मोहनदास कर्मचंद गांधी (2 अक्टूबर, 1869-30 जनवरी, 1948) और डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891-6 दिसंबर, 1956) ऐसी युग प्रवर्त्तक शख्सियत हैं, जिनकी विलक्षण प्रतिभा विश्व फलक पर आच्छादित हुई।
गांधी जी डॉ. आंबेडकर से 22 साल बड़े थे। दोनों के बीच वैचारिक टकराहट होने के बावजूद मनभेद नहीं पनपा। दोनों विभूतियों के जीवनकाल पर दृष्टि डालें, तो दिन-रात का अंतर दिखाई पड़ता है। गांधी जी के पिता करमचंद गांधी पोरबंदर रियासत के प्रधानमंत्री और राजकोट राजघराने के दीवान रहे। बालक गांधी मोटरगाड़ी में बैठ कर राजकोट के अल्फ्रेड हाइस्कूल में पढ़ने जाते। अध्यापकों के बीच राजपरिवार के बालकों जैसा उनका वैभव था। वहीं डॉ. आंबेडकर के पिता सकपाल अंग्रेजी सेना में सूबेदार मेजर के पद पर रहे और रिटायर होकर महाराष्ट्र के सतारा नाम के कस्बे में आ बसे थे। परिवार के पास रहने के लिए छोटा-सा घर था। एक बकरी भी खाट के पाये से वहीं बंधती। सकपाल बालक भीमराव की अंगुली पकड़कर सतारा की गलियों से गुजरते हुए स्कूल में भरती कराने ले गये थे। चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के तहत महार जाति में जन्मा बालक अछूत था। दकियानूसी अध्यापकों ने उसे वहां बैठने को जगह दी, जहां दूसरे छात्र अपने जूते उतारते थे। अध्यापक उसकी स्लेट पर सही या गलत का निशान पैर के अंगूठे से लगाते। अस्पृश्यता के इन घावों ने बालमन को आहत कर छोड़ा था।
इसके बरअक्स गांधी को बाइस साल की उम्र में पहली बार भेदभाव का झटका लगा, जब वे 1893 में एक केस के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका गए थे। गोरों के साथ एक ही कंपार्टमेन्ट में यात्रा करते समय उन्हें बेकद्री से डिब्बे से नीचे उतार दिया गया था। राजसी ठाठ-बाट में पले गांधी जी के लिए यह ऐसा सदमा था, जिसने उनके अन्तर्मन पर गहरी छाप छोड़ी।
भारत में छुआछूत और जातीय भेदभाव की स्थिति कितनी भयावह है, इसी घटना से उन्हें इसका एहसास हुआ। 1917 के नील आंदोलन के दौरान उनका बिहार के चंपारण जाना हुआ। युवा डॉ. राजेन्द्र प्रसाद उस वक्त राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय थे। गांधी जी उनके पटना स्थित निवास पर पहुंचे। घर के बाहर बैठा नौकर लकुटी और लंगोटी वाले फटेहाल गांधी जी को अछूत समझ बैठा और उनको अंदर नहीं जाने दिया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के आने तक वे किसी दीन की तरह बाहर ही बैठे रहे। अस्पृश्यता कितनी घृणित और अमानवीय है, उनके मनोमस्तिष्क में यहीं से अस्पृश्यता निवारण का विचार पनपा था। इसके विपरीत डॉ. आंबेडकर को जन्म से ही जात-पांत और छुआछूत का दंश झेलना पड़ा था। जो ताजिंदगी चुभता रहा।
गांधी जी और डॉ. आंबेडकर की पहली मुलाकात या यूं कहें कि पहली वैचारिक टकराहट 7 सितंबर, 1931 को लंदन में इंग्लैंड के प्रधानमंत्री रेमजे मैक्नाल्ड की अध्यक्षता में आयोजित दूसरी गोलमेज कॉन्फ्रेंस के दौरान हुई।
डॉ. आंबेडकर ने वहां कहा था, ‘‘प्रधानमंत्री और मित्रों, अछूतों की समस्या मैंने पहली कॉन्फ्रेंस में ही रख दी थी। अब तो कमेटी को मात्र इस बात पर गौर करना है कि प्रत्येक स्थान में अछूतों का कम से कम कितना प्रतिनिधित्व रहेगा।’’ डॉ. आंबेडकर के इस बेबाक वक्तव्य से गांधी जी बेहद बेचैन हो उठे। हालांकि कॉन्फ्रेंस बिना किसी निर्णय के समाप्त हो गई।
ध्येय के धनी डॉ. आंबेडकर अछूतों के लिए प्रतिनिधित्व का निर्धारण कराने हेतु 26 मई, 1932 को फिर लंदन गए और वहां पर ब्रिटिश कैबिनेट के सभी महत्वपूर्ण व्यक्तियों से मिले और भारत के अछूतों की नारकीय स्थिति से उन्हें अवगत कराया। परिणाम स्वरूप ब्रिटिश सरकार ने 20 अगस्त, 1932 को कम्यूनल अवॉर्ड की घोषणा की। उन दिनों गांधी जी पुणे की यरवदा जेल में राजनीतिक बंदी थे। इस खबर से वे इतने क्षुब्ध हुए कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री के नाम अविलंब विरोध-पत्र लिखा, ‘‘अछूतों को पृथक प्रतिनिधित्व दिए जाने के विरोध में मैं 20 सितंबर से आमरण अनशन कर रहा हूं।’’
आमरण अनशन के चलते गांधी जी का स्वास्थ्य निरंतर गिरता गया। डॉ. आंबेडकर आखिरकार समझौते के लिए तैयार हुए। 24 सितंबर, 1932 को हुआ वह समझौता भारतीय इतिहास में पूना पैक्ट के नाम से दर्ज है। पैक्ट के तहत विभिन्न प्रांतों में अछूतों के लिए सीटों का आरक्षण हो गया और उनके लिए 148 सीटें आरक्षित कर दी गई। लेकिन डॉ. आंबेडकर की डबल वोट की शर्त अस्वीकार रही। इतने बड़े मतभेदों के बावजूद गांधी पर डॉ. आंबेडकर की विलक्षण विद्ववता का प्रभाव मन-मस्तिष्क में सदैव बना रहा।
नानकचंद रत्तू डॉ. आंबेडकर के 17 वर्ष तक निजी सचिव रहे। वे अपनी पुस्तक डॉ. आंबेडकर के जीवन के अंतिम कुछ वर्ष में उद्धृत करते हैं, ‘‘स्वतंत्र राष्ट्र के पहले कानून मंत्री के रूप में उनका मंत्रिमंडल में प्रवेश और उसके बाद ‘प्रारूप समिति’ का सभापति चुना जाना भारत के इतिहास में, दलित वर्ग और बौद्धों के इतिहास में एक मील का पत्थर है। जबकि जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल चाहते थे कि इस काम के लिए अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संविधान विशेषज्ञ सर आइवोर जेनिंग्स को आमंत्रित किया जाए। उन्होंने कई एशियाई देशों के संविधानों का प्रारूप तैयार किया था। महात्मा गांधी ने सुझाव दिया कि किसी विदेशी के बजाय भारत के ही डॉ. आंबेडकर को यह जिम्मेदारी सौंपी जाए, जो असाधारण कानून तथा संविधान विशेषज्ञ हैं। इस तरह स्वतंत्र भारत के संविधान का प्रारूप तैयार करने की जिम्मेदारी डॉ. भीमराव आंबेडकर को मिली।