शब्द और विचार यायावर होते हैं। एक जगह से दूसरी जगह विचरण करना और अपने बीज बोना ही उनकी प्रवृत्ति है। ये अस्त-व्यस्त, अप्रत्याशित और सीमाविहीन जिप्सी की तरह होते हैं। लेकिन इन्हीं गुणों के कारण इनका महत्व भी है। दरअसल, शब्द मानवता को परिभाषित करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में हाल की कुछ घटनाओं को देखें तो इनका असर गहरा जान पड़ता है। दिल्ली पुलिस ने पर्यावरण कार्यकर्ता 21 वर्षीय दिशा रवि को बेंगलुरू से 13 फरवरी को गिरफ्तार किया। पुलिस ने उनके खिलाफ राजद्रोह और हिंसा के लिए लोगों को उकसाने के आरोप लगाए हैं। इसके लिए गूगल डॉक्यूमेंट टूलकिट के इस्तेमाल का आरोप है। पुलिस के मुताबिक दिशा ने स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग के टूलकिट को एडिट किया और दूसरे लोगों को भेजा था। दिशा के बाद दिल्ली पुलिस, मुंबई की वकील निकिता जैकब और उनके सहयोगी और पेशे से इंजीनियर शांतनु मुलुक की भी तलाश कर रही थी। हालांकि इन दोनों को बॉम्बे हाइकोर्ट से अग्रिम जमानत मिल गई है।
दरअसल ग्रेटा, दिशा और उनके सहयोगी तीन महीने से जारी किसान आंदोलन के समर्थक हैं। पॉप स्टार रिहाना, अमेरिका की उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस की भांजी मीना हैरिस और अभिनेत्री मिया खलीफा ने भी किसानों के पक्ष में बोला है। 26 जनवरी को लाल किले की घटना अभी तक हमारी यादों में ताजा है। क्या आपको इन सबके पीछे कोई अस्थिर करने वाली बात लगी? क्या उभरते भारत के खिलाफ वास्तव में कोई वैश्विक साजिश है? इन सबके पीछे कौन है? वे कहां से आते हैं? जवाब दो शब्दों में है- सोशल मीडिया।
हमारी बातों में कुछ सत्य होता है तो कुछ असत्य और अफवाह भी। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचते-पहुंचते शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। सोशल मीडिया की इस दोधारी खासियत की वजह से इसे हम सदी का डायनामाइट भी कह सकते हैं, बल्कि बारूद। अब तो टूलकिट भी जैसे कोई विस्फोटक बन गया है।
सोशल मीडिया हमारे समय का नया युद्ध क्षेत्र ही नहीं, यह अपने आप में एक हथियार भी है। इसकी तुलना बारूद से करते हैं। चीन ने अनायास बारूद का ईजाद किया था। शुरू में तो समारोहों में आतिशबाजी के लिए इसका इस्तेमाल होता था, लेकिन जल्दी ही मंगोलों ने इसकी मदद से पूरे यूरेशिया को अपने कब्जे में ले लिया था। लेकिन क्या वे बारूद पर एकाधिकार रख सके? नहीं। मंगोलियाई साम्राज्य के विस्तार के साथ बारूद भी दूसरे इलाकों तक पहुंचा। विश्व युद्ध में इसके अप्रत्याशित नतीजे देखने को मिले। बारूद की तरह सोशल मीडिया को भी कुछ समय के लिए ही नियंत्रित रखा जा सकता है, हमेशा के लिए नहीं।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज में स्कूल ऑफ सोशल साइंस के प्रो. नरेंद्र पाणि बताते हैं कि कैसे सोशल मीडिया ने सकारात्मक असर के बजाय ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया है। पाणि के अनुसार, “पहले सामाजिक नियम विचारधारा पर आधारित होते थे। अब ऐसा नहीं है। सोशल मीडिया पर वास्तविक बहस की कोई जगह नहीं है। फिर भी यह कुल मिलाकर ज्यादा आजादी देती है।” वे कहते हैं, “सोशल मीडिया पर हर व्यक्ति अपने विचार रख सकता है। यह एक तरह से लोकतंत्र को बढ़ावा देता है।” सवाल है कि पश्चिम के मशहूर लोगों को भारत के किसान आंदोलन से क्या लेनादेना? देखा जाए तो यह सवाल उतना ही हास्यास्पद है जितना एक रिटायर्ड बल्लेबाज से भारत की संप्रभुता की कल्पना करना। बता दें, सचिन तेंडुलकर को ट्विटर पर तब काफी नाराजगी झेलनी पड़ी, जब एक किसान के बेटे ने उनसे सवाल किया कि क्या आप हमारे पिता के पक्ष में कभी कोई ट्वीट करेंगे?
सच तो यह है कि असहमति अब पूरे विश्व में है। लेकिन यह बात उस सरकार और पार्टी के लिए सहज नहीं जो अभी तक सूचना तंत्र पर अपना नियंत्रण रखती आई है। पारंपरिक और सोशल मीडिया दोनों पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का नियंत्रण है। अब जब इस खेल के खिलाड़ी उसके पक्ष में नहीं हैं तो वह किस आधार पर खेल को अवैध करार दे सकती है? डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा चुने जाने का समर्थन करने वाली सरकार बाहरी हस्तक्षेप की शिकायत किस आधार पर कर सकती है?
