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आवरण कथा/नजरिया : मुकम्मल कोविड आरोप-पत्र

इस संकट में सरकार और अधिकारियों का स्याह चेहरा नजर आया, जो बेहद निष्ठुर और संवेदनशून्य है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

यह लेख मैं कोविड मरीज के बिस्तर पर लेटे लिख रहा हूं इसलिए महामारी का दुख-संताप झेल रहे देश की पीड़ा से गहरे वाकिफ हूं। वैक्सीन लगाने के बावजूद मैं संक्रमण से पस्त हूं। मुझे भारी थकान और कोविड की वजह से मायोकारडिटिस का मरीज बताया गया है।

मई के पहले पखवाड़े में देश में संक्रमण के शिकार लोगों की कुल संख्या 2 करोड़ को पार कर गई और कुल मौत 3 लाख से ऊपर जा चुकी है (अलबत्ता, विशेषज्ञों का अनुमान है कि मौतों की असली संख्या आठ गुना अधिक हो सकती है)। अस्पताल में बिस्तर उपलब्ध नहीं हैं, ऑक्सीजन की आपूर्ति डांवाडोल है, वैक्सीनेशन सेंटर पर वैक्सीन नहीं है। दवा दुकान वाले एंटी-वायरल दवाइयों की मांग पूरी करने में हाथ खड़े कर रहे हैं। देश कोविड के आगे अपनी नाकामियों का बंडल बना हुआ है। कांग्रेस ने ‘‘त्रासदी को बुलावा, निकम्मेपन और बेहिसाब कुप्रबंधान’’ के लिए सरकार की आलोचना की है। लेकिन यह किसी विरोधी की तोहमत नहीं, बल्कि देश के आम आदमी की आवाज है। आखिर दुनिया भर में भारत की कामयाबी के डंके पीटने, पिछले साल ‘पहली लहर’ की जंग जीतने,  सामान्य और आर्थिक गतिविधि बहाल करने, और टीके का निर्यात तक शुरू करने के बाद इतनी तेजी से सब कुछ गड़बड़ा कैसे गया? 

 इस संकट में सरकार और अधिकारियों का स्याह चेहरा नजर आया, जो बेहद निष्ठुर और संवेदनशून्य है

दरअसल गड़बडिय़ों और गलतियों की सूची काफी लंबी है।

ठोस काम के बदले दिखावे पर जोर: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाटक-नौटंकी का शौक खुलकर बोला, कोविड को अपने पीछे लोगों को लामबंद करने का बहाना बनाने की कोशिश में राष्ट्रीय टीवी पर एक शुभ लग्र में ताली, घंटा, थाली बजानेे और दो हफ्ते बाद एक खास घंटे में दीये जलाने को कहने जैसी तरीके खोज लाए। ऐसे ही अंधविश्वास   महामारी से निपटने की नीतियों में भी गंभीर वैज्ञानिक सोच की जगह खुलकर दिखे। प्रधानमंत्री का हिंदू राष्ट्रवाद का प्रहसन भी चरम पर था, उन्होंने दावा किया कि जैसे महाभारत युद्ध 18 दिनों में जीता गया, भारत 21 दिनों में कोविड के खिलाफ युद्ध जीत जाएगा। कभी भी संकेत नहीं दिया गया कि यह महज खुशफहमी ही थी।

सरकार ने लोगों को मोटे तौर पर उनके हाल पर छोड़ दिया..

