शुरुआत में ट्रैक्टरों का एक छोटा काफिला एनएच 44 पर दिल्ली की ओर बस कुछ नारों और फौलादी इरादों के साथ बढ़ा चला आ रहा था। सामान्य हालात में उनका विरोध प्रदर्शन भी बाकी सेक्टरों जैसा ही मान लिया जाता, जिसकी देश में धारा शायद ही कभी टूटती है। लेकिन जैसे-जैसे दिन बढ़ते गए, ऐसा हुजूम और समर्थन जुड़ने लगा, जो किसी ऐसी मध्ययुगीन फौजी ताकत जैसा दिखने लगा, जिससे इतिहास की धारा बदल जाया करती रही है। देश को हरित क्रांति का तोहफा देने वाले पंजाब के गौरवान्वित मगर सतर्क किसानों ने एक मुकम्मल राजनैतिक चक्रवात के आसार पैदा कर दिए हैं और एनडीए सरकार से सीधे टकरा गए हैं। यह ऐसा मंजर है जो उसे झुकने पर मजबूर कर सकता है। सरकार 1 दिसंबर से बैकफुट पर नजर आ रही थी। 40 किसान संगठनों के साथ पांच दौर की बातचीत में वह नए कृषि कानूनों में संशोधन के लिए तैयार दिखी। इन बदलावों के लिए वह संसद का विशेष सत्र बुलाने पर भी विचार कर रही थी। हालांकि दस दिन बाद गतिरोध आ खड़ा हुआ क्योंकि अधिकतम पेशकश न्यूनतम मांग से मेल नहीं खा रही थी। अलबत्ता दोनों ओर से काफी कोशिशें हुईं, कई बार अविश्वास की खाइयां भी लांघी गईं लेकिन अवरोध हटने को तैयार नहीं हुआ।
मामला अंधे मोड़ की ओर बढ़ रहा है, यह 8 दिसंबर को खुलकर दिखने लगा, जिस दिन किसान संगठनों का भारत बंद देश भर में लगभग सफल रहा। बातचीत में गतिरोध दिखने लगा। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पहली बार बातचीत के लिए आगे आए और उसी दिन 13 किसान संगठनों के नेताओं के साथ करीब चार घंटे तक उनकी बैठक चली। उस बैठक में गृह मंत्री ने नए कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग पूरी तरह नकार दी, जो सितंबर में संसद के मानसून सत्र में पारित किए गए थे। सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने के बजाए नया प्रस्ताव दिया। इन कानूनों के जिन बिंदुओं पर किसानों को आपत्ति थी, उसके लिए इन कानूनों में संशोधन की बात कही गई। केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि वह इन कानूनों में संशोधन की बात लिख कर देने के लिए तैयार है। वैसे तो पहले के कई दौर की बैठकों में भी इन कानूनों को रद्द करने की मांग नकारी जा चुकी थी, लेकिन अमित शाह के कहने से उस पर लगभग अंतिम मुहर लग गई है।
किसानों को रोकने के लिए इंतजाम
इसके बाद केंद्र सरकार और किसान नेताओं के बीच 9 दिसंबर को होने वाली छठे दौर की बातचीत स्थगित हो गई। दोनों पक्षों ने इन प्रस्तावों पर अपने-अपने स्तर पर विचार करने का निर्णय लिया। सरकार ने 9 दिसंबर की सुबह होने वाली कैबिनेट की बैठक में और किसान नेताओं ने उसी दिन सिंघु बॉर्डर पर होने वाली बैठक में। उस बैठक में किसान नेताओं ने सरकार के प्रस्ताव को खारिज कर दिया और कहा कि वे तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग से पीछे नहीं हटेंगे। इसके अलावा किसान बिजली विधेयक 2020 को वापस लेने की भी मांग कर रहे हैं।
