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बॉलीवुडः तवायफी तीर-तुक्के

मौलिकता या असलियत से दूर के नाते के लिए चर्चित बॉलीवुड के पटकथा लेखक परदे पर तवायफों के चित्रण में कमाई के लालच में न जाने कैसी-कैसी निचाइयों तक उतरते रहे
मुगल-ए-आजम में मधुबाला

तीखे आलोचकों की लानत-मलामत के बावजूद, बॉलीवुड को शुरुआत से ही सड़कछाप अश्लीलताओं से कभी गुरेज नहीं हुआ। हिंदी फिल्मोद्योग के पास 70 मिली मीटर के परदे अपने चरित्रों को उतारने के लिए बेहद थोड़े कल-पुर्जे होते हैं और इसका श्रेय जाता है उस जुनूनी तंग नजरिए को, जिसे काला-सफेद के अलावा कोई और रंग दिखता ही नहीं। 

साल-दर-साल व्यावसायिक फिल्मों में तवायफों, सेक्स वर्कर या कॉल गर्ल का रूप-रंग बहुत कुछ नहीं बदला है। ज्यादातर नामी-गिरामी फिल्म निर्माता तो असलियत की छुअन से भी बिदकते रहे हैं। आखिर उनकी आत्मा ‘‘सच्चाई से दूर, खजाने के करीब’’ जो बसती है। यकीनन मनगढ़ंत फंतासी गढ़ने में बॉलीवुड का कोई सानी नहीं है।

अपवाद की तरह, गुरुदत्त और श्याम बेनेगल जैसे कुछेक साहसी फिल्मकारों ने दुनिया के सबसे पुराने पेशे को अलग संवेदनशीलता के साथ पेश करके हिंदी सिनेमा की रूलबुक से अलग रवैया अपनाया। लेकिन उनके ज्यादातर हमपेशा मूल पाठ से छेड़छाड़ अपशकुनी मानते हैं, जिसके मसालों ने युगों से दर्शकों को लुभाया है।

मीना कुमारी

चाहे आप उन्हें फूहड़ता के पहरुए कहिए, मगर बॉलीवुड को उसे दोहराने में मजा आता है। कभी देवदास तो कभी गंगूबाई काठियावाड़ी की शक्ल में, बिलकुल जाने-पहचाने नजारों में, जहां अच्छा और वाहियात दोनों हमजोली की तरह चलते हैं। लेकिन सवाल है कि ये फिल्में असलियत से अगर इतनी दूर हैं तो वे कैसे हिट हो जाती हैं? वह कौन-सी बात है, जिससे सिनेप्रेमियों की पीढ़ियां तवायफों पर बनी बॉलीवुड की हर दूसरी फिल्म देखते हुए बड़ी हुई और आज तक देख रही है। जरा इस पर गौर कीजिए:

गंगा की तरह पवित्र

हर तवायफ सेक्स वर्कर नहीं होती। उनमें से कुछ लता मंगेशकर या आशा भोंसले की आवाज में गीत गाते हुए भी अपनी आजीविका चलाती हैं। गोपी कृष्ण या बिरजू महाराज या कमल मास्टर या सरोज खान के साथ वे दर्शकों के सामने कुशल शास्त्रीय नृत्यांगना के रूप में सामने आती हैं। उनके कोठे उनके नृत्य के पारखी के वाह-वाह से गूंजते हैं। लेकिन वहां कुछ छिछोरे भी आते हैं, जिनकी आंखों में हवस और हाथों में नोटों के बंडल और शराब की बोतल होती है। लेकिन फिल्मी तवायफ उन्हें दो टूक बता देती है कि वह अपनी “कला” बेचती है, जिस्म नहीं। यह भी कि एक बदनाम जगह में रहने के बाद भी अपने नाम की तरह ही वह गंगा नदी की तरह पवित्र है।

