गढ़ तो चित्तौड़गढ़
कहावत है, “गढ़ तो चित्तौड़गढ़ बाकी सब गढ़ैया।” राजस्थान ही नहीं, देश में किसी दुर्ग का ऐसा गौरवशाली इतिहास नहीं है, जैसा राजस्थान में चित्तौड़ का है। इतिहास में चित्रांगद मौर्य का जिक्र मिलता है, जिन्होंने चित्रकूट नाम से इस दुर्ग को बनाया। आज भी दुर्ग में एक कुंड चित्रांगद मौर्य के नाम से जाना जाता है। आगे जाकर मेवाड़ राजवंश के संस्थापक बाप्पा रावल ने इस दुर्ग पर अधिकार किया और मेवाड़ राजवंश की कीर्ति के साथ दुर्ग का वैभव भी विस्तार पाता गया। महाराणा कुम्भा और महाराणा सांगा के समय निर्मित अनेक इमारतें आज भी वैभव का यशगान करती हैं। महाराणा सांगा के वंशज उदयसिंह चित्तौड़ छोड़कर चले गए और फिर मेवाड़ की राजधानी उदयपुर हो गई। किले में एक कुंड भीमलत भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि महाभारत के योद्धा भीम के पैर के प्रहार से बना।
साहित्यकारों की नगरी
चित्तौड़ के विद्वान साहित्यकारों में सबसे बड़ा नाम हरिभद्र सूरि का है, जो आठवीं शताब्दी में हुए। माना जाता है कि ज्ञान और विद्वत्ता में वे शंकराचार्य के समकक्ष थे। उन्होंने 1444 ग्रंथों की रचना की थी। आज भी दुर्ग के पहले द्वार पर हरिभद्र सूरि का स्मारक उस मनीषी की याद दिलाता है, जिन्होंने प्राकृत और जैन साहित्य में अद्वितीय योगदान दिया। महाराणा सांगा की पुत्रवधू राजरानी मीरा का समय लगभग पांच सौ वर्ष पहले का है, जिनके पदों के अनेक संग्रह हुए और जिनके गीतों को लोक ने अपना बना लिया। पिछले दिनों चित्तौड़ के निकट (मेवाड़ के एक गांव कोशीथल) के अध्येता माधव हाड़ा ने मीरा के जीवन और समाज पर सर्वथा मौलिक और नई दृष्टि से पुस्तक लिखकर मीरा को फिर चर्चा में ला दिया। 1888 में जन्मे मुनि जन्विजय ने अपनी कर्मभूमि चित्तौड़ को बनाया और औपनिवेशिक काल में प्राच्य साहित्य खोजकर उसे फिर प्रस्तुत किया। महात्मा गांधी के सहयोगी मुनि जी ने भारतीय विद्या भवन की स्थापना में अग्रणी भूमिका निभाई। मूलत: अजमेर निवासी प्रसिद्ध कथाकार स्वयं प्रकाश भी अपनी नौकरी के क्रम में कुछ वर्ष चित्तौड़ रहे।
स्वतंत्रता आंदोलन का साक्षी
माणिक्यलाल वर्मा और विजयसिंह पथिक जैसे क्रांतिचेता नेताओं ने चित्तौड़ को अपने आंदोलन का बड़ा केंद्र बना दिया था। आजादी के बाद जीवित रहे स्वतंत्रता सेनानियों में रामचन्द्र नन्दवाना लगभग 2005 तक गांधी के सेवा कार्यों को अपने ढंग से संचालित करते रहे। गांधीवादी रुझान की अनेक स्थानीय संस्थाओं यथा सर्वोदय साधना संघ, गाड़ी लौहार सेवा समिति और विकलांग सेवा संस्थान के माध्यम से उनकी सक्रियता चकित करती थी। उनके साथ डूंगला के नन्द कुमार त्रिवेदी को भी याद किया जाना आवश्यक है। कपासन के नजदीक कांकरवा गांव के मोड़सिंह चौहान अहमदाबाद में नौकरी करते हुए उग्र दल के संपर्क में आए और अंग्रजों के विरुद्ध हिंसक गतिविधियों के कारण जेल यात्रा भुगती।
आजादी की छाया में
लंबे संघर्षों से निकले माणिक्यलाल वर्मा की नजर बैलगाड़ी में रह रहे एक लोहार परिवार पर पड़ी और उन्हें मालूम हुआ कि चित्तौड़ से पराजय के बाद निकले योद्धाओं के ये वंशज अपनी प्रतिज्ञा के कारण गाड़ी में ही घर बनाकर रहते हैं। दुर्ग पर न चढ़ना, खाट पर न सोना, रस्सी न रखना और दीपक न जलाना भी उनकी प्रतिज्ञाओं में शामिल था। वर्मा जी इस अद्भुत कौम के त्याग से अभिभूत हुए और उन्हें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास लेकर गए। आखिर 6 अप्रैल 1955 को स्वयं नेहरू चित्तौड़ आए और देश भर से गाड़ी लोहारों को निमंत्रित कर उन्हें दुर्ग पर चढ़ाया और उनकी सभी प्रतिज्ञाएं पूरी करवाईं।
नया बनता शहर
पिछली चौथाई सदी में चित्तौड़ शहर बहुत फैल गया है। शहर से थोड़ी दूर हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड का कारखाना खुला, तो इसके अधिकारियों की रिहायशी बस्ती ने चित्तौड़ नगर पालिका की सीमा को सैनिक स्कूल के बाहर तक फैला दिया। किले की तलहटी वाली ठेठ पुरानी बस्तियों के लोग अब इधर की नई-नई बस्तियों में घर बनाने लगे हैं।
नए लोग, नई जरूरतें
सीमेंट के अनेक कारखानों ने शहर के मूल चरित्र को बदला। यहां देश के विभिन्न इलाकों से आकर बसने वालों की तादाद बढ़ी। अब यहां नवरात्र में बंगालियों की दुर्गा पूजा के साथ बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों का प्रिय त्योहार छठ स्थानीय कैलेंडर में जगह बना रहा है। जिला कलेक्टर दफ्तर के बाहर भारत छोड़ो आंदोलन के सेनानियों की मूर्तियों की अनुकृति के साथ मीरां की डोली की मूर्तियां लगी हैं, जो कृतज्ञ राष्ट्र और कृतज्ञ समाज का परिचय देती हैं।
अंतत:
कभी दुर्ग की सीमाओं तक सिमटा चित्तौड़ दूर तक फैल गया है। चित्तौड़ मतलब रस्तोगी के गुंजिए (मावे की मिठाई)। प्रदेश का इकलौता सैनिक स्कूल और परमाणु इकाई (रावतभाटा) भी यहीं है। मेरे सपनों का शहर चित्तौड़, जिसकी गलियां अब भी सपनों में लुभाती हैं।
(साहित्यिक पत्रिका बनास जन के संपादक)