पूर्व लोकसभा सांसद और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) से जुड़ी अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव हनन मोल्ला ने कहा, “संशोधन की कोई गुंजाइश नहीं। हम चाहते हैं कि सरकार तीनों कानून रद्द करे।” हालांकि शिवकुमार शर्मा उर्फ कक्काजी जैसे कुछ किसान नेताओं, जिन्हें लगता है कि सरकार इन कानूनों को रद्द करने की मांग नहीं मानेगी, ने कहा, “वैसे तो सार्वजनिक रूप से हमारा स्टैंड यही है कि सरकार इन कानूनों को खत्म करे, लेकिन अगर सरकार हर किसान को उसकी प्रत्येक फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी दर्जा देने पर राजी होती है, तो हम उसके प्रस्ताव पर बातचीत करने के लिए तैयार हैं।” किसानों की प्रमुख मांगों में एक यह भी है।
किसान संगठन चाहते हैं कि पहले एक अध्यादेश के जरिए, और बाद में संसद का विशेष सत्र बुलाकर सरकार तीनों नए कृषि कानूनों को रद्द करे। सरकार ने इन कानूनों में जो संशोधन का प्रस्ताव दिया है, वह उन्हें मंजूर नहीं है। उनकी अन्य मांगों में एमएसपी को कानूनी दर्जा देना, बिजली संशोधन विधेयक 2020 वापस लेना और दिल्ली में प्रदूषण से जुड़े वायु गुणवत्ता अध्यादेश के दायरे से किसानों को बाहर करना शामिल हैं।
भीड़ को तितर-बितर करने के लिए छोड़े गए आंसू गैस के गोले
मध्य प्रदेश के मंदसौर में जून 2017 में छह किसानों की मौत के बाद देश में किसान आंदोलन ने काफी जोर पकड़ा है। किसान अलग-अलग संगठन बनाकर साथ आ रहे हैं। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआइकेएससीसी) के संयोजक वी.एम. सिंह के अनुसार किसान आंदोलन के इतिहास में इस समिति का गठन बड़ा ही महत्वपूर्ण कदम है।
किसान भाइयों के लिए खाना तैयार करते लोग
अलग मांगों और अलग विचारधारा वाले सैकड़ों किसान संगठनों के बीच समन्वय बनाना काफी मुश्किल काम है। राष्ट्रीय किसान मोर्चा के संयोजक बिनोद आनंद बताते हैं, एक बार पंजाब के 30 किसान बैठक करते हैं और निर्णय लेते हैं। उसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर एआइकेएससीसी है जिसके कार्यदल में पंजाब के 10 संगठनों समेत 300 किसान संगठनों के प्रतिनिधि हैं। एक संयुक्त किसान मोर्चा है जो पंजाब के संगठनों के बीच समन्वय का काम करता है। इसके अलावा राष्ट्रीय किसान महासंघ है, भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के अलग-अलग धड़े हैं (भाकियू चढूनी, भाकियू राजेवाल और ऐसे 38 अन्य)।
3 नवंबर को देश के करीब 50 किसान नेताओं ने दिल्ली के रकाबगंज गुरुद्वारा में बैठक की। वहां उन्होंने सरकार से बातचीत के लिए संयुक्त किसान मोर्चा की समन्वय समिति बनाने का फैसला किया और इसके लिए 10 किसान नेताओं को चुना। इनमें पांच नेता राष्ट्रीय किसान महासंघ के हैं और पांच एआइकेएससीसी के। नई समन्वय समिति में राष्ट्रीय किसान महासंघ की तरफ से इसके राष्ट्रीय संयोजक शिवकुमार शर्मा उर्फ कक्का जी, भाकियू के अलग-अलग धड़ों से जगजीत सिंह दलेवाल, गौरीशंकर विधूरा, हरपाल सिंह बिल्लारी और स्वामी इंद्रदेव शामिल हैं।
एआइकेएससीसी की तरफ से शुरू में योगेंद्र यादव, वी.एम. सिंह और तीन अन्य को चुना गया था। बाद में यादव और सिंह की जगह अखिल भारतीय किसान सभा के हनन मोल्ला और भाकियू के राकेश टिकैत (महेंद्र सिंह टिकैत के पुत्र) शामिल किए गए। इनके अलावा युद्धवीर सिंह भी समिति में हैं। तीसरी बैठक में एआइकेएससीसी की तरफ से कविता कुरुगंती भी शामिल हो गईं, जो कर्नाटक के किसानों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
