बिहार के विगत 14 वर्ष का चुनावी इतिहास भाजपा और जद-यू को सुकून देने वाला लगता है। जबसे नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए ने नवंबर 2005 के विधानसभा चुनाव में 15 वर्षों से सत्ता में काबिज लालू प्रसाद यादव की राजद को शिकस्त दी, यह गठबंधन राज्य में अजेय रहा है। इस अवधि में लगभग चार वर्षों तक नीतीश और भाजपा की चुनावी राहें जुदा जरूर हुईं, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि जब-जब चुनावी रण में वे साथ लड़े हैं, उन्होंने पराजय का मुंह नहीं देखा है। 2019 के आम चुनाव में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह गठबंधन अपने इस रिकॉर्ड को बरकरार रखने में सफल हो पाएगा।
एनडीए नेतृत्व को इस बाबत कोई संशय नहीं है। गठबंधन के कुछ नेता तो राज्य की सभी 40 लोकसभा क्षेत्रों में अपनी विजय पताका लहराने का दावा करते हैं। पिछले दिनों कुछ चुनावी सर्वेक्षणों में भी एनडीए की विशाल जीत का पूर्वानुमान जताया गया है लेकिन अब, जब प्रथम चरण के चुनावों में महज कुछ ही दिन शेष हैं, बिहार की जमीनी हकीकत क्या है? क्या नीतीश के नेतृत्व में एनडीए एक बार फिर दो-तिहाई बहुमत के साथ विजयश्री हासिल करने की ओर अग्रसर है या राजद की अगुआई में बना महागठबंधन उनकी आशाओं और आकांक्षाओं पर तुषारापात करेगा?
पांच वर्ष पूर्व हुए आम चुनाव में एनडीए ने 40 में से 31 सीटों पर जीत हासिल की थी, वह भी तब जब जद-यू ने इस गठबंधन से अलग स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा था। एनडीए अब यही समझता है कि नीतीश की ‘घर वापसी’ से गठबंधन अपराजेय हो गया है। एनडीए के पूर्व के दो घटक उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा और जीतन मांझी की हम-सेक्युलर-हालांकि अब महागठबंधन का हिस्सा हैं, लेकिन राम विलास पासवान की लोजपा अभी भी भाजपा-जद-यू के साथ मजबूती से खड़ी है। आखिर एनडीए के आत्मविश्वास का मूल कारण क्या है?
दरअसल, 2014 के संसदीय चुनावों में बिहार में भाजपा को 29.4, जद-यू को 15.8 और लोजपा को 6.4 प्रतिशत मत, अर्थात कुल 51.6 प्रतिशत वोट मिले थे, जो अन्य दलों के कुल मतों से अधिक थे। संभवतः इन्हीं तीन दलों के इकट्ठे चुनाव लड़ने के कारण एनडीए के नेता आश्वस्त हैं कि इस बार भी उनके विजय का मार्ग प्रशस्त है। लेकिन पांच वर्षों में स्थितियां बदली हैं। पिछले चुनाव में एनडीए की जीत का मूल कारण ‘मोदी लहर’ थी, पर इस बार चुनाव में मोदी सरकार की नीतियों और निर्णयों की कड़ी परीक्षा है।
बिहार में इस बार अधिकतर सीटों पर एनडीए और महागठबंधन की सीधी टक्कर है। इस चुनाव में राजद ने अपने नेतृत्व में कांग्रेस, रालोसपा, हम-सेक्युलर और मुकेश साहनी की नवगठित विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) के साथ मिलकर एक मजबूत महागठबंधन को मूर्त रूप देने में अंततोगत्वा सफलता पाई है, लेकिन घटक दलों के बीच समन्वय के घोर अभाव और उनके निजी स्वार्थों के कारण महागठबंधन अभी भी आंतरिक समस्याओं से जूझ रहा है। पहले चरण के चुनाव के मात्र 10 दिन पूर्व तक इसने 40 में से मात्र 32 उम्मीदवारों के नाम घोषित कर पाई। इसके कुछ घटक दलों पर टिकट बेचने तक के आरोप लग रहे हैं।
पिछले सप्ताह, काफी जद्दोजेहद के बाद राजद ने अपने लिए 20, कांग्रेस के लिए नौ, रालोसपा को पांच तथा हम और वीआइपी को तीन-तीन सीटों के बंटवारे की घोषणा की। राजद ने अपने खाते में से ही आरा की सीट सीपीआइ-माले के लिए छोड़ने की घोषणा की, जो इस गठबंधन का हिस्सा नहीं है। राजनैतिक विश्लेषकों ने राजद द्वारा अपने घटक दलों को 50 प्रतिशत सीटों से अधिक देने के निर्णय पर सवाल खड़े किए हैं। उनका मानना है कि राजद इस गठबंधन की सबसे मजबूत जनाधार वाली पार्टी है और इसे कम से कम 25 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करने चाहिए थे।
2005 में सत्ता से बेदखल होने के बावजूद राजद को बिहार में उसके बाद हुए प्रत्येक लोकसभा और विधानसभा चुनावों में 18-20 प्रतिशत मत मिले हैं, जो इस बात का द्योतक है कि लालू के दल का जनाधार हाल के वर्षों में सिमटा नहीं है। इसका मूल कारण लालू द्वारा बनाया गया मुस्लिम और यादव (माय) समीकरण रहा है। इन दोनों वर्गों की बिहार में जनसंख्या लगभग 30 प्रतिशत रही है। महागठबंधन में इस तरह का जनाधार किसी अन्य दल का नहीं है। इसीलिए राजद द्वारा जीतन राम मांझी और मुकेश साहनी के दलों के लिए तीन-तीन सीट के ‘उपहार’ देने के निर्णय को राजनैतिक हलकों में परिहार्य समझा जा रहा है।
पूर्व मुख्यमंत्री मांझी और ‘सन ऑफ मल्लाह’ साहनी के दलों को लोकसभा चुनाव लड़ने का अनुभव नहीं है और राज्य स्तर पर उनके संगठन का स्वरूप भी लुंज-पुंज है। इसके बावजूद मांझी महादलितों में एक बड़े नेता के रूप में जाने जाते हैं और साहनी, जो राजनीति में सक्रिय होने से पूर्व बॉलीवुड के बड़े सेट डिजाइनरों में से एक थे, ने पिछले पांच वर्षों में पटना में बड़ी सभाएं करके मल्लाह समुदाय के अग्रणी नेता के रूप में अपनी जगह बनाई है। राजद ने निःसंदेह चुनाव में जाति समीकरण को मजबूत करने के उद्देश्य से इन नेताओं को छह सीटें दी होंगी, लेकिन अगर ये छोटे दल अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते हैं तो यह राजद की महंगी राजनीतिक भूलों में से एक साबित होगी। वैसे साहनी स्वयं खगड़िया से पहली बार चुनाव मैदान में हैं जबकि मांझी अपने गृह जिले गया (सुरक्षित क्षेत्र) से एक बार फिर भाग्य आजमा रहे हैं। 2014 में उन्हें इसी क्षेत्र से जद-यू के टिकट पर मुंह की खानी पड़ी थी।
राजद के बाकी दो घटक दलों कांग्रेस और रालोसपा के बारे में भी यही कहा जा रहा है कि उन्हें गठबंधन में जरूरत से ज्यादा सीटें मिली हैं। 2014 में कुशवाहा की पार्टी राजग का हिस्सा थी, उसने मात्र तीन लोकसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था लेकिन इस बार महागठबंधन में वह पांच सीट पाने में कामयाब रही। कुशवाहा ओबीसी वर्ग के कोइरी जाति के बड़े नेता हैं, जिसकी जनसंख्या राज्य में तकरीबन आठ-नौ प्रतिशत हैं। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है, उसे इस बार नौ सीटें मिली हैं। बिहार में पिछले कुछ चुनावों में कांग्रेस का मत-प्रतिशत छह से आठ प्रतिशत के बीच ही रहा है लेकिन महागठबंधन में सवर्ण मतदाताओं को लुभाने के लिए यह भाजपा के विकल्प के रूप में है। पिछले वर्ष कांग्रेस के राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में विजय के कारण राजद इसे इच्छा या अनिच्छा से नौ सीटें देने पर राजी हुई है। जबकि 2009 के आम चुनाव के पूर्व राजद और कांग्रेस का गठबंधन ऐन वक्त पर टूट गया था, क्योंकि लालू उसे तीन सीट से अधिक देने को तैयार न थे।
लेकिन वही लालू अब कारागार में हैं और फिलहाल रांची के एक अस्पताल में इलाजरत हैं। उन्होंने पिछले चुनावों के अपने अनुभव पर अपने पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव को यह अवगत तो कराया ही होगा कि सारे विरोधी दलों को एक प्लेटफॉर्म पर लाए और सटीक जातीय समीकरण को साधे बगैर राजग को चुनावी दंगल में पटखनी देना मुमकिन नहीं होगा। अब तक घोषित 32 सीटों में महागठबंधन ने आधी सीटें सिर्फ यादव और मुस्लिम उम्मीदवारों को दी हैं, जो लालू की ही रणनीति का अंग है। लालू अभी तक इस चुनावी समर से बाहर हैं। उनकी जमानत अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आना शेष है। राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह के अनुसार, लालू की कमी महागठबंधन में खल रही है। उनका मानना है कि अगर लालू बाहर होते तो महागठबंधन को कोई भी समस्या झेलनी नहीं पड़ती। हालांकि, जेल में रहते हुए भी अपने इलाज के दौरान राजद सुप्रीमो ने रणनीति बनाई और महागठबंधन के नेताओं से लगातार मिलते रहे हैं, लेकिन यह पहला मौका है जब वह बिहार में चुनाव प्रचार से दूर हैं।
चुनावी पंडितों के अनुसार लालू की चुनाव क्षेत्रों में उपस्थिति महागठबंधन में नया जोश और उमंग भर सकती थी। हालांकि भाजपा नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के अनुसार, लालू का चुनाव के दौरान जेल से बाहर आना एनडीए के लिए अच्छा ही रहेगा, क्योंकि उनकी उपस्थिति लोगों को जंगलराज का स्वतः स्मरण कराएगी। स्पष्ट है कि एनडीए के लिए राजद शासन के दौरान घटित विधि-व्यवस्था की गिरावट हमेशा की तरह इस चुनाव में भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहेगी। औरंगाबाद में भाजपा के चुनाव प्रचार का आगाज करते हुए दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि राजद ने सिवान से मोहम्मद शहाबुद्दीन की पत्नी (िहना शहाब) को फिर से टिकट देकर यह दर्शाया है कि अगर महागठबंधन को जरा-सा भी मौका मिला तो वह बिहार में फिर से जंगलराज की स्थापना कर देगी।
इस चुनाव में हालांकि एनडीए के लिए नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की ‘डबल इंजन’ की सरकार की उपलब्धियां ही मतदाताओं को रिझाने का सबसे बड़ा अस्त्र हैं। इसके नेता मोदी सरकार की केंद्र में और नीतीश द्वारा राज्य में चलाई जा रही समावेशी विकास की योजनाओं की सफलता का दावा करते हुए बिहार में पुनः दो-तिहाई सीटों पर जीत की उम्मीद रखते हैं। दूसरी ओर महागठबंधन के नेता मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान कथित रूप से बढ़ती बेरोजगारी और किसानों की बदहाली के नाम पर जनादेश मांगेंगे।
राज्य में सात चरणों में होने वाले चुनाव का शंखनाद हो चुका है। 23 मई को चुनाव परिणाम अंततः किसी भी गठबंधन के पक्ष में हों, बिहार के चुनावों पर देश भर की नजर होगी। इसमें कोई शक नहीं कि राज्य की कई सीटों पर कांटे की टक्कर होगी। बेगूसराय में सीपीआइ उम्मीदवार और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की भिड़ंत अभी से ही सुर्खियों में है। यह भी देखना दिलचस्प होगा कि क्या भाजपा के केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद कांग्रेस के शत्रुघ्न सिन्हा को पटना साहिब से लगातार तीसरी बार लोकसभा सांसद बनने से रोक पाते हैं। एक समय लालू के हनुमान कहे जाने वाले भाजपा के केंद्रीय मंत्री राम कृपाल यादव को पाटलिपुत्र में अपनी भतीजी और लालू की सबसे बड़ी बेटी मीसा भारती से फिर चुनौती मिलेगी। मधेपुरा से शरद यादव राजद के टिकट पर न सिर्फ जन अधिकार मोर्चा के पप्पू यादव के हाथों पिछले चुनाव में मिली शिकस्त का बदला लेने का प्रयास करेंगे, बल्कि इसी क्षेत्र में होने वाले त्रिकोणीय मुकाबले में जद-यू के दिनेशचंद्र यादव को हरा कर नीतीश को भी एक संदेश भेजना चाहेंगे। यह वही क्षेत्र है जहां शरद और लालू वर्षों तक चुनावी अखाड़े में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी रहे, लेकिन आज वे साथ हैं। इस चुनाव में हाजीपुर (सुरक्षित) सीट भी चर्चाओं में रहेगी, जहां से लोजपा प्रमुख राम विलास पासवान ने अपने छोटे भाई पशुपति कुमार पारस को उम्मीदवार बनाया है। यहीं पासवान ने सबसे अधिक मत से चुनाव जीतकर ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ में दो-दो बार अपनी जगह बनाई थी, लेकिन क्या उसी क्षेत्र में उनकी साख और प्रतिष्ठा उनके अनुज को विजयी बनाने के लिए काफी होगी?
कई क्षेत्रों में तो कुछ बाहुबलियों की पत्नियां भी फिर से जोर-आजमाइश कर रही हैं। सिवान में सजायाफ्ता शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब एक दूसरे स्थानीय बाहुबली अजय सिंह की पत्नी कविता सिंह से भिड़ेंगी, जो जद-यू के टिकट पर मैदान में हैं। नवादा में बलात्कार केस में सजायाफ्ता राजद विधायक राजबल्लभ यादव की पत्नी विभा देवी लोजपा से पूर्व बाहुबली सांसद सूरजभान सिंह के भाई चंदन कुमार को चुनौती देंगी। हर चुनाव की भांति इस बार भी बिहार में लोकतंत्र का महापर्व एक्शन-इमोशन का शोला बनने वाला है। दिल थाम के बैठिए, पिक्चर अभी बाकी है।