पिछले दिनों कथित स्त्री विमर्श में एक शब्द की चर्चा सुनी और वह चर्चा इतनी बढ़ गई कि इसे लेकर तमाम और विमर्श आरंभ हो गए। फिर भी यह तमाम विमर्श अधूरे प्रतीत होते हैं, क्योंकि इनमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण आयाम को चर्चा में लिया ही नहीं गया। चर्चा थी ऑर्गेज्म पर। ऑर्गेज्म यानी यौन चरम सुख।
चरम सुख का आधार, परस्पर विश्वास एवं प्रेम है। जब भी हम चरम सुख की बात करते हैं, तो उसका आधार परस्पर विश्वास एवं प्रेम ही है। उस प्रेम को पूर्ण करते हैं, कामदेव। जिस देश में कामक्रीड़ा के लिए भी ऐसे देव की अवधारणा हो, जिन्होंने ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक को दास बना रखा है, उस देश में, जब “ऑर्गेज्म नहीं मिलता” का रोना रोया जाए, तो हंसने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता। भर्तृहरि अपने शृंगार शतक में कामदेव की महिमा का वर्णन करते हुए लिखते हैं, “शम्भु स्वयम्भु हरयो हरिक्षेणानाम्, येनाक्रियन्तसततं गृहकर्मदासा:, वाचामगोचर चरित्र विचित्रताय, तस्मै नमो भगवते कुसुमायुधाय।।” यानी जिसने अपने कर्तव्य से शिव, ब्रह्मा और विष्णु को भी स्त्रियों के प्रेम के कारण गृहकार्य करने के लिए दास बना रखा है और जो, विचित्र चरित्र में परम चतुर और विलक्षण है, जिसकी चतुरता का वर्णन नहीं हो सकता, ऐसे भगवान कामदेव को बारंबार नमस्कार है।
स्त्री और पुरुष को कामदेव ही परस्पर बांधकर रखते हैं। यह ‘काम’ की ही शक्ति है, जो स्त्री और पुरुष को परस्पर एक-दूसरे की संपूरक बनाती है और इसके कारण ही वे पूर्ण होते हैं। कामदेव भी विवाहित हैं अत: सुख का चरम अंतत: विवाह के साथ कहीं न कहीं जुड़ा हुआ है। भारत में या कहें हिंदुओं में सबसे बड़े प्रेमी भी धार्मिक ग्रंथों में ही मिलते हैं, जो पत्नी के लिए रो सकते हैं, तांडव रच सकते हैं, समाधि में जा सकते हैं और पत्नी का पुनर्जन्म ही उन्हें पुन: गृहस्थ जीवन में लाने में सक्षम होता है। यदि मात्र दैहिक सुख ही जीवन में अनिवार्य होता, तो महादेव कभी भी युगों-युगों तक अपनी सती के पार्वती रूप की प्रतीक्षा में तपस्यारत न रहते!
यदि दैहिक सुख ही यौन सुख की चरमता होती, तो भगवान राम कभी पत्नी सीता को उस रावण से बचाने के लिए न जाते, जो उस समय विश्व में सर्वाधिक बलशाली शासक था। दोनों ही कहानियां अब तक स्त्री एवं पुरुष के मध्य परस्पर दांपत्य का आधार थीं। यही कारण है कि हिंदुओं में हर वर को राम या विष्णु एवं वधु को लक्ष्मी या सीता का रूप माना जाता है, देव मानकर प्रणाम किया जाता है। यह समस्त अवधारणाएं मात्र इसलिए नहीं थीं कि इन्हें याद कराया जाए बल्कि इसलिए थीं कि यही प्रेम, यही विश्वास जीवन में बना रहे।
लोपामुद्रा की अद्भुत कथा
महर्षि अगस्त्य को अपनी पत्नी लोपामुद्रा से एक संतान की अपेक्षा थी, लोपामुद्रा राजकुमारी थीं। पति के घर आकर उन्होंने जीवन तो वही अपना लिया, परन्तु यौनेच्छा उनकी कुछ अलग थी। उन्होंने अपने पति से कहा, “हे महर्षि, यदि आप मुझसे संतान के लिए संबंध बनाना चाहते हैं तो आपको मुझे उत्तम गहनों एवं वस्त्रों से सुशोभित करना ही होगा। मुझे ज्ञात है कि आपने मुझसे इसी कारण विवाह किया है कि आप योग्य संतान के पिता बन सकें। परंतु मेरे हृदय में आपके लिए जो प्रीति है, उसे भी आपको ही सफल करना है। हे महर्षि, मैं अपने पिता के महल में सुंदर शैया पर शयन करती थी, मुझे रति क्रीड़ा के लिए उसी प्रकार की शय्या की चाह है।”
इस कथा का वर्णन ऋग्वेद और महाभारत दोनों में है। इस कथा को पढ़ कर ही पता चलता है कि ऑर्गेज्म को मात्र दैहिक कहकर समेट देना कहीं न कहीं पिछड़ापन है। यौन सुख की चरमता उस पैकेज के साथ आती है, जो हमारे लोक में है। जिसका वर्णन हमारे वेदों से लेकर तमाम ग्रंथों में है। स्त्री की संतुष्टि को ही गृहस्थी का मूल बताया गया है। ऐसे में एक कंडोम कंपनी के किसी सर्वे के आधार पर यह धारणा बना लेना कि भारत में औरतों को चरम सुख नहीं मिलता, औरत को बाजार की ओर धकेलने के प्रयास से ज्यादा कुछ नहीं है।
आयुर्वेद में वर्णन
