Advertisement

शहरनामा: वरुड

विदर्भ का कैलिफोर्निया
यादों में शहर

विदर्भ का कैलिफोर्निया

मध्य भारत में महाराष्ट्र का एक शहर नागपुर संतरे के लिए प्रसिद्ध है, इसे ऑरेंज सिटी भी कहते हैं, यह शहर महाराष्ट्र की दूसरी राजधानी भी है, सर्दियों का विधानसभा सत्र भी यहीं होता है। नागपुर से सौ किलोमीटर दूर एक बस्ती है, जिस पर मराठी के लेखक मधुकर केचे ने एक लेख लिखा था और उसे सोया हुआ गांव कहा था। इस बस्ती का नाम है वरुड। यह गांव संतरों की पैदावार के लिए इतना प्रसिद्ध है कि इसे विदर्भ का कैलिफोर्निया कहा जाता है। वरुड में पहले केले के बागान हुआ करते थे। धरती में पानी जब नीचे उतरता गया, तो यहां के किसानों ने संतरे के बाग लगा लिए। संतरे की फसल को यहां का वातावरण ऐसा भाया कि बंपर पैदवार शुरू हो गई। मिट्टी और पानी ने इस क्षेत्र की काया पलट दी। धीरे-धीरे संतरों के बड़े-बड़े बाग लग गए।

ईरान का सफर

यहां इतने बड़े पैमाने पर संतरे पैदा होने लगे कि देश के बड़े शहरों में वरुड का नारंगी रंग दिखने लगा। एक समय ऐसा भी आया, जब वरुड से संतरे ने ईरान की यात्रा की। वहां युद्ध शुरू होने के बाद ही यह सिलसिला बंद हुआ। बचपन में हम वरुड वालों को तब बहुत तकलीफ होती थी, जब कोई संतरे को ‘नागपुरी’ संतरे कह कर पुकारता था। लगता था जैसे कोई दूसरे के बच्चे को अपना कह दे। नागपुर शहर में संतरा न के बराबर होता है। हां, नागपुर जिले और हमसे लगे जिले अमरावती में यह फल जरूर पैदा होता है। पांढूरना, नरखेड़, ती गांव, वरुड, मोरसी और परतवाड़ा आदि के पास बागान में इसकी लहलहाती फसल भरपूर मौजूद होती है। विदर्भ क्षेत्र में ये जगहें संतरे के बड़े गढ़ हैं।

संतरे के सिवा रखा क्या है

यह शहर संतरों का शहर है। संतरे के सिवा नजरों में और कुछ दिखाई नहीं पड़ता। संतरे की यहां दो फसलें हैं। अंबिया और मृग। दोनों की इतनी मांग होती है कि जब इनके पकने का मौसम आता है, तब दूर शहरों के व्यापारियों से यह शहर गुलजार हो जाता है। किसानों से संतरे की फसल का सौदा होता है और फिर फिजा बिलकुल बदल जाती है। कल तक पेड़ों पर टंगे संतरे, पेटियों में आराम फरमाने लगते हैं। फिर ये बक्से लारियों में सवार होकर हमारे शहर से बिदा हो जाते हैं, जैसे बिदा हो जाती हैं बेटियां। अगर इन दिनों कोई रेलवे स्टेशन भी जाए, तो यहां एक तरह की खट्टी-मीठी गमक नथुनों से टकराती है। स्टेशन पर भी मेला-सा लगा रहता है। हर तरफ मजदूर, गाड़ियों और लोगों की चहल-पहल दिखती है। तब बचपन का सुना यह वाक्य याद आ जाता है, वरुड में तीन चीजें ज्यादा हैं, दाड़ियां, बाड़ियां, गाड़ियां।

पलटी काया

हमारा छोटा-सा कस्बा एक फल की वजह से बदल गया है। जैसा रसीला यह फल है, वैसा ही रस इस शहर में आ गया है। संतरे से इस बस्ती में रुपया आना शुरू हुआ, तो यहां की काया पलट ही गई। बड़ी-बड़ी इमारतें, दुकानें, स्कूल-कॉलेज और संस्थाएं नजर आने लगीं। वरुड में अलग-अलग धर्मों को मानने वाले मिलजुल कर रहते हैं। कभी यहां होने वाले कवि सम्मेलनों में उर्दू, हिंदी और मराठी के कवि एक साथ जमा होकर अपनी रचना सुनाते थे। हसन बशीर, डॉ. सफदर, आरिज मीर और शाहिद रशीद यहां के प्रसिद्ध लेखक हैं। वरुड के किनारे से चूड़ामन नदी गुजरती है, इस पर अब नया पुल बन गया है। कभी यहां एक पुराना पुल हुआ करता था, जिसमें सतत्र कमानें थीं। इस कारण इसे सतरा तोंडेया पुल कहा जाता था। मराठी में तोंड शब्द का अर्थ है, मुंह।

शान कायम

वरुड संतरे के लिए प्रसिद्ध जरूर है, लेकिन पिछले कुछ साल में यहां के संतरे के बागान को बीमारियों और पानी की कमी के करण बुरे हालात का सामना करना पड़ा। यहां के अधिकांश लोग संतरे की फसल पर ही निर्भर रहते हैं। कई वर्षों से यह मांग की जा रही है कि संतरे से बनने वाली चीजों के कारखाने अगर यहां लग जाएं तो रोजगार उपलब्ध हो सकता है। फिर भी यहां संतरे के बागों में फलों से लदे पेड़ बताते हैं कि विदर्भ के कैलिफोर्निया की वही शान कायम है।

असली खुशबू कहां

अक्‍सर गांव जब फलने-फूलने लगता है, तो अपनी असली खुशबू से वंचित हो जाता है। कभी यहां केवल कृषि थी फिर शिक्षा और साहित्य की गतिविधियों से अलग तरह की संस्कृति पनपी। और अब जो संस्कृति बढ़ रही है, उसमें हमारे पास करोबार और रुपये की रेलमपेल मची हुई है। इससे शहर की संस्कृति को थोड़ा धक्का पहुंचता है। फिर भी इस बीच कुछ अच्छी बातें बनी हुई हैं। समय के साथ यह एहसास गहरा जाता है कि जैसे-जैसे वक्त बीतता है, इंसान के चेहरे की तरह शहरों का चेहरा भी बदलता है, उसे कोई रोक नहीं सकता। यही वरुड के साथ भी है।

डॉ. मुहम्मद असदुल्लाह

(उर्दू के ललित निबंधकार)

 

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement