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अयोध्या राजनीति का अंत या...

अदालत ने अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाकर ध्रुवीकरण की राजनीति को खत्म करने की राह दिखाई लेकिन क्या ऐसा होगा?
यहीं हैं रामललाः अयोध्या में इस जगह अब राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला रामलला के पक्ष में ही दिया है

लगभग तीन दशकों से भारतीय राजनीति में जारी अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने सर्वानुमति से फैसला सुनाया, तो बहुतों, खासकर अयोध्यावासियों ने कहा, चलो बवाल कटा। असली सवाल यही है कि क्या वाकई बवाल खत्म हो जाएगा? क्या धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण की राजनीति का इसके साथ अंत हो जाएगा? क्या राजनीति आम लोगों की जिंदगी से जुड़े और विकास के मुद्दों की राह पर लौट जाएगी? अभी इन सवालों के जवाब भविष्य के गर्भ में हैं। मगर यह यकीनन गौरतलब है कि फैसले के पहले केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार की ऐहतियातन कार्रवाई ही नहीं, प्रधान न्यायाधीश की खुद उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को हिदायत के बावजूद कहीं कोई प्रतिक्रिया न होने से भी यही संदेश उभरता है कि आम लोग इस विवाद और राजनीति से आजिज आ चुके हैं और शायद चाहते हैं कि अब तो इससे तौबा करो!

हो भी क्यों नहीं, क्योंकि इस विवाद ने कितनी बेकसूर जानें लील ली हैं और राजनीति को एक नई पटरी पर पहुंचा दिया है, जिसकी कल्पना भी हमारे महापुरुषों और संविधान-निर्माताओं ने नहीं की होगी। लेकिन राजनीति इस ओर कैसे मुड़ी, इसका जायजा लेने से पहले सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा फैसले के मूल विंदुओं को याद कर लें। इस विवाद पर रोज-ब-रोज सुनवाई करके प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अगुआई में न्यायाधीश अशोक भूषण, एस.ए. बोबडे, डी.वाई. चंद्रचूड़ और एस.ए. नजीर की पांच जजों की संविधान पीठ के ध्यान में संविधान-निर्माताओं की भावना जरूर रही होगी। उन्होंने 1,045 पन्नों के अपने फैसले को न्याय, समता और विवेक की कसौटी पर रखने की कोशिश की है। इस कसौटी पर यह कितना खरा है, इसकी विवेचना आगे के पन्नों पर विशेषज्ञों की टिप्पणियों में है।

फैसले का निचोड़ यह है कि तोड़ी गई बाबरी मस्जिद की 2.77 एकड़ जमीन पर राम मंदिर बनाया जाए, जहां मुकदमे के एक पक्षकार रामलला विराजमान हैं। मंदिर निर्माण के लिए केंद्र सरकार तीन महीने में एक न्यास की स्‍थापना करेगी जिसमें मुकदमे के तीसरे पक्षकार निर्मोही अखाड़ा को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाएगा। निर्मोही अखाड़े का पक्ष खारिज कर दिया गया क्योंकि जब रामलला खुद पक्षकार हैं तो उनके किसी प्रतिनिधि को पक्षकार बनने का हक नहीं है। और, अहम स्‍थान पर मस्जिद निर्माण के लिए केंद्र या राज्य सरकार पांच एकड़ जमीन मुहैया कराएगी। गौरतलब यह भी है कि संविधान पीठ इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाई कि बाबरी मस्जिद के पहले वहां कोई और पूजास्‍थल मौजूद था, जिसे तोड़ा गया था। उसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की खुदाई से मिले अवशेष भी इस निष्कर्ष पर नहीं ले गए। अलबत्ता, पीठ इस तथ्य तक पहुंची कि कई दशकों से मस्जिद के भीतर नमाज और बाहर पूजा-अर्चना दोनों होती थी। यह क्रम 1949 में 22-23 दिसंबर की दरम्यानी रात रामलला की मूर्ति रख दिए जाने से टूटा, जो एक आपराधिक कृत्य था। अदालत ने 1992 में मस्जिद तोड़े जाने को भी गैर-कानूनी और आपराधिक कृत्य बताया, जो अदालत में यथास्थिति बनाए रखने का हलफनामा दिए जाने के बावजूद अंजाम दिया गया।

जाहिर है, सर्वोच्च अदालत के इस फैसले पर कई तरह की व्याख्याएं आ रही हैं और आगे भी आती रहेंगी। कई विशेषज्ञ इसे मौजूदा स्थितियों में संतुलित बता रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति, विधिवेत्ता उपेंद्र बक्सी ने इसे बेहद बारीक संतुलन वाला फैसला कहा है। लेकिन कई विशेषज्ञ इसकी मूल स्‍थापना पर ही सवाल उठा रहे हैं। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ए.के. गांगुली ने कहा, संविधान जब अस्तित्व में आया तो हम सभी ने मस्जिद देखी और मस्जिद टूटते भी देखी है। फैसला भी उसे आपराधिक कृत्य मानता है, तो फिर आस्‍था के आधार पर कैसे विवादित जमीन मंदिर के लिए दे दी गई। इससे खतरनाक नजीर पड़ेगी।

लेकिन एक बात तो तय है कि अदालती फैसले ने मंदिर राजनीति पर गंभीर सवाल उठाए हैं। मोटे तौर पर इस राजनीति की सुगबुगाहट 1989 में भाजपा के पालनपुर अधिवेशन में शुरू हुई, जिसके पहले कथित बोफोर्स घोटाले के विवाद में फंसी राजीव गांधी की सरकार ने पूजा-अर्चना के लिए बाबरी मस्जिद के ताले खोलने के स्‍थानीय अदालत के फैसले को अनदेखा किया। यह धारणा बनी कि राजीव गांधी सरकार तुष्टीकरण की नीति पर चल रही है। 1989 के आम चुनावों में कांग्रेस हार गई और जनता दल की विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनी, तो उसे भाजपा और वामदलों का समर्थन हासिल था। 1990 में उप-प्रधानमंत्री देवीलाल से खींचतान के दौरान प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया, तो उसकी काट के लिए लालकृष्‍ण आडवाणी की अगुआई में भाजपा ने सोमनाथ से अयोध्या तक राम रथ यात्रा निकाली। आडवाणी की रथ यात्रा बिहार में जनता दल की लालू प्रसाद यादव की सरकार ने सीतामढ़ी में रोक दी, तो भाजपा ने केंद्र में वी.पी. सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। सरकार गिर गई।

रथ यात्रा के दौरान कई शहरों में दंगे हुए। फिर 1990 में विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में कार सेवा का ऐलान किया। इलाहाबाद हाइकोर्ट ने यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश जारी किया। कार सेवा के दौरान हिंसा भड़क उठी और पुलिस कार्रवाई में कुछ लोग हताहत भी हुए। इससे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा को अच्छी बढ़त मिली और कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी। केंद्र में 40 दिनों के अपने कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने इस विवाद के निपटारे के लिए अहम प्रयास किए, लेकिन भाजपा और विश्व हिंदू परिषद की जिद के आगे कोशिश परवान नहीं चढ़ी। तब विहिप और भाजपा के नारे थे, 'रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे', 'यह तो झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है', 'तीन नहीं तीन हजार, नहीं बचेगी कोई मजार'। इस राजनीति की मूल भावना कुछ ऐसी थी कि मुस्लिम हमलावरों की गलतियां सुधारना है। यह देश में धर्मनिरपेक्षता की भावना के विपरीत था। उसके बाद 1991 के चुनावों में कांग्रेस की सरकार बनी और पी.वी. नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने। आखिर 1991 के दिसंबर में भाजपा और विहिप ने फिर अयोध्या में कारसेवा का ऐलान किया। इस पर फिर कोर्ट ने यथास्थिति बनाए रखने की हिदायत दी। कल्याण सिंह सरकार ने हलफनामा दिया कि मस्जिद से छेड़छाड़ की इजाजत नहीं दी जाएगी, लेकिन उसका पालन नहीं किया गया। केंद्रीय बलों को बाहरी इलाके में ही रखा गया। मस्जिद तोड़ दी गई और मंच पर आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे भाजपा के नेता मौजूद थे। जोशी, उमा भारती, विनय कटियार जैसे नेता मस्जिद की गुंबदों को गिरता देख खुशी से झूम उठे। केंद्र ने छह राज्यों में भाजपा सरकारों को बर्खास्त कर दिया। तभी बाबरी मस्जिद ऐक्‍शन कमेटी भी बनी।

