जंगल की महक वाला शहर
जहां से कानों में मांदर की थाप पड़ने लगे, नथुने को महुआ की गमक मिलने लगे, पलाश का रंग देह पर छींटाने लगे और सखुआ-सागवान हर दस कदम पर झुक कर आपका अभिवादन करने लगें, चारों तरफ खड़ी छोटी-मंझोली पहाड़ियां आपको देख हाथ हिलाती प्रतीत हों, छोटी-छोटी अनेक बरसाती और बारहमासी नदियां आपके पांव पखारने लगें, किसी से उस जगह का नाम मत पूछिए, आप निश्चय ही दुमका में हैं। एक ऐसा शहर जिसमें जंगल की भीनी हरिआइन खुशबू है। झारखंड के दुमका का नाम ही दामिन-ई-कोह की कोख से निकला है, जिसका अर्थ है पहाड़ का आंचल।
कभी-कभी लगता है कि आखिर मैं तो कभी घने जंगलों में जाता नहीं रहा फिर भी अपनी कविताओं में जंगल के फूल और दहकते पलाश लाता कहां से हूं? तब जा कर महसूस होता है कि हम जिस शहर और कस्बे के हैं, असल में उसकी आत्मा में ही एक घनघोर जंगल बसा हुआ है। यह देखकर सुकून मिलता है कि आधुनिक सुविधाएं और साधन बटोर कर एक शहर के रूप में रोज नया आकार ले रहा दुमका अपने शहर होने का चाहे जितना प्रपंच रच ले, वह है अभी भी एक जंगल के किनारे वाला गांव ही।
चटक झालदार दुमका
अगर आप किसी शहर का स्वाद चखना चाहते हैं, तो उस शहर के सड़क पर निकलिए। मेरे जैसे किसी भी दुमकइया के लिए दुनिया की हर चाट वाली दुकान, दुमका के चाट ठेले के सामने फीकी है। विभिन्न कार्यक्रमों के दौरान देश के कई शहरों में गया, पर आलू की टिक्की पर मटर-छोले के साथ मोटे सेव और पापड़ी के ऊपर इमली की मीठी और धनिया मिर्च की हरी चटनी संग दही का सफेद घोल जब भुने हुए दर्रे मसाले के साथ चढ़ता है न, तो एक चटोरा नशा चढ़ता है, जो आज तक उतरा नहीं है। दुमका जाइए तो वहां से सटे कस्बे नोनिहाट की सखुआ पत्ते में सजने वाली मुढ़ी-घुघनी-चॉप-कचरी-पकौड़ी को अगर न खाया तो दुमका जाना व्यर्थ है।
मंदिर-गिरिजाघर का गठजोड़
दुमका एक ऐसे समन्वय का संयोग वाला स्थान है, जहां बाबा बासुकीनाथ जैसे देश प्रसिद्ध मंदिर सहित हर पहाड़ी के शीर्ष पर, सटे देहातों में कोई न कोई महात्म्य वाला शिव या काली मंदिर तो मिलता ही है, साथ ही गिरिजाघर भी दिख जाते हैं। ये दृश्य यहां की आपसी विविधता के लिए सहज हैं। गर दुमकावासी मलूटी नाम के ऐतिहासिक गांव का किस्सा पूरी दुनिया से साझा न करे तो कैसा दुमका वाला! यहां घरों से ज्यादा मंदिर हैं। टेराकोटा शैली में बने मंदिर और तालाबों का ये मलूटी गांव अपने ऐतिहासिक महत्व के लिए देश भर में प्रसिद्धी का हकदार है। लेकिन आज यहां बमुश्किल 15-20 तालाब और 72 के लगभग मंदिर बचे हैं। प्रधानमंत्री मोदी भी अपनी दुमका यात्रा के दौरान मलूटी के जीर्णोद्धार का भरोसा दे गए। दुमका को उस वादे के पूरा होने का इंतजार है। एक बार 26 जनवरी को इंडिया गेट के राज पथ पर निकलने वाली झांकी में झारखंड की तरफ से जब मलूटी मंदिरों की झांकी को सामने से गुजरता देखा तो वो गर्व का वह दृश्य आज भी नहीं भूलता। इसलिए राजनीति वादे पूरे करे तो सोने पे सुहागा।
बिगुल फूंकता इतिहास
इतिहास का छात्र होने के नाते जब क्रांतियों का सिलसिला पढ़ता हूं, तो इसी दुमका के किसी चौराहे पर कोई सिद्धो-कान्हू और फुलो-झुनो तीर धनुष लिए प्रेरित करने को खड़े मालूम पड़ते हैं। मेरी स्मृतियों में यह मेरा वह शहर है, जिसकी धमनियों में महाजनी और सूदखोरी के विरोध की संथाल क्रांति तरल हो कर बहती है, जो आज भी बतौर साहित्यकार मुझे लड़ने-भिड़ने का आत्मबल देती है।
दुमका वालों के लिए दुमका
सबके लिए अपना शहर तो अपना होता है पर मुझ दुमका वाले के लिए यह एक बनता हुआ, बढ़ता हुआ शहर तो है ही, बचा हुआ गांव भी है। मयूराक्षी नदी के किनारे बसा एक ऐसा शहर, जिसके हिस्से का गांव अभी मिटा नहीं है। जाते-जाते बताता चलूं कि मयूराक्षी के किनारे बसंत के आगमन के साथ ही लगने वाला विशाल जनजाति हिजला मेला यहां की शान है। शायद यह देश के गिने-चुने सबसे प्राचीन जनजाति मेले में से एक है। सच बता रहा कि आज भी अपने शहर से बाहर देश-दुनिया घूमते हुए जब भी अकेला महसूस करता हूं, तो मन बहलाने के लिए किसी भीड़ वाले मॉल की तरफ नहीं जाता, यादों में इसी मेले में रहता हूं। आखिर में एक बात, बसंत के महीने में खिले हुए पलाश के लाल जंगल देखने दुमका बार-बार जाना चाहता हूं। उस विलक्षण दृश्य और अतुलनीय अनुभव को शब्दों में कभी बयां नहीं कर सकता।