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18 मार्च 2023 · MAR 18 , 2024

शहरनामा: टिमरनी

सागौन के जंगलों वाला शहर
यादों में शहर

नदी से मिला नाम

मध्‍य प्रदेश के नर्मदा अंचल में टेमरान नदी के किनारे आबाद छोटे और प्यारे-से कस्बे को अपनी प्रकृति के अनुरूप नाम मिला टिमरनी। नदी की कल-कल बहती शीतल धारा की तरह ही अपने में मग्न है यह कस्बा। सीधे-सरल लोगों की नगरी। एक धारणा यह भी है कि इसका नाम अंग्रेजी भाषा के शब्द टिंबर से पड़ा। टिंबर इसलिए क्योंकि कभी यहां सागौन के घने जंगल हुआ करते थे। यहां बहुत ही अच्छी गुणवत्ता का सागौन मिलता था, जो पूरे देश में जाता था। यहां सागौन की लकड़ी की नीलामी में हिस्सेदारी के लिए देश भर के लकड़ी ठेकेदारों का आना-जाना लगा रहता था। अब न जंगल बचे, न सागौन के पेड़।

धर्म, संस्कृति का संगम

नर्मदा अंचल का इलाका होने से टिमरनी की भूमि को उर्वरता का वरदान हासिल है। इस क्षेत्र को भुआण भी कहा जाता है। नर्मदा और गंजाल नदी का संगम भी यहीं गोंदागांव में होता है। यहां संगम है, तो तीर्थ भी है। टिमरनी की नब्बे फीसदी आबादी ग्रामीण है। गूजर, जाट, हरिजनों सहित सभी वर्गों और समुदायों के लोग यहां रहते हैं। अन्य शहरों जैसी गहमा-गहमी यहां नहीं है। यहां नर्मदा नदी के किनारे शिव पुराण और भागवत कथा होती रहती है। बजरंगदास महाराज की किशोरकुटी और आठ सौ साल पुराना शिव मंदिर अपना आध्यात्मिक आकर्षण बनाये हुए हैं। गांधी चौक पर सनातन धर्मशाला है। यहीं रामलीला होती है। करीब डेढ़ सौ साल का इतिहास है उसका। नाटकों की भी अपनी परंपरा है। तवा नदी पर बने बांध ने खेतीबाड़ी के लिए पानी पहुंचा दिया है। गेहूं, चना, मक्का, तुअर और सोयाबीन जैसी परंपरागत फसलों के साथ संतरा, नीबू और एप्पल बेर भी अब उगाई जाने लगी है।

मालवी स्वाद

यह मालवा का छोर है, तो मालवी स्वाद वाले व्यंजनों से भी टिमरनी के वासियों का अटूट नाता है। दाल-बाटी और चूरमा की बादशाहत यहां भी छाई रहती है। मराठीभाषियों की प्रमुखता के चलते मराठी संस्कृति यहां अनजान नहीं है। कढ़ी और मालपुओं की सुगंध यहां फिजा में तैरती रहती है।

स्वाधीनता संग्राम

स्वाधीनता संग्राम में टिमरनी का गौरवशाली योगदान रहा है। महात्मा गांधी के सचिव रहे हरदा के महेश दत्त मिश्र की कर्मभूमि का भाग बनी थी कभी टिमरनी। उनके अलावा जगन्नाथराव गोपालराव, जिन्हें नानासाहब गद्रे कहा जाता था, का मकान ही कांग्रेस का दफ्तर बन गया था। वही टिमरनी के सबसे बड़े नेता थे। उनके अलावा अनेक लोगों ने आंदोलनों में भाग लेकर जेल यात्राएं की थीं।

परसाई की दीक्षा नगरी

भारतीय आत्मा के नाम से ख्यात कवि माखनलाल चतुर्वेदी और दार्शनिक ओशो का संबंध भी टिमरनी से रहा है। विख्यात लेखक और व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने स्कूली शिक्षा टिमरनी में ही पूरी की थी। यह उनका जन्मशती वर्ष है। टिमरनी में परसाई जी की बुआ बटेश्वरी देवी रहती थीं। परसाई जी उन्हीं के घर पर रह कर पढ़े। परसाई जी जब मिडिल स्कूल में थे तब वे कांग्रेस की प्रभात फेरियों में भागीदारी करते थे और स्वाधीनता संग्राम में अपना योगदान दिया था। 1936-37 में पूरा इलाका प्लेग महामारी की चपेट में आ गया था। टिमरनी भी उससे अछूता न रहा था। सैकड़ों लोग काल के गाल में समा गए। इसी बीमारी ने परसाई जी से उनकी मां को छीन लिया था। स्वाधीनता से बहुत पहले जबकि शिक्षा का स्तर बहुत कमजोर था, तब भी टिमरनी में एक पुस्तक-समृद्ध अग्रवाल लाइब्रेरी हुआ करती थी। उसमें तरह-तरह की साहित्यिक पुस्तकें थीं। अब टिमरनी में कई स्कूल और कॉलेज खुल गए हैं। पढ़े-लिखे लोगों की तादाद बढ़ गई है, पर अब वह लाइब्रेरी नहीं रही।

अनोखे व्यक्तित्व

डॉ. वज्रप्रहार सिंह की यादें भी टिमरनीवासियों के मन में ताजा हैं। वे और जबलपुर के महादेव प्रसाद मिश्र मनीषी जी ऐसे राजनैतिक दल की आत्मा और प्राण थे, जिसकी सदस्य संख्या कुल दो ही थी। वे दोनों हर चुनाव लड़ते थे। डॉ. वज्रप्रहार सिंह विधानसभा का और मनीषी जी लोकसभा का। दोनों एक-दूसरे के चुनाव में परम सहयोगी की भूमिका निभाते थे। दोनों अलमस्त तबीयत के आदमी थे। उनकी अपनी जीवनशैली थी। अलग किस्म का रहन-सहन था। डॉ. वज्रप्रहार सिंह छितरी हुई दाढी के स्वामी थे। सांवला रंग था और अपने में खोये-खोये से रहते थे। मनीषी जी लालिमामय गौर वर्ण के थे। धोती और पीली बंडी पहनते थे और कंधे पर एक थैला लटकाए रहते थे। वे दोनों एक-दूसरे के पूरक थे। वे जब चुनाव प्रचार में निकलते थे, तब लड़कों का हुजूम उनके पीछे-पीछे चला करता था।

राजेंद्र चंद्रकांत राय

(कथाकार, अनुवादक, जीवनीकार, हरिशंकर परसाई की जीवनीपरक-उपन्यास कृति ‘काल के कपाल पर हस्ताक्षर’)

 

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