एआइकेएससीसी ने 5 नवंबर को भारत बंद की घोषणा की और उसे राष्ट्रीय किसान महासंघ ने पूरा समर्थन दिया। 13 नवंबर को दो बैठकें हुईं, एक वसंत कुंज में और दूसरी रकाबगंज गुरुद्वारा में। इनमें करीब आधा दर्जन मांगों को अंतिम रूप दिया गया। 26-27 नवंबर को इन नेताओं ने दिल्ली का घेराव करने का निर्णय लिया। संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने 1 दिसंबर से सरकार के साथ बातचीत शुरू की। इस मोर्चे में पंजाब और हरियाणा के 30 किसान संगठनों के अलावा मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, केरल और अन्य राज्यों के सैकड़ों संगठन शामिल हैं।
धरना स्थल पर कोविड19 की जांच
बातचीत के दौरान वैचारिक मतभेद उभरे और तनाव की स्थिति भी बनी, खासकर वामपंथी झुकाव वाले एआइकेएससीसी के सदस्यों और दक्षिणपंथी झुकाव वाले राष्ट्रीय किसान महासंघ के नेताओं के बीच। हालांकि एआइकेएससीसी की नेता कविता कुरुगंती कहती हैं, “इतने बड़े गठबंधन में छोटे-मोटे मतभेद होते रहते हैं। इस आंदोलन की व्यापकता और विविधता पर ध्यान देना चाहिए। ऐसा पहली बार हुआ कि अलग-अलग इलाकों और अलग-अलग राजनीतिक दलों से जुड़े इतनी बड़ी संख्या में संगठन साथ आने और आंदोलन के लिए इच्छुक हैं। यह हमारे मकसद की गंभीरता को बताता है।”
कुरुगंती बताती हैं, “किसान संगठनों के शांतिपूर्ण विरोध और उनकी तैयारी को देखिए। तमाम उकसावे के बावजूद वे चुपचाप बैठे हैं।” ट्रैक्टर ट्रॉली की लंबी कतार और ट्रकों के भीतर गर्म बिस्तर लगा कर ठंड से बचना, यह बताता है कि किसान कितने तैयार होकर आए हैं। वे अपना दाना-पानी भी लेकर आए हैं और उन्होंने बातचीत के दौरान सरकार के उपलब्ध कराए भोजन को खाने से इनकार कर दिया। वे गुरुद्वारों की तरफ से आयोजित लंगरों में खाना पसंद करते हैं। सौहार्द भी अद्भुत है। प्रदर्शन कर रहे किसानों का समर्थन उनके गांवों में बैठे साथी कर रहे हैं। वे देख रहे हैं कि गेहूं और दूसरी फसलों की बुवाई समय पर हो सके। समाज के अलग-अलग वर्गों से मिल रहा समर्थन आश्चर्यजनक है।
इतनी बड़ी संख्या में किसानों के आने से देश की राजधानी दिल्ली की एक तरह से घेराबंदी हो गई है। किसान चार बॉर्डर सिंघु, टिकरी, झड़ोदा और चिल्ला पर डटे हुए हैं। चारों सीमाएं बंद हैं और वहां कोई हिंसा भी नहीं हो रही है।
किसान आंदोलन का इतिहास
कहते हैं, इतिहास अपने को दोहराता है। आज से करीब 32 साल पहले 1988 में 25 अक्टूबर से नवंबर की शुरुआत तक लगभग हफ्ते भर दिल्ली में किसानों की ऐसी ही घेरेबंदी देखी गई थी। तब भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के करिश्माई नेता महेंद्र सिंह टिकैत की अगुआई में लगभग पांच लाख किसानों ने 35 मांगों की भारी-भरकम फेहरिस्त के साथ बोट क्लब पर लगभग कब्जा जमा लिया था, जिससे कुछ गज की दूरी पर सत्ता-केंद्र नॉर्थ और साउथ ब्लॉक के साथ संसद भवन है। तब संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने ही वाला था। खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आए किसानों की बड़ी मांगों में गन्ने की ज्यादा कीमत, बिजली और पानी के शुल्क से मुक्ति जैसे अहम मुद्दे थे। भारतीय किसान यूनियन के नेतृत्व में यह गोलबंदी इतनी बड़ी थी कि विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक का पूरा लंबा-चौड़ा इलाका किसानों से पटा पड़ा था।