हालांकि, उसके बाद हुए चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा हार गई। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी के गठजोड़ की सरकार बनी। इससे जाहिर था कि तब उत्तर प्रदेश के लोगों ने मंदिर के सवाल पर भाजपा को तवज्जो नहीं दी। सपा-बसपा की ओर से यह नारा भी बुलंद हुआ था कि 'मिले मुलायम-कांशीराम, हवा हो गए जय श्री राम'। शायद यही एहसास था कि 1996 में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भाजपा का साथ देने को कोई दूसरा दल तैयार नहीं हुआ और 13 दिनों की मोहलत के बाद उसकी सरकार गिर गई। उस दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया के साथ आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा इस निष्कर्ष पर पहुंची कि विवादास्पद मुद्दों को पीछे रखने से ही बाकी दलों का समर्थन हासिल हो सकता है। इस तरह राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों को पीछे रखकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का गठन हुआ, तो बाकी दलों के सहयोग से वाजपेयी सरकार बनी। लेकिन 2004 के चुनावों में सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में, गुजरात में 2002 के दंगों की वजह से हार गई।

उसके बाद कट्टर हिंदुत्ववादियों के लिए आडवाणी की जगह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदू हृदय सम्राट बन गए। राम मंदिर का मुद्दा अदालतों की शरण में चला गया। हालांकि याद करें तो रथ यात्रा और उसके बाद भी आडवाणी कहा करते थे कि राम मंदिर करोड़ों हिंदुओं की आस्‍था का मामला है, इसमें अदालत क्या फैसला देगी। जाहिर है, इस राजनीति के परवान चढ़ने की कई परतें हैं। लेकिन इसके नए दौर की शुरुआत 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुआई में केंद्र और कई राज्यों में बनी भाजपा सरकारों के साथ शुरू होती है। तब देश में असहिष्‍णुता और गोरक्षा के नाम पर भीड़ की हिंसाएं बेइंतहा हो गईं। हालांकि 2014 में भी मोदी की अगुआई में जीत अच्छे दिन और ऐसे ही नारों के आधार पर हुई थी, जब अपने आखिरी दौर में यूपीए-2 सरकार में अर्थव्यवस्‍था चरमरा गई थी। लेकिन अर्थव्यवस्‍था तो नहीं सुधरी, राष्ट्रवाद के नए उभार से 2019 में मोदी के नेतृत्व में एनडीए को और बड़ी जीत मिल गई।

‌बहरहाल, राम मंदिर पर अब अदालती फैसला आ गया है। इस फैसले से भाजपा और संघ परिवार के नेता खुश हैं और जय-पराजय से आगे जाकर सोचने की बात कहने के बावजूद इसे अपनी जीत की तरह ही पेश कर रहे हैं। लेकिन ज्यादातर राजनैतिक दल सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ध्रुवीकरण की राजनीति के खात्मे की उम्मीद कर रहे हैं। सवाल यही है कि क्या इससे अयोध्या या कहें बहुसंख्यकवादी राजनीति की उग्रता का पटाक्षेप होगा या इसके नए रूप उभर आएंगे? फैसला अगर राजनीतिक और लोकतांत्रिक माहौल को संतुलित कर पाए तो बेहतर होगा। लेकिन यह भी देखना अहम है कि अल्पसंख्यकों का एक बड़ा वर्ग आहत होता है तो संतुलन कायम हो पाना संभव नहीं है। उम्मीद यही की जानी चाहिए कि यह राजनीति अब थमे और स्वाभाविक धरातल पर लौटे, जिसमें लोगों की जिंदगी से जुड़े असली मुद्दों की बात हो।

 

विवाद की तारीख

1528ः मुगल बादशाह बाबर के सिपहसालार मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया।

1885ः महंत रघुबीर दास ने फैजाबाद जिला अदालत में याचिका दायर कर विवादित ढांचे के बाहर शामियाना तानने की अनुमति मांगी। अदालत ने याचिका खारिज कर दी।

1949ः केंद्रीय गुंबद में रामलला की मूर्तियां 22-23 दिसंबर की दरम्यानी रात चोरी से रख दी गईं।

1950ः रामलला की मूर्तियों की पूजा का अधिकार हासिल करने के लिए गोपाल विशारद ने फैजाबाद जिला अदालत में याचिका दायर की।

1950ः परमहंस रामचंद्र दास ने पूजा जारी रखने और मूर्तियां रखने के लिए याचिका दायर की।