आलीशान कोठे की मालकिन

यदि फिल्मी जमींदारों के पास रहने के लिए बड़ी कोठियां रही हैं, तो तवायफ के लिए एक विशाल कोठा हमेशा उसका ठिकाना रहा है। उसके आलीशान महल से उनकी रईसी झलकती है। उनके अधिकतर नियमित कदरदान कुलीन और अभिजात वर्ग से आते हैं जिनके सामने वे झाड़फानूस के नीचे सफेद संगेमरमर के फर्श पर नंगे पैर मुजरा करती हैं।

सोने का दिल, हीरे की अंगूठी

उमराव जान में रेखा

चाहे वह कोठा हो या पूरी तरह देह व्यापार में लिप्त वेश्यालय, यहां रहने वाली तवायफ का दिल सोने का ही रहता है। उसकी उंगली में हमेशा एक हीरे की अंगूठी रहती है, जिसे फिल्म के नाटकीय अंत के लिए वह कभी भी खा सकती है। पूरी फिल्म में वह अपने परेशान प्रेमी के असंख्य दुख धैर्य के साथ सुनती है। किसी शराबी और नाकारा प्रेमी को रोने के लिए अपना कंधा देती है और उसका दिल टूटने के बाद उसके जख्मों पर मरहम भी लगाती है। यहां तक कि वो उसका मनोबल बढ़ाने के लिए सलाम-ए-इश्क जैसे गीत पर नाचती है, लेकिन अंततः उसके सारे अच्छे व्यवहार और काम पर आखिर में तब पानी पड़ जाता है, जब उसे अपने इज्जतदार प्रेमी के लिए अपने प्यार की कीमत चुकानी पड़ती है, क्योंकि समाज के डर से उसका कायर आशिक उसे कभी अपना नहीं पाता।

ये क्या जगह है दोस्तों...

जब दिखावटी कोठा पर्याप्त नहीं होता है, तो नितिन देसाई और बिजोन दासगुप्ता जैसे लोगों की प्रतिभा काम आती है। बॉलीवुड वास्तव में उनके जैसे प्रतिभाशाली कला निर्देशकों का ऋणी है, जो फिल्म सिटी के अंदर हूबहू वेश्यालय बना देते हैं। वास्तविक लोकेशन पर जाकर कोई फिल्मकार आखिर क्यों अपना समय और अपनी ऊर्जा खराब करे, जबकि वो कुछ करोड़ रुपये खर्च कर मुंबई के ही किसी उपनगरीय क्षेत्र में कमाठीपुरा का पूरा सेट बनवा सकता है? वैसे भी, उन्हें पता होता है कि उनकी कोई भी फिल्म ऑस्कर में नहीं जाने वाली! 

बीहड़ के आशिक

बड़ी-बड़ी मूंछ के साथ चंबल के बीहड़ में घोड़ों पर घूमने वाले आखिरकार पास के कोठे पर अपनी पसंदीदा तवायफ की बाहों में ही आराम पाते हैं। कंधे पर बंदूक टांगे-टांगे दिन भर भटकने के बाद कदमों की लय-ताल वाले मुजरे का ये लोग आनंद लेते हैं। लेकिन अफसोस, यह आनंद हमेशा पुलिस के साथ आमने-सामने की गोलाबारी के साथ खत्म होता है, जो उन्हें भिंड और मुरैना के जंगलों में फिर लौटने को मजबूर करता है।

बदनाम बस्ती की मालकिन

वेश्यालय में दो प्रकार की मालकिन होती हैं। एक जो मां की तरह होती है। ये अपने संरक्षण में आई सभी लड़कियों के लिए अभिभावक की तरह होती है और उनकी सुरक्षा के लिए लड़ती है। दूसरी वह महिला, जिसे चंद रुपयों की खातिर किसी किशोरी को अधेड़ ग्राहक को सौंपने पर भी कोई पछतावा नहीं होता। स्वतंत्र भारत के आधे से अधिक सिनेप्रेमियों ने वेश्यावृत्ति पर बनी हिंदी फिल्मों के संवाद के माध्यम से ही नथ उतारने जैसी अभिव्यक्ति का अर्थ सीखा है। कभी-कभी, वेश्यालय खतरनाक किन्नर भी चलाते हैं, जो उनके कोठे में रहने वालों के साथ-साथ सिनेमाघरों में दर्शकों में भी भय और घृणा पैदा करते हैं।

