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शहरनामा/हाजीपुर

कहा जाता है कि जब भगवान राम सीता स्वयंवर के लिए जनकपुर जा रहे थे तो उनके पांव हाजीपुर की धरती पर भी पड़े
यादों में शहर

वह प्राचीन अकवेलपुर

गंगा-गंडक के तट पर बसे बिहार के शहर का प्राचीन नाम अकवेलपुर था। 1345 से 1358 के बीच हाजी इलियास के शासनकाल में यह हाजीपुर हो गया। कहा जाता है कि भगवान राम जब सीता स्वयंवर के लिए जनकपुर जा रहे थे तो उनके पांव हाजीपुर की धरती पर भी पड़े। रामभद्र मोहल्ले का रमचउरा मंदिर उन्हीं स्मृतियों की कथा आज भी कह रहा है। लोक कंठों में आज भी जीवित है यह गीत- ‘रमचउरा हे घाट, राम नहैलन गंगा।’ किंवदंती यह भी है कि गोस्वामी तुलसीदास इस मंदिर के दर्शनार्थ हाजीपुर आए और वज्जिकांचल के लोगों के प्रेम से अभिभूत होकर महीनों यहां के अतिथि बने रहे। वैराग्य संदीपनी और पार्वती मंगल की रचना तुलसी बाबा ने यहीं के तुलसी बाड़ी मठ में की। साहित्यिक जगत के अप्रतिम यायावर राहुल सांकृत्यायन की यात्राओं का एक पड़ाव रमचउरा मठ भी रहा।

 साहित्य की किरण

शहर की पहली हस्तलिखित साहित्यिक पत्रिका ‘किरण’ थी। 1943 से 1953 के बीच इसके कई महत्वपूर्ण अंक शहर के श्रीकृष्ण पुस्तकालय की मेज पर पाठकों के लिए उपलब्ध रहे। प्रख्यात कला गुरु नंदलाल बसु के शिष्य जगन्नाथ प्रसाद इसके प्रधान संपादक तथा अक्षय कुमार सिंह संपादक थे। कालांतर में महावीर प्रसाद शर्मा ‘विप्लव’ का नाम भी इस पत्रिका के संपादक के रूप में जुड़ा। इस पत्रिका के नाम में मंडल शब्द जोडक़र 1948 में ‘किरण मंडल’ नाम से एक संस्था का गठन हुआ जिसके मंच पर रामधारी सिंह दिनकर, गोपाल सिंह नेपाली, गोपाल दास नीरज, जानकीवल्लभ शास्त्री, आरसी प्रसाद सिंह, अज्ञेय, रामवृक्ष बेनीपुरी, नागर्जुन, राजकमल चौधरी जैसे कवि-लेखक कौमुदी महोत्सव और मधु पर्व के आयोजनों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर शहर के सुधी श्रोताओं के बीच साहित्य-अमृत बांटते रहे। बाबा नागार्जुन के उपन्यास ‘बलचनमा’ में भी इस संस्था का जिक्र है। राजकमल चौधरी ने अपनी चर्चित कविता ‘मुक्ति प्रसंग’ का पहला पाठ किरण मंडल के मंच से ही किया था। सुप्रसिद्ध गायिका हीराबाई बड़ोदकर जब मंडल की ओर से आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेने हाजीपुर आईं तो इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने इस संस्था की सदस्य बनने की इच्छा जाहिर कर दी।

