पश्चिम बंगाल में 2021 के विधानसभा चुनावों से पहले तृणमूल कांग्रेस पार्टी ने अपनी ऑनलाइन कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी करने के लिए भर्तियां शुरू की थीं। पश्चिम बंगाल परंपरागत रूप से काडर आधारित और बूथस्तरीय कार्यकर्ताओं की राजनीति के लिए जाना जाता है। ऐसे में नियमित भर्ती की जगह ऑनलाइन काम के लिए भर्ती का खयाल नया था। इसके पीछे मुख्य विपक्षी के तौर पर भारतीय जनता पार्टी का उदय था। सूचना तो 2020 में भी आई थी कि पार्टी ने भाजपा के ऑनलाइन युद्ध को टक्कर देने के लिए 50,000 से ज्यादा ऑनलाइन कार्यकर्ताओं की भर्ती की थी।
भाजपा देश के शुरुआती राष्ट्रीय दलों में थी जिसने नए डिजिटल मंचों की ताकत को पहचाना और उसका दोहन किया। भाजपा की आइटी सेल में ऑनलाइन लड़ाकों की एक ऐसी समर्पित सेना है जो चौबीसों घंटे पार्टी और उसके नेताओं की छवि को चमकाने में जुटे रहते हैं। पहले आए कुछ साक्षात्कारों में भाजपा की आइटी सेल के कुछ वरिष्ठ सदस्यों ने दावा किया था कि प्रौद्योगिकी की पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों को धड़ल्ले से आइटी सेल में भर्ती किया गया था। पार्टी की ऑनलाइन मौजूदगी का बड़ा हिस्सा ‘स्वैच्छिक’ है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2017 में ही कहा था कि 2019 का चुनाव ‘मोबाइल फोन पर लड़ा जाएगा’। 2018 में त्रिपुरा में चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा ने प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों द्वारा डेटा विश्लेषण के आधार पर तैयार किए गए विधानसभाओं की प्रोफाइल की मदद से कथित तौर पर प्रमुख चुनावी मुद्दों की पहचान की थी। 2022 के विधानसभा चुनावों में कई दलों को चुनाव आयोग के दिशानिर्देशों के तहत डिजिटल रैली करते देखा गया था।
उत्तर प्रदेश में भाजपा इस काम के लिए अपने आभासी सैनिकों के भरोसे थी। उसकी आइटी सेल के सदस्य चौबीसों घंटे सोशल मीडिया पर नजर रखते थे और एसएमएस के माध्यम से स्थानीय मतदाताओं के फोन की निगरानी करते थे। इसके अलावा वे कामयाब ऑनलाइन अभियानों से लोगों की धारणा बनाने का काम भी कर रहे थे।
अपनी किताब ‘आइ ऐम ए ट्रोल: इनसाइड द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ द बीजेपीज डिजिटल आर्मी’ में पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी ने विस्तार से भाजपा के डिजिटल अंग का वर्णन किया है। वे लिखती हैं कि कई कार्यकर्ता तो वाकई स्वैच्छिक ही थे लेकिन कुछ को तो ट्रोल करने के लिए पैसे भी मिलते थे। राजनीतिक मंशा से किए गए ऑनलाइन ट्रोल को खुले में एक भीड़ के हमले से तुलना करते हुए स्वाति लिखती हैं कि ऐसे ट्रोल हमलों का उद्देश्य केवल बड़े पैमाने पर कुसूचना को फैलाना नहीं होता बल्कि साम्प्रदायिक नफरत पैदा करना भी होता है। भाजपा की यह ऑनलाइन सेना चुनावी राजनीति से काफी आगे जा चुकी है। आरोप है कि अब वह असहमत कलाकारों, फिल्मकारों और लेखकों को धमकी देने का काम भी करती है।
ऑनलाइन राजनीति का दौर
