हरसिमरत कौर के केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफे ने लॉकडाउन के दौरान कृषि सुधार के लिए लाए गए अध्यादेशों के मुद्दों को नए मुकाम पर पहुंचा दिया है। अकाली दल की सांसद हरसिमरत का यह कदम संकेत है कि पंजाब और हरियाणा में यह कितना बड़ा मुद्दा बन गया है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के किसान भी इस आंदोलन में कूद पड़े हैं। इस आंदोलन के मध्य में तीन अध्यादेश हैं- कृषि उपज, व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश 2020, मूल्य आश्वासन पर किसान समझौता (अधिकार प्रदान करना और सुरक्षा) और कृषि सेवा अध्यादेश 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश 2020। इनमें किसानों के लिए बाजार खोलने की बात कही गई है। संसद के मौजूदा मानसून सत्र में इन अध्यादेशों की जगह विधायक लाए जाने हैं। अब संभव है कि सरकार अपने इस निर्णय पर पुनर्विचार करे।
कृषि सचिव संजय अग्रवाल ने कहा, “ये अध्यादेश किसानों को अपनी उपज बेचने का बेहतर विकल्प देते हैं। उद्योगों से जुड़ी ज्यादा कीमत वाली उपज के मामले में अध्यादेश खासकर छोटे और सीमांत किसानों को यह विकल्प देता है कि वे ज्यादा कमाई के लिए उद्योगों के साथ गठजोड़ कर सकें।” आंदोलनकारी किसानों का आरोप है कि एपीएमसी मंडी की सुरक्षा के अभाव में छोटे किसानों के साथ धोखा किया जा रहा है। इस पर अग्रवाल का कहना है कि इस व्यवस्था में किसानों को समय पर भुगतान सुनिश्चित करने का उचित प्रावधान है।
कृषि मार्केटिंग राज्य का विषय है। केंद्र सरकार ने यह क्लॉज जोड़कर इसमें हस्तक्षेप किया है कि राज्यों के बीच होने वाला व्यापार समवर्ती (केंद्र और राज्य दोनों) विषय होगा। इस अध्यादेश के बाद एक राज्य का व्यक्ति दूसरे राज्य के किसान से उसकी उपज खरीद सकता है। पूर्ववर्ती योजना आयोग के सदस्य रहे प्रो. अभिजीत सेन कहते हैं, “इस व्यापार से कुछ किसानों को लाभ मिल सकता है, लेकिन बड़ी संख्या में छोटे किसानों को इसका फायदा नहीं मिलेगा। अध्यादेश के मुताबिक इस तरह की खरीद पर कोई शुल्क नहीं लगेगा, जबकि ज्यादातर राज्यों के एपीएमसी कानून इस सिद्धांत पर बने हैं कि लेन-देन का एक हिस्सा मंडी को मिलेगा। मंडियां राज्य सरकार को राजस्व जुटाने में मदद करेंगी। यह बात उन उपजों पर भी लागू होता है, जिन्हें मंडी में नहीं लाया जाता है।”
सेन के अनुसार नई व्यवस्था तीन स्तर पर लोगों को प्रभावित करेगी। पहली, राज्य सरकार और नेता। ज्यादातर नेता मंडी से मिलने वाले राजस्व को राजनीतिक वर्ग के लिए फंड के रूप में देखते हैं। मंडी राज्य का राजस्व तो बढ़ाती ही हैं, अक्सर उन्हें अपने फंड को कृषि उपज की बेहतर हैंडलिंग और भंडारण इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधारने पर खर्च करने के लिए भी कहा जाता है। अभी सभी मंडियों की प्रबंधन समितियों या बोर्ड में राज्य सरकार के प्रतिनिधि होते हैं।