फिर भी कुछ तल्खी नजर आई। ट्विटर ने किसान आंदोलन का समर्थन करने वाले 257 हैंडल को सस्पेंड कर दिया। उसने कहा कि इसके लिए अधिकारियों की तरफ से कानूनी तौर पर आग्रह किया गया था। इसमें सबसे विवादास्पद वह हैस्टैग था जिसमें जातिसंहार (जेनोसाइड) का जिक्र था। पुलिस बैरिकेडिंग वाले हाइवे पर कीलें लगाना, युवा पत्रकारों को गिरफ्तार करना, इंटरनेट बंद करना या किसी किसान की मौत, यह सब कोई अच्छी तस्वीर पेश नहीं करते। लेकिन यह जातिसंहार भी नहीं है। इस शब्द का इस्तेमाल कुछ लोगों ने निश्चय ही किया, लेकिन यह भी स्पष्ट नहीं है कि उन सभी 257 ने किया जिनके टि्वटर हैंडल सस्पेंड किए गए थे। वर्ना उनके खिलाफ सबूत होते।
किसान आंदोलन का मुद्दा तीन कृषि कानूनों तक सीमित था। पंजाब से शुरू हुआ आंदोलन न सिर्फ दूसरे इलाकों में फैला, बल्कि इसने पुराने घावों को भी कुरेद दिया। आंदोलन को अवैध करार देने वाले खालिस्तान और आतंकवाद जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगे। इस प्रकरण में सरकार के कदमों से यह संदेश उभरा कि भारत साइबरस्पेस में अपने नागरिकों को मुक्त रूप से विचरण करने की इजाजत नहीं दे सकता है। क्या किसी नैतिक बिंदु पर वैश्विक सेलिब्रिटी की बातों पर हमें नाराज होना चाहिए? क्या हमें इन सेलिब्रिटी को अपने फ्रेम से बाहर कर देना चाहिए? अगर ऐसा है तो यही सलूक कंगना रनौत, परेश रावल, अनुपम खेर, गौतम गंभीर, मोहनलाल जैसे सरकार समर्थक आवाजों के साथ भी होना चाहिए। या फिर सभी सेलिब्रिटी को अमिताभ बच्चन की तरह ‘कोई विचार न होना ही विचार है’ का रवैया अपनाना चाहिए?
महज 21 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि की गिरफ्तारी के खिलाफ बेंगलूरू सहित कई शहरों में लोग सड़कों पर उतरे
टि्वटर, फेसबुक, व्हाट्सऐप और दर्जनों दूसरे प्लेटफॉर्म का सामना हम रोजाना करते हैं। स्पष्ट है कि न्याय और लोकतंत्र की बात भी इन्हीं माध्यमों के जरिए होगी। लेकिन ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को बहाना बनाकर नफरत और नाराजगी फैलाई गई। इसमें नया अध्याय गृह मंत्रालय के साइबर क्राइम सेल ने जोड़ दिया। उसने ‘सिटीजन वॉलंटियर्स’ नाम से नई योजना शुरू करने की बात कही है। इसमें लोग तथाकथित गैर-कानूनी गतिविधियों के बारे में सरकार को शिकायत भेज सकते हैं। याद रखिए, गोहत्या विरोधी कानून के बाद ऐसे ही सिटीजन वॉलंटियर्स ने न सिर्फ शिकायतें कीं, बल्कि खुद जज बन गए और मौके पर ही सजा देने लग गए।
तस्वीर वास्तव में धुंधली है। इस बीच, 257 ट्विटर एकाउंट के बाद और 1200 एकाउंट की पहचान की गई है। आरोप है कि ये नफरत और गुस्सा भड़का रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के वकील संजय हेगड़े कहते हैं कि सोशल मीडिया पर नफरत और गुस्से का हमेशा इजहार किया जाता रहा है। सवाल है कि गुस्से की नैतिक सीमा क्या हो सकती है और यह नैतिकता कौन तय करेगा?
2019 में हेगड़े का ट्विटर हैंडल भी ब्लॉक किया गया था। एक बार नाजी विरोधी तस्वीर पोस्ट करने के लिए और दूसरी बार हिंदी कवि गोरख पांडे की कविता साझा करने के लिए। वे कहते हैं, “समस्या तब होती है जब अभिव्यक्ति की आजादी कंपनियों का विषय बन जाती है। ये लोगों की बातों के नए चौकीदार और विचारों के नए बाजार बन गए हैं। इनके लिए एक स्वतंत्र रेगुलेटर की जरूरत है, लेकिन वह कोई सरकारी संस्था न हो।”
एडवोकेसी ग्रुप कट्स इंटरनेशनल के संस्थापक और महासचिव प्रदीप एस. मेहता कहते हैं, “सोशल मीडिया व्यापक विनाश का हथियार बनता जा रहा है। आप इसे न देख सकते हैं न महसूस कर सकते हैं। लेकिन अगर ठीक से इस्तेमाल किया जाए तो यह सृजनात्मक चर्चा का माध्यम भी बन सकता है।” दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. सतीश देशपांडे का मानना है कि भारत में सोशल मीडिया के मूल्य समय और जगह के साथ बदल जाते हैं। उदाहरण के लिए 2002 के गुजरात दंगों को मीडिया में ‘मोबाइल फोन दंगा’ बताया गया। उसके बाद हत्या और लिंचिंग जैसी घटनाओं को सोशल मीडिया पर लाइव दिखाया जाने लगा है। कश्मीर में इसका मतलब कुछ और है। वहां सरकार की मर्जी से सिग्नल कमजोर कर दिए जाते हैं।