शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को आखिरकार वैश्विक महामारी कोरोना के लॉकडाउन के समय पुलिस को जबरन हटाना पड़ा। वैसे तो स्थिति की गंभीरता को देखते हुए इन प्रदर्शनकारियों को स्वयं धरना समाप्त करना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ। प्रदर्शनकारी दिल्ली के आम शहरियों की तकलीफों और सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित कमेटी की दलीलों से भी पसीजे नहीं थे। ऐसे में सवाल उठता है कि शाहीन बाग में चल रहा नागरिकता कानून विरोधी धरना और उससे फलित घटनाक्रम एक राजनीतिक आंदोलन था या फिर सुविचारित उपद्रव?
किसी भी लोकतंत्र में हर नागरिक को अधिकार है कि वह सरकार की नीतियों और कानूनों का शांतिपूर्ण विरोध कर सके। विरोध का यह अधिकार अकेले नागरिक को, नागरिकों के समूह तथा दलों को भी है। मगर विरोध करने का अधिकार न तो असीमित है और न ही अनियंत्रित। इसकी अपनी सीमाएं हैं। जब विरोध दूसरे नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण करे तथा सार्वजनिक जीवन में बाधा बने तो यह विचार करने की जरूरत है कि यह कितना विधि सम्मत और लोकतांत्रिक है।
किसी भी लोकतंत्र में एक राजनीतिक आंदोलन के कुछ मूल तत्व या बिंदु होते हैं। पहला, किसी भी राजनीतिक आंदोलन का एक मुखरित उद्देश्य और लक्ष्य होता है। दूसरा, उस उद्देश्य की प्राप्ति के पीछे कौन काम कर रहा है यह भी स्पष्ट होता है। तीसरा और महत्वपूर्ण तत्व है आंदोलन के साधनों के बारे में साफगोई। गांधीजी जिसे साधनों और साध्य की शुचिता कहते थे, वह किसी भी आंदोलन के लिए आवश्यक होती है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि आंदोलन शांतिपूर्ण हो तथा दूसरे नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण न करता हो।
भारत में राजनीतिक आंदोलनों का लंबा इतिहास है। वे छोटे भी रहे हैं और बड़े भी। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था इससे पुष्ट और परिपक्व होती रही है। हमारे देश में ही नहीं, बल्कि एक तरह से दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक आंदोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत की आजादी की लड़ाई के रूप में चल चुका है। महात्मा गांधी ने आंदोलन में साधन और साध्य, दोनों की शुचिता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि सत्याग्रह, सत्य के लिए आग्रह है। वह स्वयं को कष्ट देने के लिए है न कि दूसरों को कष्ट देकर जोर जबरदस्ती के साथ अपनी मांग मनवाने के लिए। बहरहाल, आजादी का आंदोलन बड़ी बात थी। उसकी तुलना अन्य किसी आंदोलन से नहीं की जा सकती। इसका जिक्र यहां इसलिए किया गया, क्योंकि नागरिकता कानून विरोधी शाहीनबाग और अन्य प्रदर्शनों में कथित ‘आजादी’ के खूब नारे लगे लगे।
आप इन नारों को कुछ सिरफिरे लोगों की भड़ास कहकर छोड़ भी सकते हैं। परंतु जब आप पिछले कुछ बरसों से ‘आजादी’ के नारे को बार-बार प्रतिध्वनित होते देखते हैं तो एक खास पैटर्न उभरता है। ऊपर हमने कहा कि किसी भी आंदोलन के लिए आवश्यक है कि कौन उसका नेतृत्व कर रहा है, यह स्पष्ट होना चाहिए। परंतु शाहीन बाग और उस जैसे प्रदर्शनों के नेतृत्व की जिम्मेदारी किसी ने नहीं ली है। इन्हें स्वतःस्फूर्त बताया गया, पर ये नारे इस बात को नकारते हैं और स्पष्ट करते हैं कि इसे चलाने वाले सामने आने से डरते हैं। मासूम महिलाओं और बच्चों को धरने पर बैठाकर उन्हें राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने वाले इन तत्वों और उनके मंसूबों की पहचान होना जरूरी है।
एक बात तो पिछले दिनों साफ हो गई कि अति वामपंथी विचार रखने वाले कतिपय संगठन और एनजीओ इसके पीछे हैं। पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) का नाम भी इन प्रदर्शनों और दिल्ली में हुए दंगों से जुड़ गया है। दिल्ली पुलिस ने पीएफआई से जुड़े कुछ लोगों को इस सिलसिले में पकड़ा भी है। एक्टिविस्ट हर्ष मंदर का वीडियो सामने आया है जिसका संज्ञान सुप्रीम कोर्ट ने भी लिया है। इस वीडियो में वे भारत की हर स्थापित संस्था, यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय में भी अनास्था व्यक्त कर रहे हैं। वे वीडियो में लोगों से सड़क पर उतर आने का आह्वान करते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में बदलाव का जरिया सड़क पर जोर-जबरदस्ती नहीं बल्कि मतपेटी होना चाहिए। यदि हर नागरिक या समूह अपनी बात मनवाने के लिए सड़क पर उतरेगा तो यह अराजकता होगी।
नागरिकता कानून में संशोधन भारत की संसद ने बहुमत से पारित किया है। इसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में सताए हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाइयों को नागरिकता के अधिकार देने का प्रावधान है। ये तीनों घोषित इस्लामी देश हैं। यहां दूसरे धर्म के लोगों के साथ क्या अमानवीय व्यवहार होता है, यह जगजाहिर है। इन देशों में हिंदू, ईसाई और सिख इत्यादि अल्पसंख्यक तलवार की नोक पर या तो धर्म परिवर्तन करने को मजबूर हुए या मार दिए गए। इसका ताजा उदाहरण काबुल के गुरुद्वारे में प्रार्थना के लिए इकट्ठे हुए सिखों का नरसंहार है। जिहादी इस्लामी संगठन के इस हमले में 27 सिख मौत के घाट उतार दिए गए। इन देशों में अल्पसंख्यकों की ये कत्लोगारत कोई एक घटना नहीं है। अमेरिका के स्टेट्स डिपार्टमेंट और मीडिया के अनुसार अफगानिस्तान में 1990 में एक लाख हिंदू और सिख आबादी थी, जो अब 3,000 के आसपास है। अब यह समझना कठिन नहीं कि उन 97,000 हिंदूओं और सिखों के साथ क्या हुआ होगा।
इन सताए अल्पसंख्यकों को यदि भारत उनका नैसर्गिक अधिकार देने का फैसला लेता है तो इसमें क्या गलत है? नए कानून में भारतीय नागरिकों के किस अधिकार का हनन होता है यह समझ नहीं आता? फिर भी किसी को इससे आपत्ति है तो वह न्यायालय जा सकता है। परंतु इसके बहाने एक अर्धसत्य को नागरिकों के एक वर्ग के सामने परोसकर उनमें आशंका और भय का माहौल बनाकर अराजकता पैदा करने का काम कोई जिम्मेदार नागरिक या संस्था कैसे कर सकती है?