प्रभावित होने वाले दूसरे लोग वे हैं जो मंडियों में काम करते हैं। इनमें आढ़तिये और दलाल भी शामिल हैं। तीसरा वर्ग किसानों, खासकर छोटे किसानों का है, जो अल्पावधि के कर्ज के लिए आढ़तियों पर निर्भर होते हैं। यहां तक कि कई राज्यों में सरकारी खरीद में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर निर्भर रहने वाले बड़े किसान भी नई व्यवस्था से प्रभावित हुए हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इकाई भारतीय किसान संघ (बीकेएस) ने भी संसद में विधेयक पारित किए जाने से पहले संशोधनों की मांग की है। बीकेएस के उपाध्यक्ष प्रभाकर केलकर कहते हैं कि अध्यादेश जारी होने के बाद एक समस्या यह सामने आई है कि व्यापारी कहीं से भी सामान खरीद कर कहीं भी बेच सकते हैं, लेकिन इन सौदों में भुगतान की कोई गारंटी नहीं है। केलकर के अनुसार, “पहले व्यापारी एपीएमसी मंडी के दायरे में ही काम करते थे। वहां उन्हें रजिस्ट्रेशन कराना पड़ता था और नीलामी में अपनी कीमत भी बतानी पड़ती थी। खरीद की मात्रा बताने के साथ उन्हें मंडी अधिकारियों के पास रकम भी जमा करानी पड़ती थी ताकि किसानों का हित सुरक्षित रहे। इसका मतलब यह था कि जरूरत के वक्त मंडी अधिकारी किसानों के पक्ष में फैसला कर सकते थे। अब किसानों के लिए यह सुरक्षा खत्म हो गई है।”
वे कहते हैं कि बहुत से किसान अपंजीकृत व्यापारियों के झांसे में आकर धोखे के शिकार हो रहे हैं। पहले तो ये व्यापारी छोटे किसानों को यह कहकर भगा देते हैं कि थोड़ा माल खरीदने में उन्हें फायदा नहीं। बाद में जब लंबे समय तक इंतजार करने के बाद किसान हतोत्साहित हो जाता है, तो वे कम कीमत पर उससे वही उपज खरीद लेते हैं।
केलकर कहते हैं, “अध्यादेश में भुगतान में देरी करने वाले व्यापारियों के लिए सजा का तो प्रावधान है, लेकिन सवाल यह है कि लेन-देन का उचित रिकॉर्ड नहीं होने पर किसान कानून की मदद कैसे ले सकते हैं? किसी अपंजीकृत व्यापारी को कैसे ढूंढा जा सकता है?” इन अध्यादेशों के खिलाफ मध्य प्रदेश की सभी मंडियां तीन दिन तक बंद रहीं। इसके अलावा प्रदेश कांग्रेस के समर्थन से 200 किलोमीटर लंबा मार्च भी निकाला गया।
भूमि बचाओ संघर्ष समिति के प्रवक्ता डॉ. शमशेर सिंह इस अध्यादेश की आलोचना करते हुए कहते हैं कि यह धीमे जहर की तरह है। इनसे एपीएमसी की भूमिका धीरे-धीरे कम हो जाएगी जो किसानों के लिए मौत के वारंट की तरह होगा। सर छोटूराम को हरियाणा और पंजाब में लागू हुए मॉडल एपीएमसी एक्ट का वास्तुकार बताते हुए सिंह कहते हैं, “मौजूदा माहौल में अगर प्राइवेट मंडियों के जरिए निजी क्षेत्र और कंपनियों का बोलबाला बढ़ा तो ज्यादातर किसान शोषण के शिकार होने लगेंगे। अभी हरियाणा में अनाज की जितनी उपज होती है, उसका मुश्किल से 15 फीसदी और दालों का कुछ हिस्सा सरकारी एजेंसियां खरीदती हैं। इसमें उन छोटे किसानों से हुई खरीद भी शामिल है जो अपनी उपज पास-पड़ोस के बड़े किसानों को बेच देते हैं। इसलिए फायदा सिर्फ एमएसपी पर उपज बेचने वाले किसानों को ही मिलता है।