भारतीय किसान यूनियन के उस आंदोलन पर गहरा शोध करने वाली प्रोफेसर जोया हसन कहती हैं, “टिकैत के नेतृत्व में किसान आंदोलन दिवंगत राजीव गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस सरकार के खिलाफ अहम ताकत का प्रदर्शन था। तब कांग्रेस भारी बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज थी। हालांकि, प्रो. हसन कहती हैं, “फिर भी भाकियू तब मोटे तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक सीमित एक क्षेत्रीय ताकत ही थी। उसके विपरीत मौजूदा किसान आंदोलन बड़े पैमाने पर पूरे देश के फलक पर फैला है और उसकी मांगें भी अधिक महत्वाकांक्षी हैं।”
फिर, भाकियू और मौजूदा किसान आंदोलन की सामाजिक संरचना भी काफी अलग है। प्रो. हसन बताती हैं, “भाकियू का आंदोलन मुख्य रूप से मुजफ्फरनगर, मेरठ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट किसानों की गोलबंदी थी, अलबत्ता भाकियू की पैठ दूसरी जातियों के किसानों में भी मजबूत थी। इसके विपरीत मौजूदा आंदोलन देश के विभिन्न राज्यों, विविध जातियों और विभिन्न तबके के किसानों का ढीलाढाला इंद्रधनुषी शमियाने जैसा है, जिसमें कई सांस्कृतिक रंग एक साथ खिल रहे हैं।”
इसी बहु-वर्गीय या विभिन्न तबके वाली रूपरेखा के कारण मौजूदा किसान आंदोलन में प्रतिकूल विचारधाराओं वाले किसान-समूहों की शिरकत है। कुछ, जैसे हनन मोल्ला माकपा से जुड़े हैं, तो मध्य प्रदेश और मध्य भारत के दूसरे राज्यों से बड़ा जत्था अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआइकेएससीसी) से संबंधित है, जबकि पंजाब के कुछ समूह अतीत में भाकपा-माले से जुड़े रहे हैं। इसके अलावा महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत सहित भाकियू के लगभग 40 विभिन्न गुटों का बड़ा-सा जमावड़ा भी है।
राष्ट्रीय किसान महासंघ के संयोजक बिनोद आनंद ने बताया कि 1980 के दशक के आखिरी वर्षों में भाकियू के पास सिर्फ प्रिंट मीडिया, दूरदर्शन और बीबीसी ही माध्यम था। आज के किसान आंदोलन के लिए 24 घंटे के न्यूज चैनलों और हजारों सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का सहारा है। आनंद कहते हैं, “सोशल मीडिया में चल रहे कुछ लोकप्रिय हैशटैग पर ही गौर करेंः किसान दिल्ली चलो, ट्रैक्टर टू ट्वीटर, किसान के साथ खड़े हों, अन्नदाता का अन्न के लिए संघर्ष, किसान-मजदूर एकता जिंदाबाद, किसान एकता जिंदाबाद, किसानों के लिए आवाज उठाइए, अडानी-अंबानी का बॉयकाट करो। इतने व्यापक और विभिन्न भाषाओं के लिए प्रेस ब्रीफिंग तैयार करना भी बड़ा चुनौती भरा काम है।”
संविधान का अपहरण
संविधान विशेषज्ञों की दलील है कि केंद्र के ये तीनों कानून संविधान के संघीय चरित्र का घोर उल्लंघन हैं। कृषि हमेशा राज्य सूची का विषय रहा है और केंद्र के पास समवर्ती सूची में भी कृषि के मामले में कोई क्षेत्राधिकार नहीं है। सांसद तथा वरिष्ठ वकील के.टी.एस. तुलसी कहते हैं, “नए कानून के जरिए केंद्र ने राज्यों को राज्य सूची के तहत अनुसूची 14,18, 46, 28 के तहत प्रदत्त विशेष अधिकारों का अपहरण करने का प्रयास किया है। जिस तरीके से ये तीनों कृषि कानून लाए गए हैं, वह वैधानिक ढांचे के अनुरूप नहीं है। ये कानून राज्यों को शुल्क या लेवी के जरिए राजस्व जुटान से वंचित करते हैं। इसलिए ये तीनों कानून सत्ता के बंटवारे को चुनौती देते हैं, जो हमारे लोकतंत्र की रीढ़ है।”