डब्ल्यूएचओ के मंत्र की अनदेखी: संकट की शुरुआत में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कंटेनमेंट रणनीति की सिफारिश की थी, जिसमें परीक्षण, संक्रमितों का पता लगाना, और मरीज को आइसोलेट कर इलाज करना अहम था। कुछेक राज्यों जैस केरल ने शुरू में इस मंत्र का सफलतापूर्वक पालन किया, जहां 30 जनवरी, 2020 को देश में कोविड-19 संक्रमण का पहला मामला मिला था। लेकिन केंद्र सरकार के मनमाने रवैए से कई राज्यों में ऐसे उपायों को बेतरतीब ढंग से ही अपनाया जा सका।

केंद्रीकरण: मार्च 2020 में प्रधानमंत्री मोदी ने खुद चार घंटे से भी कम समय के नोटिस पर देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान कर दिया और उसके बाद महामारी अधिनियम और आपदा प्रबंधन अधिनियम के अस्पष्ट प्रावधानों के तहत कोविड-19 की लड़ाई केंद्र सरकार ने खुद संभाली। ये कानून देश के संघीय ढांचे को दरकिनार कर केंद्र सरकार को पूरी ताकत देने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। देश की 30 राज्य सरकारों को स्थानीयता को ध्यान में रखकर जरूरी रणनीति और प्रशासनिक उपाय अपनाने का अधिकार देने के बजाय केंद्र सरकार ने दिल्ली से डंडे के जोर से कोविड प्रबंधन किया, जिसके भयावह नतीजे सामने आए। (एक साल बाद अब हकीकत सामने है कि केंद्र सरकार ने संघवाद की ऐसी परिभाषा गढ़ी, जिसमें बिना जवाबदेही के सत्ता मिलती है। हाल ही में दिल्ली सरकार को ऑक्सीजन की सुचारू आपूर्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट के पास जाना पड़ा, ताकि कोर्ट केंद्र सरकार को मरीजों की जान बचाने के लिए ऑक्सीजन की आपूर्ति के लिए जरूरी निर्देश दे।)

अनियंत्रित लॉकडाउन: प्रधानमंत्री ने मार्च 2020 में अचानक लॉकडाउन की घोषणा कर दी  और राज्य सरकारों, जनता या केंद्र सरकार के अधिकारियों तक को भनक नहीं लगने दी, जिससे सभी हैरान रह गए। नतीजा हुआ घोर अराजकता। तमाम आर्थिक गतिविधियां अचानक ठप कर दिए जाने से करीब 3 करोड़ प्रवासी श्रमिक पैदल ही अपने गांव-घर जाने को मजबूर हो गए, लॉकडाउन करते समय उनके बारे में कुछ सोचा ही नहीं गया। एक अनुमान की मुताबिक, सैकड़ों मील लंबे सफर में सड़क पर ही 198 लोगों की मौत हो गई। 50 लाख से ज्यादा छोटे और मझौले उद्योग बंद हुए और बेरोजगारी उच्चतम स्तर पर पहुंच गई।

पैसों की किल्लत: जैसे-जैसे संकट नियंत्रण से बाहर होने लगा, केंद्र सरकार ने पर्याप्त धन की व्यवस्था किए बगैर राज्य सरकारों पर अधिक जिम्मेदारी डालनी शुरू कर दी। राज्य सरकारें महामारी से लडऩे के लिए डॉक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मी, परीक्षण किट, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण, अस्पताल के बिस्तर, वेंटिलेटर, ऑक्सीजन सिलेंडर और दवा का प्रबंध करने को जूझती रहीं। सरकार ने पीएम-केयर्स नाम का एक नया राहत कोष खोल लिया, जिसमें भारी धन जुटाया गया, लेकिन आज तक इस बात का कोई सार्वजनिक लेखा-जोखा नहीं है कि पीम-केयर्स कोष मे कितना धन है और उसके पैसों को कहां खर्च किया गया।

बेपरवाही: जब महामारी का असर कम होने लगा तो सरकार और अधिकारी बेपरवाह हो गए, आशंकित दूसरी लहर के खिलाफ सावधानी बरतने या उसकी रोकथाम के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए, जबकि चेतावनियां मिली थीं कि दूसरी लहर पहली की तुलना में अधिक विनाशकारी हो सकती हैं। संक्रमित व्यक्तियों के परीक्षण, पता लगाने, आइसोलेशन और इलाज की रणनीति को 2020 के अंत तक तेजी से भुला दिया गया था। परिणाम यह हुआ कि आम लोगों ने कोविड प्रोटोकॉल का पालन करना बंद कर दिया। इस बीच वायरस म्यूटेट होकर कहीं ज्यादा खतरनाक हो गया । सुपर-स्प्रेडर गतिविधियों का आयोजन की छूट दे दी गई। मसलन, भारी भीड़ जुटाऊ रैलियां और करोड़ों की भीड़ वाले धार्मिक आयोजन किए गए। इससे संक्रमण जंगल में आग की तरह फैला।

