिसकी स्थापना 1939 में हुई थी और सीएआरआइ (सेंट्रल एवियन रिसर्च इंस्टियूट, 1979) है। आइवीआरआइ देश के पशु चिकित्सा और अनुसंधान क्षेत्र की धुरी है। इसके अलावा रोहिलखंड विश्वविद्यालय शिक्षा और शोध की नई दिशाएं खोलता है, जबकि पांचाल संग्रहालय और सेना संग्रहालय इतिहास और गौरव की झलक दिखाते हैं। जाट रेजीमेंट सेंटर की उपस्थिति शहर को सैन्य परंपरा की गरिमा प्रदान करती है, जिसने अनेक वीर सपूत देश को दिए। शिक्षा, शोध और सैन्य गौरव का यह संगम बरेली को केवल अतीत का नहीं, बल्कि भविष्य का भी शहर बनाता है। इन सबके बीच हम बरेली की गलियों से गुजरते हैं, तो लगता है कि यह शहर केवल इमारतों और स्मारकों में नहीं, बल्कि अपने लोगों की मुस्कानों, उनकी कहानियों और उनकी यादों में जिंदा है। यही वजह है कि बरेली को सही मायनों में ‘यादों का नगर’ कहा जा सकता है, जहां इतिहास, तहजीब, स्वाद और आत्मा सब मिलकर एक नई कविता रचते हैं।

(लेखक और शिक्षक)