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शहरनामा: उरई

उरई को राजा माहिल के शहर के रूप में भी जाना जाता है
यादों में शहर

पुरातन पहचान

प्राचीन कथा के अनुसार उरई का नाम प्रसिद्ध ऋषि उद्दालक के नाम पर रखा गया था। माना जाता है कि यह उनकी तपोस्थली थी। उरई का संबंध भगवान व्यास से भी जोड़ा जाता है, जिसके अनुसार उरई शहर के निकट यमुना के तट पर उन्होंने तपस्या की थी।

इतिहास के आईने में

उरई को राजा माहिल के शहर के रूप में भी जाना जाता है। माहिल आल्हा और उदल के मामा थे, जो प्रतिहार वंश से संबंध रखते थे। वे उरई के राजा थे और महोबा के राजा परमाल के घनिष्ठ मित्र भी थे। शहर के बीच में माहिल ने एक विशाल तालाब बनवाया गया था, जो आज भी मौजूद है। उसे माहिल तालाब के नाम से जाना जाता है। माहिल किले के अवशेष आज भी दयानंद वैदिक महाविद्यालय परिसर में देखे जा सकते हैं।

स्वतंत्रता संग्राम के झरोखे से

उरई पूर्व में मराठा साम्राज्य का हिस्सा था लेकिन बाद में 1903 में अंग्रेजों ने उस पर कब्जा कर लिया। 1857 में स्वतंत्रता के प्रथम संघर्ष के दौरान ब्रिटिश सेना और बिठूर के नाना साहब, तात्या टोपे और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में स्वतंत्रता सेनानियों के बीच उरई और उसके आसपास के स्थानों पर गंभीर सशस्त्र संघर्ष हुआ था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यहां के कई सेनानियों को यातनाएं दी गई थीं तथा जेलों में डाल दिया गया था। इस दौरान महात्मा गांधी का भी शहर में आगमन हुआ था।

स्थानीय पहचान

उरई वैसे तो उत्तर प्रदेश का एक छोटा-सा शहर है, जो कानपुर और झांसी के बीच जालौन जिले के मुख्यालय के रूप में स्थापित है। जनसंख्या बढ़ने के साथ ही शहर का भी विस्तार हुआ है। शहर में भीड़भाड़ और धक्का-मुक्की भी बढ़ी है। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के इस छोटे लेकिन महत्वपूर्ण नगर में बुंदेली इतिहास, कला, संस्कृति, नृत्य, लोकगीत, उत्सव, भाषा, खानपान और लोकाचार की समृद्ध परंपरा की झलक देखने को मिलती है। टाउन हॉल, रामकुंड, घंटाघर, तालाब स्थित गांधी प्रतिमा शहर की पहचान है। यहां के प्रसिद्ध चौराहे मच्छर चौराहे का नाम आज भी बाहरी लोगों के मन में कौतूहल पैदा करता है। शहर की वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु योजनाबद्ध बुनियादी ढांचे के विकास की आवश्यकता है।

व्यापार और प्रवासी श्रमिक

यह वाणिज्यिक नगर के रूप में भी अपना महत्व रखता है। कृषि उपज निर्यात और कृषि पर आधारित छोटे उद्योग-धंधे यहां प्रमुख हैं। सरकारी प्रोत्साहन के परिणामस्वरूप आज यहां कुछ बड़ी औद्योगिक इकाइयां भी चल रही है। कृषि भूमि के लगातार संकुचित होते जाने तथा रोजगार के सीमित अवसरों के कारण काफी संख्या में यहां के युवा रोजगार की तलाश में महानगरों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हैं।

स्वाद की विशिष्टता

अगर उरई के स्वाद की बात की जाए तो लालमन और बच्चा महाराज की सुबह-सवेरे दही जलेबी का नाश्ता, बच्चाराम की सोहन पापड़ी, स्टेशन का रसगुल्ला, लालजी और छुट्टन की चाट ऐसे जायके हैं जो आज भी कहीं उपलब्ध नहीं हैं। संक्राति पर घर-घर मंगोड़े बनाने और खाने की परंपरा कहीं और देखने को नहीं मिलती है।

धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताएं

यहां के लोग परंपराओं और उत्सवों के प्रति संवेदनशील हैं। तमाम व्यस्तताओं के बावजूद स्थानीय लोग स्थानीय ठडेश्वरी मंदिर, संकटमोचन, गल्ला मंडी के मंदिर, शारदा माता, अक्षरा देवी, हुल्की माता के मंदिर और बेरी वाले बाबा में अपनी हाजिरी लगाना नहीं भूलते हैं। अक्ति का मेला, बुढ़वा मंगल, नवरात्रि के ज्वारे, टेशू-झिंजिया की शादी, रामलीला जैसे धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजन स्थानीय निवासियों में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं। रामचरितमानस का अखंड पाठ, भंडारे ऐसे नियमित धार्मिक आयोजन हैं, जो सालभर पूरे शहर में चलते रहते हैं। दशहरा में रावण वध के बाद एक दूसरे को पान खिलाने और गले मिलने की परंपरा यहां आज भी जीवित है। होली के अवसर पर तालाब पर होने वाले महामूर्ख सम्मेलन की परंपरा बहुत ही अनूठी है। उसमें शहर भर के बुद्धिजीवी अपनी मूर्खता की एक से बढ़कर एक मिसालें पेश करते हैं। वारह वफात का जुलूस, झूलेलाल शोभा यात्रा, गुरु नानक देव प्रकाश पर्व जैसे आयोजन भाईचारे और सौहार्द की मिसाल हैं।

भाषा की बुंदेली मिठास

बुंदेली भाषा तथा उसकी मिठास आत्मीयता पैदा करती है जो गंभीर बात भी बहुत शालीनता और आत्मीयता से व्यक्त करने की क्षमता रखती है। बुंदेली कहावतों और लोकगीतों की मधुरता मन को आनंदित कर देती है। यहां की बोली ही संस्कृति और आदान-प्रदान में गजब का मिठास घोल देती है।

आसपास मनोरम स्‍थल

उरई शहर के आसपास स्थित कुछ महत्वपूर्ण स्थान अपनी विशिष्टता के कारण काफी प्रसिद्ध हैं जिसमें पंचनदा, कालपी स्थित व्यास मंदिर, वानखंडी माता मंदिर, लंका मीनार, रामपुर का किला आदि प्रमुख हैं। मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित पंचनदा वह स्थान है, जहां पर पांच नदियां यमुना, चंबल, कुंवारी, सिंधु और पहुज का संगम होता है।

 डॉ. गोपाल मोहन शुक्ला

(पुस्तकालय अध्यक्ष)

 

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