भाजपा की तर्ज पर देर से सही आज ज्यादातर राजनीतिक दलों ने ऑनलाइन काडर का महत्व समझ लिया है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की टीएमसी ने जहां ‘युवा योद्धा’ के नाम से ऐसी सेना खड़ी करनी शुरू की है और स्थानीय नेतृत्व की तलाश के उद्देश्य से उन्हें ऑनलाइन समूहों में जोड़ने का काम किया है, वहीं आम आदमी पार्टी भी समर्पित कार्यकर्ताओं की मदद से सोशल मीिडया का इस्तेमाल कर रही है। इसकी टीम भाजपा के जैसी ही है जिसमें शामिल लोग सीधे पार्टी का हिस्सा नहीं हैं लेकिन पार्टी के विचार और नजरिये से इत्तेेफाक रखते हैं। भाजपा की आइटी सेल समाज को बांटने वाले धार्मिक कंटेंट और हिंदुत्व के ईंधन से समाज को सुलगाती रहती है, तो आम आदमी पार्टी इसके लिए भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान और लोकप्रिय मुद्दों का सहारा लेती है ताकि सोशल मीडिया पर अनुयायियों की सेना बढ़ाई जा सके।
पंजाब में आम आदमी पार्टी ने सोशल मीडिया के कामयाब दोहन से ही ‘हिंदुओं के भय’ और ‘सिक्ख कट्टरता’ के आरोपों से लड़ने का काम किया। पार्टी ने पंजाबी वेब चैनलों का भी इसके लिए अपने हक में प्रयोग किया। इन सब के बीच कांग्रेस पार्टी अब भी सोशल मीडिया की छोटी खिलाड़ी बनी हुई है। मार्च 2022 में कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी ने कहा था कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल ‘लोकतंत्र को कब्जाने’ के लिए किया जा रहा है। पार्टी ने कुछ सोशल मीडिया अभियान बेशक चलाए, जैसे यूट्यूब कुकिंग शो में राहुल गांधी की प्रतिभागिता का प्रचार, लेकिन पार्टी डिजिटल मानस को अब भी पकड़ने में नाकाम है। पार्टी के ट्विटर हैंडल को फॉलो करने वालों की संख्या ही उसकी विफलता को दिखाती है। भाजपा का ट्विटर पर राष्ट्रीय हैंडल 1.8 करोड़ लोग फॉलो करते हैं जबकि कांग्रेस के पास केवल 80 लाख फॉलोवर हैं। आम आदमी पार्टी 60 लाख फॉलोवर के साथ उसके पीछे चल रही है।
ट्विटर पर डोनाल्ड ट्रम्प के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया में दूसरे सबसे ज्यादा फॉलो किए जाने वाले नेता हैं। वे सोशल मीडिया पर ऐसे आम लोगों को फॉलो करते हैं जो भाजपा के मुखर समर्थक हैं। इनमें से कई लोगों पर नफरत और कुसूचनाएं फैलाने का आरोप पहले लग चुका है। फेसबुक ने अप्रैल 2019 में ऐसे 700 पेज हटा दिए जो कथित रूप से कांग्रेस और भाजपा के समर्थक चला रहे थे। इन पेजों से गलत सूचना और आपत्तिजनक सामग्री प्रसारित की जा रही थी।
ऑनलाइन कार्यकर्ताओं द्वारा फर्जी सूचनाएं फैलाया जाना अब सोशल मीडिया पर आम बात हो चली है। वॉट्सएप जैसे संदेश प्रसारक अप्लिकेशन का इस्तेमाल भी अब राजनीतिक दल खुलकर प्रचार और दुष्प्रचार में कर रहे हैं। ऑनलाइन माध्यमों पर आज जितनी गंदगी है वह बेहद खतरनाक है, हालांकि लोकतंत्र को मजबूत करने की संभावनाएं भी उसमें हैं लेकिन राजनीतिक दलों की इस पक्ष में कोई दिलचस्पी नहीं दिखती है, जो भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है।