बिहार की शान
भारत और नेपाल की सीमा पर मिथिला क्षेत्र में स्थित सुंदर द्वार है सुपौल, जो बिहार राज्य की शान है। उसके उत्तर में नेपाल, दक्षिण में मधेपुरा और सहरसा, पूरब में अररिया तथ पश्चिम में मधुबनी जिला बसा है। हिंदू पौराणिक कथाओं में इस क्षेत्र को मत्स्य क्षेत्र कहा गया है। 1870 में सुपौल को अनुमंडल का दर्जा मिला। सुपौल जिला मुख्यालय है और नगर परिषद है। सुपौल 14 मार्च, 1991 को सहरसा जिले से अलग होकर अस्तित्व में आया। सुपौल की सभ्यता–संस्कृति, वेशभूषा, रहन–सहन, भाषा–बोली, राजनीतिक चेतना और संघर्ष भावना गागर में सागर का भान कराती है। सुपौल में स्वतंत्रता संग्राम के सपूतों की वीरता की गाथा संजोए गांधीजी और विनोबा भावे का पदार्पण और सम्मान हुआ था। पूर्वी बांध के निर्माण के अवसर पर डॉ. राजेंद्र प्रसाद भी यहां पधार चुके हैं। यह भूमि स्वतंत्रता सेनानियों की जननी और कर्मभूमि रही है। प्रसिद्ध गायिका शारदा सिन्हा और गायक उदित नारायण को सुपौल में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त है।
दर्शनीय स्थल
सुपौल में हरदी की वनदुर्गा, राजेश्वरी की मां भगवती, कर्णपुर की कृष्णाष्टमी, गढ़ लोरिक आदि दर्शनीय मंदिर तो हैं ही, साथ ही कोशी बराज, बीरपुर भी हजारों लोग देखने पहुंचते हैं। गणपतगंज का विष्णुधाम स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है, जो चेन्नै के विष्णु मंदिरों की शैली में निर्मित है। भगवान विष्णु का यह भव्य, आकर्षक मंदिर आस्था और विश्वास का केंद्र है जहां दूर–दूर से लोग दर्शन करने आते हैं। विष्णुधाम के साथ ही कपिलेश्वर और सुखपुर–गौरीपुर स्थित तिलहेश्वर मंदिर भी प्रसिद्ध हैं। परसरमा गांव सिद्ध संत लक्ष्मीनाथ गोसाईं की जन्मभूमि है और वहां उनकी कुटी भी है जिसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का प्रयास जारी है। त्रिवेणीगंज का सिख गुरुद्वारा और गिरजाघर भी नामचीन है। भुतही दरगाह में मनौती के लिए हमेशा लोगों की भीड़ लगी रहती है। सुपौल में पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं। वाजितपुर के ऐतिहासिक स्थल पर भी पुरातत्वविदों की दृष्टि पड़ी है।
कर्णपुर का महत्व
फ्रांसिस बुकानन के हवाले से राय चौधरी ने कर्णदेव और उनके तीन भाइयों- बल्लभ, दुर्लभ, और त्रिभुवन के सुपौल पर शासन करने की चर्चा की है। कर्णदेव से संबंधित, सुपौल से पांच किलोमीटर दक्षिण में कर्णपुर प्राचीन गांव है, जहां मध्यकालीन युग में सुरक्षा के दृष्टिकोण से सामरिक महत्व के टीलेनुमा स्थल मौजूद हैं। इसके अलावा जिले के अनेक गांव ऐतिहासिक महत्व के हैं।
प्राकृतिक सौंदर्य
आम, बरगद, पीपल, नीम, कटहल, महुआ, पलाश, गेंदा, गुलाब, बेली, सूर्यमुखी आदि प्राकृतिक सौंदर्य में चार चांद लगाते हैं। कहीं-कहीं अब भी ताड़-खजूर, साल-शीशम के पेड़ विद्यमान हैं। पक्षियों में कौआ, गोरैया, हंस, गरुड़ के साथ ही नीलगाय के भी दर्शन होते हैं। कोसी, तिलयुगा, धेमुरा नदियों से आच्छादित सुपौल बाढ़-प्रवण क्षेत्र है। धान, गेहूं, मक्का, मूंग की खेती के साथ लोग जूट की भी खेती करते हैं। मखाना की खेती की ओर भी लोग आकृष्ट हुए हैं। यहां की शस्य–श्यामला भूमि छह ऋतुओं का शृंगार है। मूज, मेखला और मड़वा से भरपूर यहां की परंपराएं अनुपम, अद्वितीय हैं। नवविवाहिता ललनाएं श्रावण मास में लगभग एक पक्ष तक ‘मधुश्रावणी’ पर्व मनाती हैं; समूह में फूल-पत्तियां बटोरती हैं और ‘मां विषहरी’ की पूजा-अर्चना करती हैं। मुख्य रूप से लोग मैथिली भाषा-भाषी हैं, खान-पान के शौकीन हैं और चावल, मछली, दही–चूड़ा पसंद करते हैं।
प्रगति पथ पर
सुपौल आज विकास की नई बुलंदियां छू रहा है। सुपौल जिला मुख्यालय में पूर्व से ही भारत सेवक समाज (बीएसएस) कॉलेज, महिला कॉलेज और औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आइटीआइ) स्थापित है। वर्तमान में अभियंत्रण महाविद्यालय की स्थापना हो चुकी है और चिकित्सा महाविद्यालय स्थापित करने की भी स्वीकृति मिल चुकी है। कोशी महासेतु के निर्माण से आवागमन में सुविधा हुई है और राजधानी पटना, मुजफ्फरपुर, दरभंगा और मधुबनी से सुपौल का सीधा संपर्क स्थापित हो गया है। लंबी दूरी की रेलगाड़ी का परिचालन निकट भविष्य में होने की संभावना भी है।
उर्वर साहित्य भूमि
जिला मुख्यालय सुपौल में 1951 से हर वर्ष गणतंत्र दिवस के अवसर पर लगने वाला सार्वजनिक मेला जिले की सांस्कृतिक धरोहर है जिसका गौरवशाली इतिहास रहा है। 1974 में मेले में बैल हट्टा (मवेशी हाट) की भी शुरुआत हुई और प्रत्येक सोमवार को मेला क्षेत्र में मवेशी हाट लगता है। समय एवं परिस्थितियों के अनुरूप मेले का स्वरूप बदला है। विलियम्स उच्च विद्यालय के मैदान से आरंभ हुए और आइटीआइ के समीप निजी एवं सरकारी भूमि पर लगने वाले मेले की अब स्वयं की भूमि है। एक माह तक लगने वाले इस मेले की व्यापक तैयारी की जाती है और दूर-दराज से व्यवसायी मेले में शिरकत करते हैं। सुपौल की भूमि साहित्यिक सृजनात्मकता के मामले में भी खासी उर्वरा रही है इसीलिए यहां अनेक साहित्यकार, कवि और मनीषी हुए हैं। सुपौल के लोग शांतिप्रिय हैं इसीलिए यहां सांप्रदायिक सद्भाव का कीर्तिमान भी स्थापित रहा है, ‘कोसी की कल–कल धारा में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा में, सुख–शांति की चाह चहुंओर, जन-मानस की यही कामना, सतत अग्रसर रहे सुपौल।’
(कवि, कविता संग्रह ‘पुष्पगुच्छ’ और ‘मनोभाव’)