Advertisement
04 मार्च 2024 · MAR 04 , 2024

शहरनामा: नरकटियागंज

तथागत की यात्रा का ठौर
यादों में शहर

तथागत का ठौर

भारत-नेपाल की सीमा पर बसा बिहार के पश्चिमी चंपारण का यह कस्बा इतिहास के महत्वपूर्ण समय का साक्षी है। नरकटियागंज रेल खंड का अंतिम स्टेशन है, भिखना ठोरी। यह भोजपुरी में ‘भिक्खु ठौर’ का बिगड़ा हुआ रूप है। नेपाल से कुशीनगर की यात्रा में बुद्ध और उनके अनुयायी नेपाल-भारत की सीमा पर चंपा अरण्य में, छोटी नदी ‘पंडही’ के किनारे रुके या ठहरे होंगे। इसलिए इसका नाम भिक्खु-ठौर (भिखना ठोरी) है। पंडही नदी को पांडवों के नाम से जोड़ा जाता है। यहां पर तथागत की यात्रा और उनके ठौर, (पड़ाव) की पुष्टि करता हुआ, गौनाहा प्रखंड में स्थित है सहोदरा माई स्थान मंदिर। यशोधरा माई धीरे-धीरे भोजपुरी में सहोदरा माई हो गईं। यहां पूजा कराने के लिए पुजारी नहीं पुजारिनें होती हैं।

चानकी गढ़ की अलग ही चमक है। एक टूटा हुआ किला, जिसे मौर्यकालीन चाणक्य का आयुधागार कहा जाता है। बाद में एक बार अंग्रेजों ने यहां उत्खनन कराया था। चंपारण गांधी की कर्मभूमि भी रहा है, यह सभी जानते हैं, लेकिन गौनाहा प्रखंड में आने वाले भीतिहरवा से सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत हुई थी यह कम लोगों को मालूम है। भीतिहरवा में ही कस्तूरबा की बालिका पाठशाला भी यहां बापू की चक्की, स्कूल की घंटी और कुआं भी मौजूद है, अपने पूरे प्रमाण के साथ।

नील की खेती

कभी चंपा के पेड़ों की बहुलता के कारण चंपा अरण्य कहलाने वाले इस उपजाऊ मिट्टी वाले क्षेत्र की स्मृतियां चंपा के फूलों की सुगंध से नहीं महकती। बल्कि वहां तिनकठिया नील की खेती, हंटर की मार और भूख के हौलनाक दर्द भरे नीले धब्बे हैं। शायद इसलिए जनमानस के अवचेतन में प्रतिरोध, विद्रोह और अदम्य साहस रहा है।

नाम के पीछे की कहानी

चंपारण की दोमठ बलुई मिट्टी में नरकट के पौधों की सघनता वन जैसी थी। उसे रहने लायक बनाने पर इसका नाम हुआ नरकटियागंज। गांव से कस्बे में विकसित होकर इसने, गंज शब्द को भी सार्थक कर दिया। गंज का अर्थ ही होता है, मंडी, गोदाम, बाजार, कोष। नरकटियागंज आसपास के सभी देहातों के किसानों के लिए आढ़त का बड़ा केंद्र रहा है। यहां मुख्यतः धान की ही खेती होती रही है।

1904 में यहां रेलवे स्टेशन बना। 1932 में स्वदेशी शुगर मिल आई और आसपास के गांव-देहातों को गन्ने की खेती सिखाने लगी। इन्हीं अवसरों में नरकटियागंज के इतिहास में गर्व के पल आते हैं, जब दिनकर उन्नीस सौ अड़तीस में यहां के रजिस्ट्रार होते थे।

धन-धान्य

शुगर फैक्टरी के आ जाने की बाद भी यह इलाका पुराने ढ़ंग से ही धान की खेती कर रहा था। 1953 की हरित क्रांति के बाद साठ के दशक में राइस मिल वजूद में आए। मिलों ने नरकटियागंज के आढ़त को गति दी। रोजगार दिया। शुगर फैक्टरी के बाद भी लंबे समय तक यहां की आर्थिकी धान से रही। चंपारण की उपजाऊ भूमि धान के लिए मुफीद रही है।

बंद हुए सिनेमाघर

शुगर फैक्टरी, गन्ने का मोटा और कम श्रम के पैसे ने जल्द ही राइस मिलों को बेदखल कर दिया। विकास के हर ओर बढ़ते कदम के क्रम में नरकटियागंज में अस्सी के दशक तक तीन सिनेमा हॉल हुए, जो हाउसफुल रहते थे। अफसोस नब्बे के दशक में वे बंद हो गए।

एक नाम शिकारपुर भी

नरकटियागंज का थाना शिकारपुर नाम से है, क्योंकि इसका एक नाम शिकारपुर भी रहा है। शिकारपुर के वर्मा परिवार का नरकटियागंज की राजनीति, व्यापार वाणिज्य में लंबे समय तक वर्चस्व रहा, जिसे आम जनता के बीच से चुनकर आए प्रतिनिधियों ने बहुत बाद में चुनौती दी। देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का रिश्ता भी इस वर्मा परिवार से जुड़ता है। नरकटियागंज ने देश के पहले राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद का आतिथ्य किया है। अब अभिनेता मनोज वाजपेयी यहां की पहचान और शान हैं।  

जीआई टैग का धान

यह छोटी-छोटी, मिली-जुली बसाहट लिए छोटा सा कस्बा है। भले ही सरकारी आंकड़ों में यहां साक्षरता दर बढ़ रही है और लोगों को विकास के भ्रम जैसा कुछ होता है, क्योंकि यहां भी अब छोटे-छोटे मार्ट, ब्रांडेड सलोन, चमचमाती दुकानें खुल रही हैं। भले ही इसके लिए लोग गांव-देहात के खेत बेच रहे हों। इस चमचमाहट के बीच यहां के लोग अपने मिर्चा चिवड़े पर खूब गर्व करते हैं क्योंकि यहां के मिर्चा चिवड़े (धान की एक सुगंधित स्वादिष्ट किस्म) को जीआई टैग मिल गया है।

भव्यता की झलक

अब यह पुराना नरकटियागंज नहीं रहा। कस्बे से यह अब शहर में बदल रहा है। यहां भी तेजी से तरक्की हो रही है। दुर्गा पूजा, महाबीरी झंडा पहले की तरह सादा नहीं रहते। इन पर्वों पर पहले से ज्यादा भीड़ और भव्यता होती जा रही है। कार्यक्रम में भले ही भव्यता हो लेकिन आज भी गर्मी में सतुवा और दही-चूड़ा ही लोगों की पसंद है। घुघनी भुजा, भांजा, भूजा-पकौड़ी यहां का सस्ता सहज नाश्ता है, जो आज भी बाजार में बिकता है। यहां का तास (कबाब) और भूजा न खाया तो फिर क्या खाया। दोनों ही बहुत प्रसिद्ध हैं। बड़े शहरों की तर्ज पर मिलने वाले मोमोज, बर्गर अभी भी इनके सामने फीके हैं।

स्मिता वाजपेयी

(कवयित्री, लेखिका)

Advertisement
Advertisement
Advertisement