यहां यह प्रश्न उठना भी लाजिमी है कि ‘लोकतंत्र’, ‘संविधान’, ‘तिरंगा’, ‘पारदर्शिता’, ‘लोकतांत्रिक संस्थाएं’ और ‘सहिष्णुता’ जैसे शब्द धरना प्रदर्शन करने वालों के पीछे बैठे तत्वों के लिए सिर्फ जुमला हैं या वे इनमें यकीन भी करते हैं। इस सवाल का जवाब तो उन्हें देना ही चाहिए। क्योंकि संविधान में स्थापित लोकतांत्रिक मूल्य और उनसे निकली व्यवस्था हर भारतीय के लिए आस्था के मंदिर की तरह है। यह इस्तेमाल कर फेंक दिया जाने वाला औजार नहीं हो सकता। देश के लिए यह गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए कि शहरी नक्सल, अति वामपंथी तथा जिहादी संगठन कहीं इस मौके का इस्तेमाल कर ऐसे विचार विषाणु हमारे सार्वजनिक जीवन में आरोपित न कर दें जिनका इलाज करने में असहनीय पीड़ा का सामना करना पड़े।
इन प्रदर्शनों में लगने वाले अन्य नारों का जिक्र करना भी गैर मुनासिब नहीं होगा। एक नारा लगा ‘तेरा-मेरा रिश्ता क्या, ला इलाह इल्ललाह’। भारत विभाजन के समय लगने वाला यह नारा शाहीनबाग में क्यों लगा? भारत के नागरिकों को मजहब के आधार पर बांटने से ज्यादा खतरनाक बात नहीं हो सकती। धरने के समर्थक, इससे सहानभूति रखने वाली संस्थाएं, मीडियाकर्मियों का एक वर्ग और एनजीओ कहते हैं कि यह विरोध प्रदर्शन एक मजहब द्वारा नहीं है। इनसे जरूर पूछा जाना चाहिए कि अगर ऐसा है तो उन्होंने मुस्लिम बहुल इलाके शाहीनबाग में ही यह क्यों किया? उन्होंने देश में ऐसे ही स्थान क्यों चुने? इस धरने में बार-बार लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं की दुहाई भी दी जाती है। लोकतंत्र में अपनी बात कहने का अधिकार है। अगर बात न मानी जाए तो उसके लिए इसरार करने, धरना और प्रदर्शन करने का भी हक है। पर वह नियत स्थानों पर ही हो सकता है। अगर आपको लगता है कि बात बहुत बड़ी है तो फिर आप सत्याग्रह भी कर सकते हैं। आजादी के बाद लोकतांत्रिक परंपराओं, लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए देश में एक बड़ा आंदोलन हुआ था। इमरजेंसी के खिलाफ विभिन्न विचारधाराओं के लोग इकट्ठे हुए और संघर्ष किया। इस संघर्ष में हजारों लोग जेल गए। उन्होंने यातनाएं सही लेकिन हिंसा का सहारा नहीं लिया।
यहां इमरजेंसी का जिक्र इन दो परिस्थितियों की तुलना के लिए नहीं बल्कि यह बताने के लिए है कि कुछ मूल्यों के लिए संस्थाओं और उसके नेतृत्व को स्वयं त्याग करना पड़ता है। आम शहरियों को परेशान करना और अराजकता का माहौल पैदा करना- यह स्थापित और मान्य राजनीतिक मर्यादाओं के विपरीत है। इसके लिए महिलाओं और बच्चों का इस्तेमाल बेहद खतरनाक परंपरा की शुरुआत है। ऐसा वे ही कर सकते हैं जिनकी आस्था भारत के भले में नहीं, बल्कि यहां मजहब की दरारों को गहरा करने में हो। इसे किसी भी तरह से राजनीतिक आंदोलन कहना सही नहीं होगा। यह तो एक उपद्रव है जो परदे के पीछे रहकर उन ताकतों ने भड़काया है जिनकी आस्था भारत के चिर स्थापित शांतिपूर्ण सह अस्तित्व और समन्वय के मूल्यों में कतई नहीं लगती।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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लोकतांत्रिक व्यवस्था में बदलाव का जरिया सड़क नहीं, मतपेटी होनी चाहिए। हर नागरिक सड़क पर उतरेगा तो यह अराजकता होगी