आखिर आम चुनावों के ऐन महीने भर बाद 23 जून को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती ने आगे से सभी चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान करके समाजवादी पार्टी (सपा) से कुट्टी एक मायने में सार्वजनिक कर दी। मायावती ने यह आरोप मढ़कर भी खटास की खाई कुछ चौड़ी की कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव मुसलमानों को अधिक टिकट देने से हिचक रहे थे। माया ने अपनी आगे की राजनीति के संकेत अपने भाई आनंद कुमार और भतीजे आकाश को पार्टी पद देकर भी दिया, जबकि पार्टी ऐलान कर चुकी थी कि भाई-भतीजावाद को तरजीह नहीं दी जाएगी। इसके पहले वे 3 जून को उपचुनावों में अकेले लड़ने का ऐलान कर चुकी हैं।
मायावती के आरोपों पर सपा के नेताओं से कोई खास प्रतिक्रिया अभी तक न आना भी राजनैतिक हलकों में चर्चा का विषय बना हुआ है। शायद सपा नेता अपने अध्यक्ष अखिलेश यादव की टिप्पणियों का इंतजार कर रहे हैं। लेकिन यह तो तय है कि अब सपा को अपनी अगली रणनीति तय करनी होगी।
हालांकि इस साल 12 जनवरी को लखनऊ के एक पांच सितारा होटल में सपा-बसपा गठबंधन का ऐलान किया गया था, तो प्रदेश की राजनीति में पिछड़े-दलित-मुसलमान के नए समीकरण के उभरने का अंदाजा लगाया जा रहा था। सामाजिक न्याय के बैनर तले इस गठबंधन को उत्तर प्रदेश में अजेय माना जा रहा था और कहा जा रहा था कि यह भाजपा पर भारी पड़ेगा। लेकिन हुआ, इसके ठीक विपरीत। गठबंधन में दरार पड़ने के लिए वोटों के ट्रांसफर न होने से लेकर कई वजहें सामने आई हैं। लेकिन सबसे अहम वजह यह है कि चुनाव नतीजों के बाद सपा और बसपा में जिस तालमेल की दरकार थी, वह बरकरार नहीं रह पाई।
सूबे में लोकसभा चुनाव के परिणाम सभी के लिए अप्रत्याशित थे। 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह 2019 में भी सपा की पांच सीटें बरकरार रहीं, लेकिन अपने गढ़ में परिवार की तीन सीटें हारना सपा के लिए बड़ा नुकसान था। जब नतीजों पर मंथन शुरू हुआ, तो दबी जुबान आरोप-प्रत्यारोप भी शुरू हुए। सपा मुखिया अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपनी-अपनी पार्टी की समीक्षा की।
लेकिन मायावती के हालिया रवैए से साफ है कि अब दोनों पार्टियों के बीच खाई चौड़ी हो गई है। मायावती पहले भी कई बार मुसलमानों को लुभाकर दलित-मुस्लिम समीकरण बनाने की कोशिश करती रही हैं। लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा और रालोद गठबंधन 78 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें 10 मुस्लिम उम्मीदवार थे। इन 10 में बसपा से छह और सपा से चार प्रत्याशी उतारे गए थे। दोनों ही दलों के तीन-तीन उम्मीदवार चुनाव जीतकर संसद पहुंचने में सफल रहे। 2019 के आम चुनाव में पहली बार ऐसा नहीं हुआ था, जब बसपा ने सपा से अधिक मुसलमानों को टिकट दिया। बसपा ने 2014 में 19, 2009 में 14 और 2004 में 20 मुस्लिमों पर दांव लगाया था, जबकि सपा ने क्रमशः 14, 11 और 12 मुसलमानों को टिकट दिया था। मायावती की अखिलेश के साथ गठजोड़ की सबसे बड़ी वजह मुस्लिम वोटर ही थे, जिन पर सपा की मजबूत पकड़ समझी जाती थी।
मायावती ने हाल में कहा कि सपा परिवार की तीन सीटें हारने के बाद उन्होंने अखिलेश यादव को सहानुभूति में फोन किया। लेकिन नतीजे आने के बाद अखिलेश यादव ने एक बार भी फोन नहीं किया। बसपा के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं कि बहनजी को यह बात अच्छी नहीं लगी। यह दीगर बात थी कि किसका वोट ट्रांसफर हुआ, किसका नहीं और किसने क्या किया? जबकि सपा के वरिष्ठ नेता इससे सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं कि वे खुद ही आरोप लगा रही हैं और खुद ही जवाब दे रही हैं। सपा के राष्ट्रीय सचिव राजेंद्र चौधरी कहते हैं कि हम संविधान का सम्मान करते हैं। सपा धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक व्यवस्था के सिद्धांतों पर चलती है। सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव कहती हैं कि मायावती का रुख जानकर बहुत दुख हुआ।
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डा. महेंद्र नाथ पांडे कहते हैं कि भाजपा ने गठबंधन पर पहले ही कहा था कि यह महज सत्ता पाने के लिए गठबंधन है। इतनी जल्दी बिखराव से यह साबित हो गया। अखिलेश यादव मायावती की चतुर चाल में फंस गए।
बहरहाल, सपा-बसपा गठबंधन खत्म होने से भाजपा को अपनी जमीन और मजबूत करने में मदद मिल सकती है। लेकिन राजनीति में कल क्या होगा, यह कोई भी भरोसे से नहीं कह सकता।