दांपत्य प्रेम को वर्ष 1906 के लगभग आयुर्वेद वैद्य यशोदा देवी ने बहुत ही सुंदरता से संबंधों में चरम सुख के लिए आध्यात्म को भी उतना ही आवश्यक बताया था। उनकी पुस्तक ‘विवाह विज्ञान’ में लखा है कि बहुतेरे पुरुष विवाह होने से पहले ही अनेक प्रकार से वीर्य का नाश कर बैठते हैं। विवाह होने तक जो बचे भी रह जाते हैं, वे भी विवाह होते ही अधिक और अनियम रतिक्रिया कर शक्तिहीन, रोगी, निर्बल और दुर्बल हो जाते हैं तथा स्त्रियों को भी रोगी बना देते हैं। इस प्रकार पति-पत्नी रोगी होकर दुखमय जीवन व्यतीत करते हैं।
इसका एक कारण आमदनी कम, खर्च अधिक भी है। इसके कारण ऐश्वर्य और सुख की स्त्रियों की अभिलाषा पूरी नहीं होती, इसलिए सैकड़ा में से निन्यानवे दंपती ऐसे मिलेंगे, जिनमें “उन्मुक्त” प्रेम नहीं होता, उसी कारण गृहस्थी का सुख जैसा चाहिए वैसा नहीं मिलता, बल्कि दांपत्य जीवन दुखमय हो जाता है। भारत में दुर्भाग्य है कि यहां यौन सुख चरमता की लोक अवधारणा को पिछड़ा बता संतुष्टि की उस अवधारणा को जोड़ दिया गया, जो बाजार आधारित थी। वर्ष 1906 तक यशोदा देवी इस बात को लेकर स्पष्ट थीं कि कब यौन इच्छा अधिक होती है, कब संतान उत्पत्ति के लिए जाना चाहिए, महिलाओं के मासिक के अनुसार उसकी यौनेच्छा कब और कितनी होती है, आदि, आदि। इसी पर यौन सुख की चरमता अर्थात ऑर्गेज्म आधारित है।
क्या चरम सुख उस अनिश्चय की स्थिति में पाया जा सकता है, जो आज की कथित सिंगल मांओं के सामने रहती है? क्या चरम सुख विभिन्न प्रकार के यौन रोगों के साए तले पाया जा सकता है? संभवतः नहीं! इसी बात को आयुर्वेद से लेकर लोक में समझाने का प्रयास किया गया है, जो आज के कथित आधुनिक समाज में पिछड़े कहलाए जाते हैं। कामसूत्र तक न जाते हुए मात्र यशोदा देवी के विवाह विज्ञान को ही पढ़ने पर ज्ञात होता है कि सुख की चरमता दरअसल हमारे खानपान पर भी निर्भर करती है। वह स्त्रियों के प्रकार बताती हैं और किस प्रकार की स्त्रियों का यौन स्वभाव किस प्रकार का होता है। किस प्रकार की स्त्रियों को किस प्रकार से स्खलित किया जाए, यह तक आयुर्वेद में है।
इसे लेकर पूर्व में एक कंडोम कंपनी के एक सर्वे के एक बिंदु के आधार पर चर्चा की गई और कंडोम कंपनी ने, तो कई अविवाहित अभिनेत्रियों से यह कहलवाया कि औरतों को आखिर चरम सुख क्यों नहीं मिलना चाहिए? चरम सुख मिलना चाहिए, अवश्य मिलना मिलना,यह अनिवार्य है। परंतु समाज की एक वास्तविकता होती है, हर सुख परस्पर एक-दूसरे के आयामों पर आश्रित होते हैं। यौन चरम सुख ठेले पर मिलने वाला बर्गर नहीं कि खरीदा, खाया और संतुष्ट हो गए। बर्गर से भूख मिटती है संतुष्टि नहीं मिलती। पेट की संतुष्टि के लिए भी माहौल चाहिए होता है। संतुष्टि खरीदी नहीं जा सकती।
यह माहौल कैसे बनता है? यह माहौल आखिर है क्या? सब कुछ इसी प्रश्न पर निर्भर करता है। क्या ऑर्गेज्म या चरम यौन सुख इतना सरल विषय है, जिसे कंडोम बेचने वाली कंपनी के आधार पर समझा जा सकता है या फिर यह उससे भी कहीं अधिक विशाल है? भारत जैसे देश में जहां एक विशिष्ट संस्कृति रही है, विशेष जीवनशैली रही है, जिसमें अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की अवधारणा हैं, साथ ही ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाण्ाप्रस्थ एवं संन्यास जीवन के चार आश्रम हैं, तो ऐसे में कैसे इन आयामों को ध्यान में रखे बिना चरम की बात की जा सकती है।
सुख का चरम, जिसे बर्गर की तरह केवल भूख मिटाने के लिए बेचा जा रहा है, अंतत: वह देह और मन दोनों को विकृत करने की प्रक्रिया है। जो इस सुख को प्रदान कर सकता है, वह है अध्यात्म और उचित नियम। लेकिन उसे तो हमने पिछड़ा बना दिया है। अध्यात्म नहीं होगा, तो देह संबंधों में विकृति आने के साथ-साथ संतुष्टि में कमी आएगी ही।
आजकल सुख का चरम यानी ऑर्गेज्म क्यों नहीं मिल रहा है, क्या ऑर्गेज्म का रोना रोने वालों को इसकी इतनी जानकारी है? ऑर्गेज्म का शोर तो मचा लोगे, लेकिन प्रेम करने की कला कहां से आएगी? मूल प्रश्न बस इतना ही है।
(महानायक शिवाजी, डेस्डीमोना मरती नहीं और नेहा की लव स्टोरी पुस्तक की लेखिका। विचार निजी हैं।)