संबंध में जबरदस्ती कहीं नहीं होना चाहिए। न लिव इन में न अरेंज मैरिज में। शादी जैसे रिश्ते में शारीरिक जबरदस्ती की कोई जगह नहीं है। लेकिन यदि कोई महिला पति पर आरोप लगाती है, तो वह व्यक्ति अपनी बेगुनाही साबित कैसे करेगा। कमरे में दो व्यक्ति के बीच क्या हुआ यह तो वही बता सकता है। यदि वैवाहिक बलात्कार का कोई कानून बन गया, तो जल्द ही एक ऐसा समय आएगा कि लड़के शादी के नाम से दूर भागने लगेंगे। जो लोग अमेरिका और इंग्लैंड की बात करते हैं, वे लोग खुद परिवार टूटने से परेशान हैं। जबरदस्ती केवल शारीरिक क्यों, ऐसी जबरदस्ती, तो वैचारिक मतभेद में भी नहीं होनी चाहिए। मौखिक हिंसा भी उतनी ही खराब है, जितनी शारीरिक। अगर यह कानून बनता है, तो संभव है, पुरुषों के लिए एक सामान्य पारिवारिक जीवन जीना संभव न हो क्योंकि मन में हर पल यह भय रहेगा कि अगर उसने पत्नी की किसी इच्छा से इंकार कर दिया तो उस पर बलात्कार का आरोप न लगा दे। पूर्व में ही कई ऐसे पुरुष हैं जो डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट में झूठे आरोपों के चलते सजा काट रहे हैं। हर समाज की अपनी निहित विशेषताएं होती हैं। जैसे गांवों में लड़कियां जींस पहनने लगी हैं, मोटरसाइकिल चलाती हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वहां के लोगों ने अपनी पुरातन मानसिकता को छोड़ दिया है। बल्कि यह कल्चर लैक यानी सांस्कृतिक विलंबन है जहां बाहरी आवरण को सहजता से स्वीकार कर लिया जाता है परंतु भीतरी सोच को बदलना सहज नहीं होता। अब तक ऐसी कोई थ्योरी या रिसर्च नहीं आई, जो पुख्ता दावा कर सके कि आदमी हमेशा कलप्रिट और महिलाएं हमेशा इनोसेंट होती हैं। औरतों को बेचारी के तौर पर दिखाया गया और इस कारण आदमी के अधिकार पर हमने देखना ही बंद कर दिया।
भारत में पहले से ही डोमेस्टिक वायलेंस प्रोटेक्शन कानून है। उसी के तहत मैरिटल रेप के केस दर्ज हों। अगर हर कानून, जो विदेश में है, उसे भारत में लाने की कोशिश की जाएगी, तो भारत बिखर जाएगा। दूसरे देशों में तो पुरुषों को भी डोमेस्टिक वायलेंस में संरक्षण प्राप्त है। पर क्या ऐसा भारत में है? देश की हर महिला को सशक्त होना चाहिए परंतु इसका मतलब यह नहीं कि उनके हाथों में कानून की एक ऐसी तलवार थमा दी जाए कि जब चाहे-जैसा चाहे वह इसका इस्तेमाल कर सकें! कानूनों का निर्माण कभी आंखों पर पट्टी बांधकर नहीं किया जा सकता। उसके लिए रिसर्च की आवश्यकता होती है और शोध के नाम पर स्वयं को सिर्फ शहरी महिलाओं तक सीमित कर देना भारत के साथ अन्याय होगा, क्योंकि यहां की एक बड़ी संख्या आज भी गांवों में रहती है। उन तक पहुंचना, उनके विचारों को जानना और उसके बाद कानून का निर्माण करना ही समझदारी का कदम होगा।