योजना का अभाव:  कोविड की दो लहरों के बीच, सरकार के पास पर्याप्त वक्त था कि मेडिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करे, बेड की संख्या बढ़ाए और ऑक्सीजन, वेंटिलेटर और दवाइयों का प्रबंध करे। वही वक्त था कि देश भर के लिए टीकों की खरीद और वितरण व्यवस्था बनाई जाए, ताकि अधिक से अधिक संख्या में देशवासियों को वायरस से सुरक्षित रखा जा सके। अवसर और वक्त सब बर्बाद कर दिया गया। सभी मोर्चों पर, सरकार नाकाम हुई। पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट को 12 सदस्यीय राष्ट्रीय टास्क फोर्स का गठन करना पड़ा, ताकि कोविड से जूझ रहे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए ऑक्सीजन के वितरण का ‘‘वैज्ञानिक, तर्कसंगत और न्यायसंगत आधार’’ पर ‘‘कारगर और पारदर्शी’’ प्रबंध किया जा सके।

वैक्सीनेशन में देरी: देश दुनिया में 60 प्रतिशत टीकों का उत्पादक होने पर गर्व करता है। देश में दो कंपनियों को कोविड-19 के टीके का उत्पादन करने की मंजूरी दी गई, लेकिन उनके उत्पादन और आपूर्ति को बढ़ाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। न ही सरकार ने विदेशी टीकों के आयात की अनुमति दी और न ही उपलब्ध उत्पादन क्षमताओं का विस्तार करने में मदद की। इसके लिए सरकार ने दूसरी भारतीय कंपनियों को लाइसेंस देकर वैक्सीन उत्पादन करने की भी अनुमति नहीं दी। भारत ने ब्रिटेन की तुलना में करीब दो महीने बाद वैक्सीनेशन शुरू किया। और उस वक्त भी केवल स्वास्थ्य कार्यकर्ता और फ्रंटलाइन वर्कर्स को ही वैक्सीन लगाने का काम शुरू हुआ। अप्रैल तक केवल 37 फीसदी स्वास्थ्यकर्मियों और भारत की 1.34 अरब आबादी में केवल 1.3 फासदी का ही पूरी तरह से वैक्सीनेशन हो पाया था। यही नहीं, केवल 8 फीसदी लोगों को वैक्सीन की एक डोज लग पाई थी।

वैक्सीनेशन गड़बड़झाला: सरकार आशंकित दूसरी लहर की तैयारी में निर्माताओं को वैक्सीन का ऑर्डर वक्त रहते देने में चूक गई। अप्रैल के तीसरे सप्ताह में जाकर राज्य सरकारों और सरकारी और निजी अस्पतालों को वैक्सीन लेने की अनुमति दी गई। सरकार ने अजीब ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ की वजह से  विदेशों से आयात कर टीकों का आपातकालीन उपयोग की मंजूरी देने से भी इनकार कर दिया। नतीजा यह हुआ कि अप्रैल के मध्य तक भारत में टीकों की देशव्यापी कमी हो गई (अब जाकर सरकार ने अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, रूस और जापान से वैक्सीन के आयात की मंजूरी दी है)। इस बनाई गई किल्लत के कारण, केंद्र सरकार राज्यों को उचित और समान रूप से वैक्सीन वितरित करने की अपनी जिम्मेदारी में बुरी तरह नाकाम हुई। लिहाजा, कोरोना संक्रमण से सबसे अधिक परेशान राज्यों में (जैसे विपक्ष शासित महाराष्ट्र और केरल) वैक्सीन की कमी हो गई।