1959ः निर्मोही अखाड़ा ने जमीन पर अधिकार दिए जाने के लिए याचिका दायर की।

1981ः उत्तर प्रदेश सुन्नी केंद्रीय वक्फ बोर्ड ने स्थल पर अधिकार के लिए याचिका दायर की।

1 फरवरी 1986ः स्थानीय अदालत ने हिंदू श्रद्धालुओं के लिए ताला खोलने का आदेश दिया।

14 अगस्त 1986ः इलाहाबाद हाइकोर्ट ने स्‍थान पर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया।

6 दिसंबर1992ः मस्जिद का ढांचा गिरा दिया गया।

3 अप्रैल1993ः विवादित स्थल पर जमीन अधिग्रहण के लिए केंद्र ने विशेष कानून पारित किया। इसके खिलाफ याचिका दायर हुई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया।

अप्रैल 2002ः हाइकोर्ट में विवादित स्थल के मालिकाना हक को लेकर सुनवाई शुरू हुई।

13 मार्च 2003ः सुप्रीम कोर्ट ने कहा, अधिग्रहीत स्थल पर धार्मिक गतिविधि की अनुमति नहीं है।

30 सितंबर 2010ः हाइकोर्ट ने विवादित जगह को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला के बीच तीन हिस्सों में बांटने का आदेश दिया।

9 मई 2011ः सुप्रीम कोर्ट ने हाइकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी।

21 मार्च 2017ः सीजेआई जे.एस. खेहर ने अदालत के बाहर समाधान का सुझाव दिया।

01 दिसम्बरः इलाहाबाद हाई कोर्ट के 2010 के फैसले को चुनौती देते हुए 32 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने याचिका दायर की।

08 फरवरी 2018ः सिविल याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई शुरू की।

14 मार्चः कोर्ट ने सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका सहित सभी अंतरिम याचिकाएं खारिज कीं।

06 अप्रैलः राजीव धवन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर 1994 के फैसले की टिप्पणियों पर पुनर्विचार के मुद्दे को बड़े पीठ के पास भेजने का आग्रह किया।

27 सितम्बरः सुप्रीम कोर्ट ने मामले को पांच सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष भेजने से इनकार किया। मामले की सुनवाई 29 अक्टूबर को तीन सदस्यीय नयी पीठ द्वारा किए जाने की बात कही।

04 जनवरी 2019ः सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मालिकाना हक मामले में सुनवाई की तारीख तय करने के लिए उसके द्वारा गठित उपयुक्त पीठ दस जनवरी को फैसला सुनाएगी।

08 जनवरीः सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई के लिए प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ बनाई।

10 जनवरीः न्यायमूर्ति यू यू ललित ने सुनवाई से खुद को अलग किया, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई नई पीठ के समक्ष तय की।

25 जनवरीः सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई के लिए पांच सदस्यीय संविधान पीठ का पुनर्गठन किया। नई पीठ में प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के अलावा न्यायाधीश एस.ए. बोबडे, न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायाधीश अशोक भूषण और न्यायाधीश एस.ए. नजीर शामिल थे।

26 फरवरीः सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता का सुझाव दिया और फैसले के लिए 5 मार्च की तारीख तय की। इसमें यह फैसला होना था कि मामले को अदालत की तरफ से नियुक्त मध्यस्थ के पास भेजा जाए अथवा नहीं।

08 मार्चः सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता के लिए विवाद को एक समिति के पास भेज दिया जिसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एफ.एम.आई. कलीफुल्ला बनाए गए।

11 जुलाईः सुप्रीम कोर्ट ने “मध्यस्थता की प्रगति” पर रिपोर्ट मांगी।

18 जुलाईः सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता प्रक्रिया को जारी रखने की अनुमति देते हुए 1 अगस्त तक इसकी प्रोग्रेस रिपोर्ट देने के लिए कहा।

01 अगस्तः मध्यस्थता की रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में अदालत को दी गई।

02 अगस्तः मध्यस्थता नाकाम हो गई। तब सुप्रीम कोर्ट ने 6 अगस्त से जमीन विवाद पर रोजाना सुनवाई का फैसला किया।

16 अक्टूबरः लगातार 40 दिनों की बहस के बाद मामले की सुनवाई पूरी हुई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया।

9 नवंबरः चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच ने सुबह साढ़े 10 बजे फैसला सुनाया। विवाद वाली जगह पर भगवान राम का मंदिर बनाने का निर्णय हुआ।

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