सरकार करीब दो दर्जन फसलों के लिए एमएसपी तय करती है। अनेक किसानों का कहना है कि निजी क्षेत्र के खरीदारों के लिए भी यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वे एमएसपी से कम पर कोई उपज न खरीदें। इसका उल्लंघन करने वाले को सजा मिले। हालांकि यह अध्यादेश में उल्लेखित उस सिद्धांत के खिलाफ होगा जिसके अनुसार उपज का मूल्य बाजार तय करेगा। उत्तर प्रदेश के एक किसान नेता सुधीर पंवार कहते हैं कि उदारीकरण के बाद भंडारण के नियम और आयात-निर्यात की नीतियां आसान होने से निजी निवेश बढ़ा। नए अध्यादेशों ने सारा नियंत्रण निजी क्षेत्र के व्यापारियों और कंपनियों के हाथों में सौंप दिया है। उत्तर प्रदेश योजना आयोग के सदस्य रहे पंवार कहते हैं, “इन अध्यादेशों से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए पूरी उत्पादन शृंखला निजी क्षेत्र के हाथों में चली जाएगी। मौजूदा मंडी व्यवस्था को हटाने से व्यापार का भी वही हश्र होगा। भंडारण सीमा खत्म करने और आयात-निर्यात नीति के जरिए हस्तक्षेप से आखिरकार कृषि जिंस बाजारों का भी डिरेगुलेशन हो जाएगा।”
कर्नाटक किसान आयोग के पूर्व चेयरमैन टी.एन. प्रकाश राज्य सरकारों के अधिकारों पर चोट से काफी खफा हैं। वे कहते हैं, “अध्यादेशों के जरिए इन तथाकथित कृषि सुधारों की क्या जरूरत थी, वह भी कोविड-19 महामारी के दौरान। इस तरह ठेके पर खेती या एपीएमसी एक्ट जैसे मुद्दों पर संसद के भीतर या बाहर कहीं भी बहस नहीं हो सकी। यह अध्यादेश और प्रस्तावित विधेयक स्पष्ट रूप से कृषि मार्केटिंग में राज्य सरकारों के अधिकारों पर चोट के समान है। केंद्र को स्वयं को सिर्फ आवश्यक वस्तु कानून तक सीमित रखना चाहिए था।”
कृषि अर्थशास्त्रियों का भी मानना है कि सभी पक्षों के साथ व्यापक चर्चा होनी चाहिए थी, खासकर किसानों के साथ। कंसोर्टियम ऑफ इंडियन फार्मर्स एसोसिएशन (सीआइएफए) के सलाहकार चेंगल रेड्डी कहते हैं, “कृषि सुधार की बारीकियों को गहराई से अध्ययन करने की जरूरत है। इसमें यह प्रावधान होना चाहिए कि जरूरत होने पर संशोधन किया जा सके।” नीति आयोग के जरिए उन्होंने प्रधानमंत्री के सामने जो बिंदु रखे हैं, उनमें एक यह भी है।
रेड्डी मंडियों के कामकाज में बदलाव को कुछ हद तक सही मानते हैं। हालांकि उन्हें भी लगता है कि एपीएमसी मंडियों का प्रबंधन नौकरशाहों और नेताओं के बजाय चुने हुए किसान प्रतिनिधियों के हाथों में होना चाहिए। इससे भूमि पुत्रों को उनकी उपज की बेहतर कीमत मिल सकेगी और समय पर भुगतान हो मिल सकेगा।
विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि छोटे किसानों के हितों की रक्षा के लिए सभी व्यापारियों का उचित रिकॉर्ड रखा जाए। उन्हें लगता है कि अध्यादेशों में किसान हितों की रक्षा के लिए किए गए प्रावधान नाकाफी हैं। किसान आंदोलन तो बस ट्रेलर है। नई व्यवस्था की खामियों का वास्तविक असर तब सामने आएगा जब कटाई के बाद फसलें बड़ी मात्रा में मंडियों में पहुंचेंगी।