गलत प्राथमिकताएं: सरकार ने महामारी के दौर में फिजूलखर्जी का नमूना सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के रूप में पेश किया है। 20 हजार करोड़ रुपये के इस अनावश्यक प्रोजेक्ट को जानबूझकर लॉकडाउन के बीच ‘‘जरूरी गतिविधि’’ घोषित कर चलाया जा रहा है। इस प्रोजेक्ट में प्रधानमंत्री के लिए एक नया भव्य आवास भी शामिल है, जबकि वास्तव में ऑक्सीजन की आपूर्ति जैसी आवश्यक सेवाएं लगभग ठप हो चुकी थीं। इस बीच देश में अधिकांश लोगों के वैक्सीनेशन का वित्तीय बोझ राज्यों पर डाल दिया गया है। नई नीति में राज्यों को केंद्र सरकार की तुलना में वैक्सीन खरीदने के लिए ज्यादा पैसे चुकाने होंगे। सरकार ने देश की बीमार अर्थव्यवस्था को व्यापक वित्तीय प्रोत्साहन नहीं दिया और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों का समर्थन करने के लिए सीधे नकद हस्तांतरण भी नहीं किया। बड़े पैमाने पर लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। लोकतंत्र में सरकार की निष्ठुरता और संवेदनशून्यता अकल्पनीय है। सरकार की बेरुखी और नाकारापन की चारो ओर वाजिब निंदा हो रही है।

तानाशाही और कट्टरता: जैसे-जैसे सरकार के खिलाफ जनता का गुस्सा बढ़ रहा है, कई राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टी और भाजपा सरकारों ने गुस्से को दबाने के लिए तेजी से अलोकतांत्रिक कदम उठाए हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ऑक्सीजन की कमी की शिकायत करने वालों पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज करने का आदेश दिया है। विदेश मंत्रालय ने अपने राजनयिकों को सरकार की विफलताओं को सामने लाने वाले आलोचकों को रोकने के लिए हर संभव कदम उठाने के निर्देश दिए हैं। यही नहीं, सोशल मीडिया पर आलोचनाओं को दबाने के लिए फेसबुक और ट्विटर से लोगों के पोस्ट भी डिलीट कराए जा रहे हैं। कर्नाटक के भाजपा विधायकों ने सांप्रदायिक कट्टरता का जो नमूना पेश किया और बेंगलूरू दक्षिण के सांसद तेजस्वी सूर्या ने अपनी ही पार्टी के अधीन नगर निगम की विफलताओं को दिखाने  के लिए वॉर रूम में मुस्लिम समुदाय के कर्मचारियों के नाम पेश किए, वह इस संकट में सरकार के सबसे घृणित चेहरे को पेश करता है।

भारत का वैक्सीन मैत्री यानी निर्यात का कार्यक्रम केवल हठयोग था। सरकार देशवासियों को टीका मुहैया कराने में असमर्थ थी तो निर्यात जैसे कदम से बचा जा सकता था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनवरी में दावोस में कोविड-19 पर जीत की घोषणा कर दी जबकि उन्होंने दूसरी लहर के खतरे को देखते हुए ऑक्सीजन, टीके, या अन्य आवश्यक संसाधनों को उपलब्ध कराने के लिए कुछ भी नहीं किया । ऐसे में दुनिया भर में भारत की प्रतिष्ठा को बड़ा झटका लगेगा। आज मुर्दाघर, श्मशान, कब्रिस्तान में जगह नहीं बची है और अभी भी संक्रमण के "पीक" का कोई संकेत नहीं दिख रहा हैं। जिन मंत्रियों ने यह ऐलान किया था कि ‘‘जिस तरह से प्रधानमंत्री ने महामारी से निपटा है, उसकी पूरी दुनिया प्रशंसा कर रही है।’’ उन्हें इसके लिए निराश देशावासियों से माफी मांगनी चाहिए।

(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद हैं )

 

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