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13 जून 2022 · JUN 13 , 2022

शहरनामा/करेली

करेली के आलूबंडों की शोहरत ऐसी है कि स्टेशन पर सवारी गाड़ी देर तक रुकती है
यादों में शहर

... की दौड़ स्टेशन तक

वाट्सऐप के जमाने में भी असली करेलीवासी का मनपसंद काम मेहमान को स्टेशन लेने और छोड़ने जाना है। बॉम्बे हावड़ा लाइन पर मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले का यह कस्बा यूं तो दूसरे छोटे कस्बों के ही समान है लेकिन सैर को जाना हो, तो जनता सुबह-शाम रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर ही जाना पसंद करती है। कारण? वहां जाने से थोड़ा घूमना हो जाता है और चार नए लोगों से मेल-मुलाकात भी। असली कारण तो कुछ और है। स्टेशन पर मिलने वाली चाय और चटपटे आलूबंडे। करेली के आलूबंडों की शोहरत ऐसी है कि स्टेशन पर सवारी गाड़ी देर तक रुकती है और ये फिर तभी चलती है जब यात्री से लेकर गार्ड और इंजन ड्राइवर तक एक-दो आलूबंडे न खा लें। एक जमाना था जब रद्दू महाराज की कचौड़ी और बोधराज के समोसों के लिए करेली जानी जाती थी। 

आजादी की अलख

वैसे करेली का रेलवे स्टेशन आजादी से पहले ही बन गया था। इसी स्टेशन के चलते आसपास के कस्बों और शहरों में करेली का जलवा था। इसी रेलवे स्टेशन के भीड़ भरे प्लेटफॉर्म पर किसी ट्रेन से 1920 में बापू करेली पधारे थे और गल्ला मंडी में सभा कर आजादी की अलख जगाई थी। इसी ऐतिहासिक सभा की याद में मंडी में बना कमानिया गेट आज भी गुजरे वक्त की गौरव गाथा सुनाता सा लगता है।

गुड़ की मिठास

करेली की गल्ला मंडी एक जमाने में चमकीले गेहूं, चटक बड़े दाने वाले चने और अपने दानेदार सुनहरे मीठे गुड़ के लिए जानी जाती थी। यहां की मसूर और चना बड़े-बड़े ट्रक और ट्रेन से हैदराबाद और कलकत्ते तक जाते हैं। गुड़ की मिठास ऐसी कि इसकी ख्याति अब प्रदेश के बाहर फैल गई है। गुड़ के मौसम में यहां की मंडी गुलजार रहती है और गुड़ की परियों को दूरदराज के इलाकों में ले जाने के लिए दिन भर जगह-जगह से आए ट्रकों का शोर होता रहता है। भोपाल में मॉल के पास बने हाट में लगने वाले ग्रामीण मेले में ठंड के दिनों में सबसे पहले करेली का गुड़ ही स्टॉल से खत्म होता है और दुकानदारों से ग्राहक जल्दी और मंगाने की चिरौरी करते दिखते हैं। इसकी वजह नर्मदा किनारे लगने वाले गन्ने के खेतों की मिठास है, जो पूरे प्रदेश और देश में दुर्लभ है। इस गन्ने से गुड़ पहले स्थानीय किसान ही बनाते थे मगर अब वो काम बंद कर यूपी से आने वाले लोगों को सौंप कर किसान बेफ्रिक हो गए हैं। गुड़ बनने से जो गन्ना बच जाता है वो करेली के पास खुली चीनी मिलों में बिक जाता है। अब यदि गुड़ ज्यादा बनता है, तो उसकी जलेबी और फिर उसकी बूंदी का स्वाद वही जानता है जिसने इसको चखने के नाम पर शुरू कर बाद में उसे भरपेट खाया हो।

पोहा नहीं भजिया

यहां पोहे को जरा कम भाव मिलता है। ठंड के दिनों में बाजार निकले हों, तो नाश्ता पालक के खस्ता भजिये और गुड़ की जलेबी के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता। यहां पोहा नहीं चाट या फुलकी के ठेलों पर भीड़ मिलती है। खाने की अलग पसंद के साथ लोग भी अलग हैं। करेली दो हिस्सों में बंटी है, करेली बस्ती और करेली गंज। दोनों के रहवासियों का अंदाज अलग है। देखकर ही समझ आ जाता है कि कौन सा व्यक्ति कहां का है। करेली गंज के लोग महाजनी तो करेली बस्ती वाले सख्त जाटों जैसे, मुंह में आग मगर दिल के नर्म।

हम पढ़ने-लिखने वाले

“पढ़े-लिखे न होई नरसिंहपुरिया कोई” की लोकोक्ति जिला मुख्यालय नरसिंहपुर के लिए होगी मगर करेली में तो पढ़ने-लिखने वालों की भीड़ किताबों की दुकानों से लेकर वाचनालय तक जमाने से मिलती आ रही है। एक जमाने के चर्चित साप्ताहिक ब्लिट्ज और करंट में करेली की इतनी खबरें छपती थीं कि पढ़ने वाले करेली को बड़ा शहर समझते थे और ये होता था पत्रकार शंभू दयाल राय हंस की सक्रियता के चलते। आज भी जिला स्तर के टीवी और अखबार के पत्रकार करेली में ही मिलते हैं।

निर्मल नर्मदा और समाजवाद

कामकाज भले ही किसानी और गल्ले का होता हो मगर जनता की सोच तो हमेशा से समाजवादी रही है। ठाकुर निरंजन सिंह, हरि विष्णु कामथ से लेकर लाडली मोहन निगम और शरद यादव के साथी करेली में आपको मिलेंगे और उनकी बातें ऐसे किस्सागोई अंदाज में सुनाएंगे कि समय कब गुजरेगा पता भी नहीं चलेगा। ऐसी मान्यता है कि करेली के पास बरमान घाट यानी ब्रह्मा घाट पर नर्मदा किनारे भगवान ब्रह्मा ने तपस्या की थी। नर्मदा के प्रसिद्ध यात्री अमृत लाल वेगड़ की भाषा में कहें तो, बरमान में नर्मदा लोकगीतों के अंदाज में अल्हड़ तरीके से सतधारा की चट्टानों के ऊपर से अठखेलियां खाते हुए बहती है। हालांकि यहां की रेत के किनारे लगने वाला मेला अब रेत को बेच खाने के बाद रौनक खो चुका है। मगर पुराने लोगों की याद में यह मेला अब भी प्रयागराज के मेले को मात करता है। नर्मदा की इसी रेत पर लगते हैं भटा यानी सफेद विशालकाय बैगन जो एक से दो किलो के होते हैं। इन्हीं भटों के साथ रेत पर बनने वाली दाल बाटी खाकर लोग हर-हर नर्मदे कह कर खुद को धन्य समझते हैं।

ब्रजेश राजपूत

(ऑफ द कैमरा पुस्तक के लेखक)

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