तुलसी की दलील है, इन कानूनों के विवाद निपटाने के प्रावधान यह भी साफ नहीं करते कि विवाद की स्थिति में संबंधित पक्षों का प्रतिनिधित्व कौन करेगा। फिर, कानून कृषि करार में सुलह की प्रक्रिया के अभाव में विवाद निपटाने का बोझ भी पहले से काम से लदे अनुमंडलाधिकारी (एसडीएम) पर डाल देता है। कानून के प्रावधानों में सबसे अमानवीय तो किसान से अपील करने का अधिकार छीन लेना है। लगता है कि राज्य नौकरशाहों की फौज के जरिए अपनी ताकत के इजहार में खुद को ईश्वर समझ बैठा है, जो हर तरह के सवाल और चुनौती से परे है। ऐसे में, अगर उच्च अधिकारी का फैसला भ्रष्टाचार, पूर्वाग्रह या महज तुनकमिजाजी की वजह से पक्षपाती हो, तो उसके खिलाफ किसान को कोई अधिकार न होना अजीबोगरीब है।
दुनिया भर से किसानों को समर्थन
आज सोशल मीडिया की व्यापक पहुंच से किसान आंदोलन को दुनिया भर में बसे भारतीयों का जबरदस्त समर्थन मिल रहा है। इसमें अमेरिका, कनाडा, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और दूसरे देशों में बसे या गए भारतीय शामिल हैं। विदेश में मौजूद आप्रवासी किसानों के समर्थन में ऑनलाइन अर्जियों पर दस्तखत कर रहे हैं।
ब्रिटेन के 36 सांसदों ने वहां के विदेश सचिव डॉमिनिक राब को साझा पत्र लिखा कि भारत खासकर पंजाब और दिल्ली के मुहाने पर जुटे व्यापक किसान आंदोलन के प्रति ब्रितानी नागरिकों की चिंताओं को उचित मंच पर उठाया जाए। कनाडा में बड़ी संख्या में मौजूद पंजाबी मूल के वोटरों के मद्देनजर प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो भारत में चल रहे किसान आंदोलन के समर्थन में बयान जारी करने वाले दुनिया के पहले नेताओं में हैं। उन्होंने 4 दिसंबर को दोबारा किसानों का समर्थन दोहराया, “कनाडा हमेशा दुनिया के किसी भी कोने में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों का समर्थन करता रहेगा। बातचीत की कोशिशों को देखकर हमें खुशी है।” भारत ने कड़ी आपत्ति जारी कि कि कनाडा के प्रधानमंत्री की ये टिप्पणियां दोनों देशों के रिश्ते में खटास पैदा कर सकती हैं। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने 7 दिसंबर को कोविड-19 महामारी की रोकथाम की रणनीति तैयार करने के मकसद से कनाडा के नेतृत्व में विदेश मंत्रियों की बैठक का बहिष्कार किया।
कनाडा के भारतवंशियों में पंजाब के मजबूत सांस्कृतिक संबंधों का ही असर था कि 5 दिसंबर को पुराने टोरंटो में भारतीय दूतावास के सामने किसानों के समर्थन में हजारों की संख्या में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया। सासकातून में सैकड़ों की संख्या में लोगों ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया, और दक्षिण हालीफैक्स में 100 से ज्यादा वाहनों के जरिए लोगों ने कनाडा आव्रजन म्यूजियम पीयर 21 के सामने कार रैली निकाली।
