जंगल-सा नगर
कल कल बहती नदी, खूबसूरत पहाड़ और झूमते, ऊंघते जंगल के बीच की बस्ती है वाल्मीकिनगर। वह नगर जिसे वक्त ने कई नाम दिए। कइयों के लिए यह आज भी त्रिवेणी धाम है, तो बहुतों के लिए यह बस्ती अब भी अनाम है। यह बिहार के विधानसभा और लोकसभा क्रमांक में पहले स्थान पर है। सरकार और संस्कृति प्रेमियों के लिए यह ऋषि वाल्मीकि का नगर है। जनमन में बसी इन लोक मान्यताओं को छोड़ दें तो भी यह जगह ऐतिहासिक, पौराणिक महत्व की है। पुराण कथाओं में यह गज-ग्राह युद्ध आरंभ स्थली है। इसी युद्ध के नाते भगवान को गजेंद्र मोक्ष अवतार लेना पड़ा। यहां नदी पत्थरों पर आज भी मगरमच्छ की आकृतियां नजर आती हैं। पवित्र नारायणी नदी यहां पहाड़ों से मैदान में उतरती है। पवित्र शालिग्राम पत्थरों का उद्गम स्रोत यही नदी है। यहां तीन नदी और तीन किनारे हैं। यहीं सोनभद्र और ताम्रभद्र का संगम सदानीरा नारायणी से होता है। इस नाते यह संगम स्थल त्रिवेणी धाम है, जिसका एक किनारा बिहार तो दूसरा उत्तर प्रदेश और तीसरा नेपाल में लगता है। भारत नेपाल का यह सीमा स्थल शैव और वैष्णव मिलन का भी प्रतीक है।
भैंसों का खेलगाह
कुछेक लोगों के लिए यह अब भी भैंसालोटन है। भैंसालोटन और वाल्मीकिनगर नाम की भी अपनी कहानी है। कभी सैकड़ों जंगली भैंसें यहां नारायणी तट की मिट्टी में लोटपोट किया करती थीं। इस नाते यहां के थारू लोगों ने इसे भैंसालोटन पुकारना शुरू किया। 14 जनवरी, 1964 को बिहार सरकार ने इस स्थान का नाम वाल्मीकिनगर घोषित किया। यह नामकरण महंत धनराज पुरी के अथक प्रयासों का परिणाम था। महंत धनराज पुरी स्वतंत्रता सेनानी और साहित्यकार थे। स्वतंत्रता संग्राम में इस संन्यासी ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में भाग लिया था।
नेहरू की यात्रा
वाल्मीकिनगर के नामकरण के तीन महीने बाद 1964 में पंडित नेहरू का यहां आना हुआ था। तब नेपाल भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ बाढ़ से निजात और सिंचाई के नवीन अवसरों को लेकर यहां कई निर्माण परियोजना का शिलान्यास किया गया था। इस यात्रा मे पंडित नेहरू के साथ इंदिरा गांधी भी आई थीं। तत्कालीन नेपाल नरेश राजा महेंद्र का भी आना हुआ था। यह यात्रा पंडित नेहरू के जीवन की आखिरी यात्राओं में से एक थी। उनकी यात्रा ने ही वास्तव में आधुनिक वाल्मीकिनगर की नींव रखी थी। वाल्मीकिनगर उच्च विद्यालय परिसर में उनके द्वारा रोपा गया सीता अशोक अब भी लहलहा रहा है।
चंपा की खुशबू
नारायणी का जल गंगा जैसा सड़न रहित है। यह नगर चंपारण क्षेत्र का हिस्सा है, जो कभी सुगंधित चंपा पुष्प वनों के लिए ख्यात था। वाल्मीकिनगर में प्रदूषण का नामोनिशान नहीं है। आसमान में दूर तक पर्वत शिखरों को अपलक निहार सकते हैं। यह हिमालय के शिवालिक सोमेश्वर पर्वत श्रेणी का हिस्सा है। पश्चिमी चंपारण जिले के इस परिक्षेत्र के अंदर ही बिहार का इकलौता वाल्मीकिनगर वन्य जीव अभयारण्य आता है, जिसकी सीमा नेपाल के चितवन राष्ट्रीय अभयारण्य से लगती हैं।
विरहनी, रसधारी, झमटा और झूमरा
यूं तो इस इलाके में गैर-थारू लोग भी बसे हैं, जिनमें अंग्रेजों द्वारा छोटानागपुर से लाकर बसाये गए उरांव हैं। लेकिन यहां की संस्कृति पर थारू जनजाति का ही प्रभाव है। उनके पारंपरिक नाच-गाने में विरहनी, रसधारी, झमटा और झूमरा चलन में है। यहां कई थारू व्यंजन हैं। जंगल में उगने वाली वनस्पति उनके लिए साग-सब्जी के प्रमुख स्रोत हैं। बड़ेड़, तावा बांस और भुटकी मशरूम लोकप्रिय सब्जियां हैं, जबकि साग के तौर पर कोचीया बोलेया का चलन है। इनमें अधिकांश मौसमी उत्पाद हैं। इसीलिए इन सब्जियों और छोटी मछलियों की धूप में सुखा कर रखने का पुराना चलन है। इसे सुकठी कहते है। इस इलाके का आनंदी धान और गुड़ प्रसिद्ध है। यहां के गुड़ को योगिया की भेली कहा जाता है। शायद किसी योगी ने लोगों को बिना रसायन हाथों से गुड़ बनाना सिखाया हो। उसका रंग साफ और स्वर्णमय आभा लिए होता है। आनंदी धान केवल चूड़ा और लावा बनाने के लिए उगाया जाता है।
मदनपुर माई के शेर
यहां के पुराने मंदिर और देव पिंडियां सुदूर जंगलों में मिल जाएंगी। उनके अधिकांश पुजारी थारू जनजाति के लोग हैं। जंगल में वाल्मीकि आश्रम रमणीक स्थान है। यहां के प्रसिद्ध देवस्थानों मे कौलेश्वर, जटाशंकर और नरदेवी मंदिर है। कौलेश्वर, नारायणी त्रिवेणी संगम घाट पर बना मंदिर है। यह योगिनी कौल तंत्र उपासक बेतिया राजपरिवार द्वारा निर्मित है, जिस पर 182 वर्ष पूर्व जीर्णोद्धार कराए जाने का शिलापट्ट लगा है। जटाशंकर मंदिर को भी लोग पुराना मानते हैं, जिसका प्रमाण मंदिर प्रांगण में दो सौ वर्षों से पूजित पीपल वृक्ष है। यहां का नरदेवी मंदिर चमत्कारी है जहां रक्त से देवी का अभिषेक होता रहा है। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि वीर आल्हा ऊदल भी यहां देवी उपासना के लिए आते थे। मन्नत पूरी होने पर लोग कबूतर उड़ाते हैं और मुर्गे तथा बकरे की बलि देते हैं। वाल्मीकि नगर बस्ती से थोड़ी दूरी पर मदनपुर माई का स्थान है। यहां की कहानी में गुरु रहसू और द्वेष भाव वाले सामंत मदन सिंह की चर्चा है। कहते हैं, इस मंदिर में अब भी हर रात को शेर आते हैं, लेकिन इससे कभी किसी नुकसान नहीं पहुंचा।
(लेखक, भारतीय संस्कृति परंपरा अध्येता)