क्रांति का शहर
मेरठ और क्रांति का रिश्ता चोली-दामन जैसा है। 1857 के गदर की शुरुआत यहीं से हुई थी। 10 मई, 1857 को मेरठ में तैनात ‘काली पलटन’ ने ही अंग्रजों के खिलाफ पहली क्रांति की शुरुआत की थी। मेरठ कैंट का औघड़नाथ मंदिर आज भी उस गदर की कहानी कहता है। आजाद हिंद फौज में शामिल जनरल शाहनवाज मेरठ के ही बाशिंदे थे। आजादी की लड़ाई से मेरठ का गहरा नाता रहा है। गांधी, नेहरू, विवेकानंद, सुभाषचंद्र बोस मेरठ आते रहे।
प्राचीन नाता
मेरठ अब भले ही तेजी से आधुनिक हो रहा हो, लेकिन यह सिंधु घाटी सभ्यता का केंद्र रहे आलमगीरपुर, सिनौली में मिले पुरातात्विक अवशेषों, बरनावा के लाक्षागृह, राजा परीक्षित के परीक्षितगढ़ के लिए भी जाना जाता है। ये सब जगहें, मेरठ के हजारों साल के इतिहास की गवाह हैं। कौरवों-पांडवों की राजधानी पास ही के हस्तिनापुर में थी। हस्तिनापुर के भव्य जैन मंदिर, जंबूद्वीप, अष्टापद और कैलाश पर्वत की रचनाएं पर्यटकों और श्रद्धालुओं को बहुत लुभाती हैं। बेगम समरू का बनवाया सरधना का चर्च दुनिया भर में प्रसिद्ध है। 1892 में शुरू हुआ मेरठ कॉलेज पश्चिमी उत्तर प्रदेश का इतिहास कहता है। 1913 में बना ऐतिहासिक घंटाघर, टाउन हॉल, गांधी आश्रम आदि अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलनों के केंद्र हुआ करते थे। मेरठ छावनी देश की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण छावनियों में से एक रही है। सेना की आरवीसी (रिमाउंट और वेटरिनरी) कोर का मुख्यालय भी मेरठ ही है।
बोलचाल नहीं, खानपान में मिठास
मेरठ में कोई कुछ बोल दे, तो दिल पर न लें। शहर भले ही थोड़ा गरम मिजाज का है, लेकिन लोग दिल के साफ और मीठे हैं। यहां की बोली को लोग अक्खड़पन नहीं बल्कि ‘साफगोई’ मानते हैं। ‘खड़ी बोली’ को ‘कौरवी’ भी कहा जाता है। लेकिन मुंह में घुलने वाली रेवड़ियां, छूते ही बिखर जाने वाली नानखताई, चटखारे लेने को मजबूर कर देने वाली चाट साफगोई पर भारी पड़ती है। कहते हैं, भारत भर में प्रसिद्ध मेरठी रेवड़ी को सबसे पहले मेरठ के मशहूर हलवाई रामचंद्र सहाय ने बनाया था। गन्ने, गुड़ और चीनी की यह धरती मेहमानों का स्वागत दिल खोल कर करती है। यहां हर साल लगने वाले नौचंदी के प्रसिद्ध मेले में मिलने वाले ‘हलवा परांठा’ का मेरठ वालों को ही नहीं, बाहर से आने वाले लोगों को भी खूब इंतजार रहता है।
धार करा लो...
पुराने मेरठ में अभी भी कानों में आवाज सुनाई पड़ जाती हैं, ‘धार करा लो।’ यहां एक से एक कैंची के कारीगर हैं, जिनकी बनाई कैंचियों की हर जगह मांग रहती है। एक बात शायद कम ही लोग जानते होंगे, कि खेलों को धारदार बनाने में भी मेरठ का बहुत योगदान है। कई जाने-माने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर क्रिकेट बैट खरीदने मेरठ आते रहे हैं। साथ ही यह पब्लिशिंग इंडस्ट्री का गढ़ रहा है, यहां हर तरह की टेक्स्ट बुक और गाइड बुक छपती रही हैं। भारत का यह शायद इकलौता शहर है, जो खेलने वालों और पढ़ने वालों, दोनों को सामग्री मुहैया कराता है, उनमें कोई भेदभाव नहीं करता। फिर चाहे पढ़ने वाले पढ़ाकू किस्म के हों या ‘लुगदी साहित्य’ पढ़ने वाले। एक वक्त में पॉकेट बुक्स छापने वालों का बादशाह रहा है, मेरठ। उस पीढ़ी के लोग आज भी वेदप्रकाश शर्मा के नॉवेल ‘वर्दी वाला गुंडा’ का नाम नहीं भूले होंगे, जो इसी शहर के थे।
इल्मी-फिल्मी चेहरे
इल्म के साथ-साथ हमारा यह पुराना शहर बॉलीवुड की नजरों से भी नहीं बच सका। ‘ओंकारा’, ‘जॉली एलएलबी’, ‘जीरो’ ‘मेरठिया गैंग्स्टर्स’, ‘सांड की आंख’ आदि फिल्में मेरठ-बागपत की पृष्ठभूमि पर ही फिल्माई गई हैं। चौधरी चरण सिंह, महेंद्र सिंह टिकैत जैसे किसान नेता, बॉलीवुड की दुनिया में विशाल भारद्वाज, कैलाश खेर, कवि हरिओम पंवार, कुमार विश्वास, पॉपुलर मेरठी, क्रिकेटर प्रवीण कुमार और भुवनेश्वर कुमार ने मेरठ का नाम चमकाया है।
14 लेन...और क्या चाहिए
किसी मेरठ वाले को कह कर देखो, कि देश का पहला 14 लेन ‘दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेस वे’ और देश की पहली रीजनल रेल ‘दिल्ली-मेरठ रैपिड मेट्रो’ रफ्तार भरने को तैयार है, तो पहले वह कान नहीं देगा फिर आश्चर्य से कहेगा, 14 लेन! दिल्ली से आते वक्त मोदी नगर में जिसे घंटों जाम से जूझने की आदत पड़ गई हो, उसके लिए 14 लेन एयरबस से यात्रा करने सरीखा है।
शहर जिसे कहते हैं मेरठ
शहर, सदर और बेगम पुल की पारंपरिक दुकानों से सामान खरीद कर मॉल घूमने और ठेले की चाट के साथ ढेरों नए खुल गए कैफे में कॉफी की चुस्की लेने वाला जीता-जागता अपना शहर मेरठ अब रफ्तार पकड़ने को तैयार है!
(ये लेखक के निजी विचार हैं)