अमेरिका में एनआरआइ और पंजाबी मूल के अमेरिकी नागरिक किसानों के समर्थन में लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। उत्तरी कैलिफोर्निया के यूबा सिटी और स्टॉकटन में सिख और पंजाबी मूल के लोग सैकड़ों की संख्या में किसान एकता रैली के लिए सड़कों पर आए। यह रैली 5 दिसंबर को ओकलैंड से सैन फ्रैंसिस्को स्थित भारतीय दूतावास तक निकाली गई। इंडियापोलिस में भी सैकड़ों की संख्या में प्रदर्शनकारी एकत्र हुए। भारतीय वाणिज्य दूतावास की ओर बढ़ रहे प्रदर्शनकारियों के कारण बे-ब्रिज जाम हो गया। किसानों के समर्थन में न्यूयॉर्क, शिकागो, वाशिंगटन डीसी और दूसरे अमेरिकी शहरों में भी प्रदर्शन किए गए।
ब्रिटेन में 6 दिसंबर को सेंट्रल लंदन में मौजूद भारतीय उच्चायोग के सामने किसानों के समर्थन में हजारों की संख्या में लोगों ने प्रदर्शन किया। विरोध प्रदर्शन करने वालों में ज्यादातर ब्रिटिश सिख थे। ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में भी 6 दिसंबर को भारतीय उच्चायोग से लेकर संसद भवन तक किसान रैली निकाली गई। उसके पिछले हफ्ते से ही किसानों के समर्थन में पूरे ऑस्ट्रेलिया में प्रदर्शन और रैलियां की गई हैं। सिडनी में क्वेकर्स हिल, ब्रिसबेन में सिटी हॉल, मेलबर्न में फेडरेशन स्कवॉयर और केनबरा में भारतीय उच्चायोग के सामने प्रदर्शन हुए।
प्रदर्शनों का राजनीतिक महत्व
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मनोरंजन मोहंती कहते हैं, “एनडीए के पिछले 6 साल के कार्यकाल में मौजूदा किसान आंदोलन पहली सबसे बड़ी चुनौती है। सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी व्यापक था लेकिन कोरोना महामारी की वजह से खत्म हो गया। मौजूदा विरोध प्रदर्शन का पूरे देश में असर है, जिसमें देश भर के विभिन्न तबके के किसानों की शिरकत है।” किसान आंदोलन से एनडीए सरकार के नव-उदारवादी एजेंडे में भी कई दरारें दिखने लगी हैं।
मोहंती मौजूदा किसान आंदोलन के अखिल भारतीय स्वरूप के मद्देनजर इसकी तुलना अतीत के कुछ बड़े किसान आंदोलनों से करते हैं। जैसे, प्रमुख रूप से वारंगल और बीदर जिले तक सीमित 1946 का तेलंगाना किसान आंदोलन, पश्चिम बंगाल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े किसान सभा के नेतृत्व में 1946-47 में हुए तेभागा किसान आंदोलन, केरल में 1921 का मोप्पला किसान विद्रोह और पश्चिम बंगाल तथा पूर्वी भारत में नक्सल किसान विद्रोह।
हालांकि जोया हसन स्वीकार करती हैं कि भले ही 24 विपक्षी दलों ने किसान आंदोलन का समर्थन किया है लेकिन जमीनी स्तर पर किसान आंदोलन और चुनावी राजनीति में संबंध कुछ हद तक कटा हुआ है। सीएसडीएस के डायरेक्टर संजय कुमार कहते हैं, “यह भी विडंबना है कि देश के 65 फीसदी वोटर ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं, उसके बावजूद किसानों के मुद्दे कभी चुनावों का प्रमुख एजेंडा नहीं बन पाते हैं।” अब सवाल है कि किसानों के पक्ष में बढ़ता समर्थन क्या हमारी आर्थिक नीति में मूलभूत बदलाव का रास्ता खोलेगा? क्या भविष्य में देश में चुनावों का चरित्र बदलेगा? क्या भविष्य में किसानों के एजेंडे प्रमुख मुद्दे बनेंगे? इसका फैसला इस बात पर निर्भर करेगा कि किसान आंदोलन का स्वरूप कितने समय तक देशव्यापी रहेगा और उसकी तीव्रता कब तक बनी रहती है।