बंद गली में आखिरी ठिकाना

आखिर ऐसी नेकदिल औरतें कोठे में कैसे पहुंच जाती हैं? घर से अपनी मां की आलमारी से सारे जेवर लेकर भागने के बाद कुछ को उनके प्रेमी धोखा दे देते हैं। कुछ को चलती ट्रेन में छोड़ दिया जाता है और वे एक लालची दलाल के हाथ में पड़ जाती हैं। कुछ अपनी आंखों में सपने लिए बड़े शहरों में आती हैं लेकिन उनके सपने का अंत राजनेताओं और पुलिस द्वारा संरक्षित बदनाम गली में होता है।

इश्क में कुर्बानी

“पुष्पा, आइ हेट टीयर्स!”, “आपके पांव देखे, इन्हें जमीन पर मत रखिएगा, मैले हो जाएंगे।” देवदास (1955) और मुगल-ए-आजम (1960) से लेकर पाकीजा (1972) और अमर प्रेम (1972) तक बॉलीवुड की सबसे ज्यादा रोमांटिक पंक्तियां तवायफों के लिए ही बोली गई हैं। यह अलग बात है कि उनमें से किसी का भी अंत सुखद नहीं हुआ। फिल्म दर फिल्म ये वेश्याएं अपने कुलीन ग्राहकों के साथ रहीं, लेकिन शायद ही बॉलीवुड का कोई लेखक रील लाइफ में इन्हें सुखी जीवन व्यतीत करते दिखाने का साहस जुटा पाया। नई सहस्राब्दी में, बॉलीवुड पटकथा लेखकों ने ट्रांसजेंडरों के लिए तो दरवाजे खोल दिए हैं लेकिन सेक्स वर्कर अब भी अपना हक पाने की प्रतीक्षा कर रही हैं!

मेकअप ही पहचान है!

चमेली में करीना कपूर

चाहे कपड़े हों या मेकअप... एक वेश्या को बिल्कुल वैसा ही दिखना चाहिए जैसा बॉलीवुड उसे देखना चाहता है। हिंदी फिल्म देखने वाला किसी वेश्या की स्क्रीन पर पहचान केवल उनके कपड़े देख कर कर सकता है। बीड़ी फूंकती, पान चबाती महिला, जो बिना बात के गाली देती रहती है। केवल अनुराग कश्यप की फिल्मों ने कभी-कभी यह साबित करने की कोशिश की है कि अच्छे परिवारों की घरेलू लड़कियों में भी ऐसे गुण हैं लेकिन उनके चाल और चरित्र पर उससे कोई कलंक नहीं लगता।

किराए की कोख

प्रिटी जिंटा

हाल ही में बॉलीवुड से जुड़े कई बड़े नामों के निजी जीवन में सरोगेसी अपनाने के कारण इस पर चर्चा हो रही है, लेकिन पहले स्क्रीन पर केवल वेश्या ही पैसे के बदले अपना कोख किराए पर देने को तैयार रहती थी। दूसरी दुल्हन (1983) में शबाना आजमी के चरित्र से लेकर चोरी चोरी चुपके चुपके (2001) में प्रीति जिंटा तक, फिल्मी वेश्याओं ने अक्सर निस्संतान जोड़ों के लिए यह बीड़ा उठाया है। हालांकि कृति सेनन ने मिमी (2021) के जरिये इस ट्रेंड से इतर यह बताने की कोशिश की है कि आज के दौर में अब यह बहुत सामान्य बात है।

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