 आजादी के सिपाही

शहर के जी.ए. हाइस्कूल के कुछ शिक्षक 1928 में नौकरी छोड़कर आजादी के आंदोलन में कूद गए। अपने शिक्षक अक्षय कुमार सिंह सिद्धेश और पंडित जयनंदन झा के इस कृत्य को उनके छात्रों का भी भरपूर सहयोग मिला। 1932 में हाजीपुर के जिस स्थान पर गांधीजी ने अपनी सभा की थी, वहीं गांधी आश्रम की स्थापना हुई। पढ़ाई छोड़कर आजादी की लड़ाई में कूदने वाले बच्चों के लिए ‘राष्ट्रीय विद्यालय’ स्कूल इसी आश्रम में खोला गया। पंडित जयनंदन झा आयुर्वेद के भी अच्छे जानकार थे। गांधी आश्रम की ओर जाने वाली सड़क के ठीक मुहाने पर देशबंधु आयुर्वेद भवन नामक उनकी संस्था थी। यहां का ‘अमृत रस’ कई रोगों की एक असरदार दवा थी। यह औषधालय अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता सेनानियों के विमर्श का केंद्र भी रहा। सीताराम सिंह, अक्षयवट राय, बैकुंठ शुक्ल, योगेंद्र शुक्ल, सुनीति देवी, किशोरी प्रसन्न सिंह, दीप नारायण सिंह जैसे गरम और नरम दल के सेनानी आजादी के आंदोलन की रणनीति इसी औषधालय में बनाते थे। 1972 में जब देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पंडित जयनंदन झा को ताम्रपत्र देकर सम्मानित किया तो प्रतिदान में झा ने उन्हें अमृत रस की एक शीशी भेंट की थी।

 हरिहर क्षेत्र का मेला

तब हरिहर क्षेत्र मेले (प्रसिद्ध सोनपुर मेला) का फैलाव हाजीपुर शहर तक था। शहर के मीनापुर में मीना बाजार सजता था, हथसारगंज में हाथी-घोड़े बिकते थे, जौहरी बाजार में तांबे, पीतल, सोना-चांदी के बरतन और आभूषण बनाने वाले जौहरियों की जमात महीनों डेरा जमाया करती थी। घोड़ों की दौड़ पोखर पर होती थी। हाजीपुर और सोनपुर को जोड़ने वाले पुल पर जब ब्रिटिश हुकूमत की फौज गरम दल के स्वतंत्रता सेनानी बैकुंठ शुक्ल को घेरकर गोलियां बरसाने लगी, तब उन्होंने साइकिल सहित गंडक नदी में कूदकर अपनी जान देशसेवा के निमित्त बचा ली थी।

 नेपाली स्थापत्य

सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के मध्य नेपाल के सूबेदार काजी हीरालाल ने हाजीपुर शहर में आकर गंडक नदी के उस घाट को देखा, जहां ग्राह की चंगुल से गजराज को मुक्त कराने स्वयं भगवान विष्णु आए थे। इस यात्रा की स्मृति में काजी ने एक मंदिर का निर्माण करवाया। खजुरिया ईंट से पैगोडा शैली में निर्मित इस मंदिर को लोग नेपाली छावनी मंदिर के नाम से जानते हैं। हालांकि कुछ विद्वान इस मंदिर के निर्माता के रूप में नेपाल के सैन्य अधिकारी मातबर सिंह थापा का जिक्र करते हैं। इस मंदिर के काष्ठ-स्तंभों पर दर्जनाधिक मिथुनाकृतियां उत्कीर्ण हैं। रति क्रीड़ा में निमग्न स्त्री की अपने नवजात शिशु को स्तनपान कराने वाली कलाकृति अद्वितीय है। यह मंदिर बिहार प्रांत के धरोहरों में एक है।

 मालभोग केले

लीची के लिए मशहूर मुजफ्फरपुर से चलकर आप जब हाजीपुर शहर में प्रवेश करते हैं तो दीघी रेलवे क्रॉसिंग के पास गुमटी में बैठे मालभोग सिंह के केश विन्यास और गुमटी में टंगे केले के घौद और उसकी मिठास से भरी खुशबू सहज ही आपको अपनी ओर खींचती है। मालभोग प्रजाति के इस विशिष्ट केले पर ही अपना नामकरण कर सिंह साहब अपनी गृहस्थी लंबे समय तक चलाते रहे। रामदाना की लाई और परवल की मिठाई भी इस शहर की खासियत हैं।

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