Advertisement

शहरनामा/सासाराम

रिश्तों और रिवायतों का शहर
यादों में शहर

 रिश्तों और रवायतों की नगरी

यह रिश्तों और रवायतों का शहर है। लिहाज और तहजीब का खूबसूरत ताना-बाना यहां की जिंदगी को इतना संजीदा बनाता है कि जिंदगी भी रेशमी बंधन-सी हर शख्स के मन से बंधकर जब रजामंदी के साथ खुलती है, तो अपना कोमल अहसास छोड़ जाती है। बिहार के सासाराम से छूटता कुछ भी नहीं है। भले ही शहर छोड़े तीस साल हो गए। लेकिन न यहां की नरम हवा भूल सका, न चंदन-सी उस माटी की मृदुल महक। और, उसी माटी में पल-बढ़कर बड़ी हुई अपनी फितरत अक्सर जोर मारती है, जब बाल सखाओं से मिलता हूं। उनके साथ शेरशाह के मकबरे की अय्यारी, साइकिल की हवाखोरी में नजर भर देखने को आतुर आंखें और अपने स्कूल के पिछवाड़े फैले बेर के बगीचे की धींगामुश्ती। अपनी तो आवारगी का माद्दा बस इतना ही था। 

धान का नईहर

सासाराम के पूरब दूर बहते सोन नद की जोशीली धार मन मोहती है। दक्षिण में कैमूर की पहाड़ियों की अभेद्य दीवारें विस्मित करती हैं। पश्चिम और उत्तर में लहलहाती फसलों का मनहर आंचल हवाओं और फिजाओं में मस्ती भरता है। इस इलाके को धान का नईहर कहते है। सोन की लहरों से लिखी गई हरित क्रांति की कहानी आजादी के बाद नहीं, बल्कि अंग्रेजों के जमाने से लिखी जा रही है। जब गदर से ध्यान भटकाने की मंशा से फिरंगियों ने यहां नहरों का जाल बिछाया तो धरती सोना उगलने लगी।

मध्य काल के स्मार्ट सिटी

शेरशाह के बचपन का गवाह बना यह शहर आज अपनी पठानी विरासत संभालने में जुटा है। इसकी वजह है। शेरशाह के मकबरे का दुनिया भर में जवाब नहीं, जिसके गुंबद से प्रेरणा लेकर ताजमहल के गुंबद का निर्माण किया गया। समूची दुनिया में शेरशाह का मकबरा एक ऐसा अनूठा वास्तुशिल्प है जो एक बड़े तालाब के बीच तैरने का भ्रम पैदा करता है। एक जमाना था जब समूचे शहर की प्यास इसी तालाब के पानी से बुझाई जाती थी। शहर के कुंओं के खारे पानी से बेखबर हर घर में मकबरे के तालाब के पानी से दाल पकायी जाती थी। देश की आजादी मिलने के बाद भी इस तालाब से घरों का नाता जुड़ा रहा। दिलचस्प बात है कि 11 वीं शताब्दी में बीजापुर (कर्नाटक) और मुगलिया काल में सासाराम (बिहार) पूरे देश के ऐसे दो मध्यकालीन शहर थे जिन्हें विभिन्न समय में व्यवस्थित तरीके से बसाया गया था। आधुनिक विकास की जुबान में कहें तो दोनों शहर अपने समय की ‘स्मार्ट सिटी’ थे। 

सहस्रबाहु से शेरशाह तक

पर्यटन के नक्शे पर तेजी से उभरता यह शहर सहस्रबाहु और परशुराम की युद्ध भूमि पर बसा है। बड़ी बात है कि हिंदुस्तान के इतिहास को बदलने की कुव्वत रखने वाले शेरशाह की जिंदगी के सैकड़ों संदर्भ आज भी यहां की रौनक हैं। सिर्फ मुगलिया या पठानी वास्तुकला की बात क्यों, शहर के एक छोर पर मौजूद बौद्ध विरासत के वजूद, यहां के शिलालेख उस वक्त के खूबसूरत हालात दर्शाते हैं। न सिर्फ शेरशाह और उनके वालिद हसन सूर शाह के मकबरे की खूबसूरत धरोहर रोज संवारी जा रही है, बल्कि सासाराम की अपनी अलग पहचान बन गई है। भगवान बुद्ध के बोधगया से सारनाथ गमन के रास्ते में जिन स्थानों को चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने रातें गुजारी थीं, उसे बुद्ध सर्किट कहा जा रहा है। ऐसी मान्यता है कि बुद्ध सासाराम से कोई पांच किलोमीटर दूर कैमूर की तलहटी से गुजरे थे। उन्हीं तलहटियों में दर्जनों शैल चित्रों की खोज की गई है, जो हजारों साल पुराने हैं। 

कौन लोहा सिंह?

यहां सांप्रदायिक सौहार्द कोई किस्सागोई नहीं है, बल्कि यह मोहब्बत की एक ऐसी तासीर है, जो वक्त के साथ ज्यादा गहरी होती जा रही है। मंदिर-मस्जिद साथ होने का और मकबरे के एक छोर पर शिव मंदिर बनाने का कोई ऐतराज नहीं है। यहां रिश्ते का रसायन इतना प्रभावी है कि जब भी माहौल बिगाड़ने की कोशिश हुई तो फिरकापरस्तों से हिंदू भाइयों ने जमकर लोहा लिया। लिहाजा, छठ का अर्घ्य देते और रामनवमी के जुलुस में झंडाबरदारी करते मुस्लिम युवा मिल जाएं तो बड़ी बात नहीं। मोहर्रम के ताजिया को सहारा देते यहां हिंदू भाइयों की जमात का मजहब महज इंसानियत रह जाता है। खेतिहर समाज सासाराम की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। जीवन के हर क्षेत्र में तरक्की की फसल काटी जा रही है। लेकिन आबादी का बोझ इस शहर को बेदम किए जा रहा है। गांव से निरंतर बढ़ता पलायन यहां की नागरिक सुविधाओं को बाधित करता जा रहा है। भोजपुरी के नाट्यकार रामेश्वर सिंह कश्यप का पात्र लोहा सिंह इसी भीड़ में खो चुका है। लोहा सिंह को यह अब शहर जानता नहीं। मनोरंजन के नाम पर मुर्गे की लड़ाई का उत्सव अब कहीं नहीं दिखता।

मूसन चचा की कुल्हड़ वाली चाय

मूसन चचा की कुल्हड़ वाली चाय अब यादों के फलसफे में सज गई। गुलाब साव के समोसे का कुरमुरापन अब नसीब नहीं होता। कुछ बातें और उनकी खासियत शख्स विशेष के साथ चली जाती हैं। अच्छी बात है कि गया के तिलकुट का खस्ता स्वाद अब सासाराम में मिल जाता है। अब तो बक्सर की सोनपापड़ी भी यहां के स्थानीय हलवाई बना रहे हैं। सासाराम का रेलवे स्टेशन गोबर-पट्टी राज्यों का सबसे साफ-सुथरा स्टेशन माना जाता है। सासाराम की शक्ल तेजी से बदल रही है। दिखावे का खेल सबको अपने दामन में दबोच रहा है। तमाम प्रहारों और अतिक्रमण के बावजूद यह अपनी परंपरा के रंग, रीति-रिवाज की मिठास और लोक-व्यवहार के कुनमुनापन को बचाए रखने में अभी तक सफल है।

अमरेन्द्र किशोर

(लेखक-पत्रकार)

Advertisement
Advertisement
Advertisement