चंद्राकार पर्वतों का शहर
मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले में चंद्राकर पर्वतों के नाम पर बसा छोटा-सा शहर चंदेरी का इतिहास नवपाषाण काल से मिलता है। यहां कभी चेदि (चंदेरी) पर राजा शिशुपाल का शासन था। चंदेरी पर गुप्त, प्रतिहार, मौर्य, मुगल, बुंदेला शासकों का शासन रहा। चंदेरी नगर दो विशाल परकोटे के बीच घिरा है। समय के साथ ये परकोटे क्षतिग्रस्त हो गए हैं। लेकिन ये भग्नावशेष भी शिल्प कला के अनूठे नमूने की तरह लोगों को मोहित करते हैं। चंदेरी में वैसे तो अनेक तालाब हैं, लेकिन परमेश्वर तालाब का विशेष महत्व है। इसके घाट पर बना लक्ष्मण मंदिर अनोखी आभा प्रस्तुत करता है।
क्या देखें क्या छोड़े
चार मील से अधिक लंबी दीवार से घिरा चंदेरी का किला, ग्यारहवीं शताब्दी में कीर्ति पाल ने बनवाया था। परकोटे के अंदर बुंदेलखंड स्थापत्य के नौखड़ा महल और हवा महल दर्शनीय हैं। स्वयंभू जोगेश्वरी देवी मंदिर बहुत प्राचीन है और यह पर्वत की एक खुली गुफा में स्थित है। सिद्धपीठ होने के कारण यहां भक्त आते रहते हैं। जनश्रुति है कि मां जोगेश्वरी ने यहां के राजा को स्वप्न में कहा था कि राजा उन्हें नौ दिन तक न देखे तो वे पूर्ण रूप में प्रकट हो जाएंगी। लेकिन राजा धैर्य नहीं रख पाया और तीसरे दिन ही द्वार खोल दिए। इस कारण देवी का सिर्फ शीर्ष भाग मिला, जो मंदिर में स्थापित है।
पुरातत्व का खजाना
मंदिर के पास बना चंदेल कालीन तालाब कला का अनुपम उदाहरण है। इसी तरह बूढ़ी चंदेरी में 55 जैन मंदिरों के अवशेष मिलते हैं। यह स्थान मौजूदा चंदेरी से 22 किलोमीटर की दूर है। 28 किलोमीटर पर दिगंबर जैन पंथ के 16 मंदिर हैं। पास ही थूबोन नाम का गांव है, जहां भारतीय पुरातत्व विभाग का मूर्ति संग्रहालय तथा उसके आसपास दसवीं शताब्दी के कई जैन, हिंदू मंदिर उल्लेखनीय हैं। इनके अलावा गुप्तकाल में तांत्रिकों की साधनास्थली रहा बैहटी मठ, 13वीं से लेकर 16वीं शताब्दी तक की विशाल और भीमकाय शैल प्रतिमाओं वाला खंदारगिरि है। यहां हजरत शाह बजीहउद्दीन का मकबरा है। चंदेरी नगर के मध्य में मुंगावली रोड पर स्थित जामा मस्जिद के तीन विशाल गुंबद पर्यटकों को दूर से आकर्षित करने लगते हैं। इसका निर्माण गयासुद्दीन बलबन ने 1252 ईस्वी में मालवा की जीत की खुशी में कराया था। बलबन शमसुद्दीन अल्तमश मंत्रिमंडल में प्रमुख सदस्य था।
दिल्ली दूर पर दरवाजा पास
यहां पर एक दिल्ली दरवाजा है। इस विशाल और कलात्मक द्वार का निर्माण दिलावर खां गौरी ने 1411 ईस्वी में कराया था। यहीं एक विशाल तालाब है जिसका निर्माण होशंगशाह गौरी ने 1433 ईस्वी में कराया था। बत्तीस बावड़ी तत्कालीन गर्वनर शेर खां ने सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी ने 1485 ईस्वी में बनवाई था। इसमें पानी का स्तर हर घाट पर बराबर रहता है। कौशिक महल की अनूठी शैली है। इसके चार प्रवेश द्वार हैं। वर्गाकार अफगान शैली में बना यह महल स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है। इसका निर्माण महमूद खिलजी ने जौनपुर की जीत की खुशी में 1445 ईस्वी में कराया था।
जौहर की याद
चंदेरी के दक्षिण में चंद्रगिरि पर्वत के ऊपर, किले के पास एक जौहर स्मारक है। 29 जनवरी 1528 को बाबर ने महाराजा मेदनी राय को हरा कर यह दुर्ग छीन लिया था। तब रानी मणिमाला ने सोलह सौ राजपूत वीरांगनाओं के साथ बच्चों सहित खुद को अग्नि में समर्पित कर जौहर कर लिया था।
सुरों के सरताज
किंवदंतियों के मुताबिक, सुरों और संगीत की ताकत से दीपक जला देने वाले बैजू बावरा का जन्म चंदेरी शहर में ही शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। चंदेरी की एक नर्तकी के प्यार में पागल होने के कारण वे बावरा (पागल) कहलाए। कथा है कि अकबर के नवरत्नों में से एक तानसेन से मुकाबला करने वाले बैजू बावरा ने दीपक राग गाकर दीपक प्रज्ज्वलित कर सभी को चौंका दिया था। जिंदगी की शाम होते-होते पं. बैजनाथ उर्फ बैजू बावरा चंदेरी वापस आ गए। यहीं बसंत पंचमी के दिन वे इस दुनिया से विदा हो गए। आज भी उनके स्मारक पर कई लोग आते हैं।
नौ गज का जादू
चंदेरी नगर हाथकरघा वस्त्र उद्योग विशेषकर चंदेरी साड़ियों के लिए भी प्रसिद्ध है। चंदेरी साड़ियों में अत्यन्त बारीकी का काम किया जाता है। साड़ी पर बेल-बूटे बनाने के लिए पहले से चली आ रही शैली को स्थायी रूप दिया गया है और इसमें बहुत विकास किया गया है। अतिरिक्त तानों के साथ चंदेरी साड़ी की बारीकी लगभग मकड़ी के जाले के समान होती है। साड़ियों को नयनाभिराम बनाने के लिए हल्के मनोहारी रंग इस्तेमाल किए जाते हैं। साड़ियों के रंग आंखों को सुकून देते हैं। लेकिन जबान के रस का भी यह शहर पूरा खयाल रखता है। यह शहर देखने आएं, तो यहां की मशहूर बेलजा की बर्फी और दाल-बाफले और चूरमे के लडडू, खाना न भूलें। मूंग की दाल की मंगोड़ी, उड़द के बरा कुछ नया स्वाद देंगे तो देशी दाख के रूप में मशहूर खिन्नी तथा बेर की लबदो चख कर आप हर स्वाद भूल जाएंगे।
(लेखक-पत्रकार)