गांधीजी 1920 में आगे नहीं आते तो शायद आज भी भारत असहाय रहता। स्वतंत्रता के लिए उनकी सेवाएं अनन्य और अतुल्य हैं। कोई अकेला व्यक्ति एक जीवन में इतना नहीं कर सकता था -नेताजी सुभाष चंद्र बोस
महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर सबसे ज्यादा चर्चा स्वच्छ भारत अभियान की हो रही है। इस पर सरकार ने अब तक 62 हजार करोड़ रुपये भी खर्च कर डाले हैं। लेकिन जो लड़ाई महात्मा गांधी ने शुरू की थी, वह अभी भी अधूरी है। अधूरी इसलिए है कि स्वच्छता को अभी तक अधूरी नजर से देखा गया है। मसलन आज स्वच्छ भारत अभियान केवल शौचालय की बात करता है। लेकिन ये शौचालय तीन से चार साल बाद जब ओवरफ्लो करने लगेंगे तो उसकी सफाई करने की जिम्मेदारी फिर उसी जाति वर्ग के जिम्मे आएगी, जो सदियों से यह घृणित कार्य करने को मजबूर है।
पूरे अभियान में इस बात पर कोई सोच नहीं है कि सदियों से पीड़ित इस वर्ग को इससे कैसे बाहर निकाला जाए और उसे संविधान में मिले बराबरी का हक दिलाया जाए। सफाई का काम सदियों से एक विशेष जाति से जुड़ा हुआ है। आज भी देश में लाखों लोग ऐसे हैं, जो मैला ढोने काम कर रहे हैं। स्वच्छ भारत अभियान इन लाखों लोगों के पुनर्वास की बात नहीं करता है, जबकि ऐसा करना सरकार का दायित्व है। सफाई कर्मचारियों को पुनर्वास मिले, यह अधिकार उन्हें संविधान से मिलता है। लेकिन दुख की बात यह है कि गांधी और आंबेडकर द्वारा शुरू किए गए प्रयासों का फल अभी तक नहीं मिल पाया है। हकीकत यह भी है कि गांधी के स्वच्छता अभियान से डॉ. भीमराव आंबेडकर कभी सहमत नहीं रहे।
इसकी वजह दोनों के इस समस्या को देखने के नजरिए में है। असल में महात्मा गांधी जब आजादी के आंदोलन के लिए देशवासियों को जागृत कर रहे थे, उस समय देश में स्थानीय स्तर पर कई तरह के आंदोलन चल रहे थे। सफाईकर्मियों का आंदोलन भी इसमें एक था। गांधी ने सबसे पहला काम यह किया कि स्थानीय स्तर पर चल रहे आंदोलनों को आजादी के आंदोलन से जोड़ दिया। उनका सबसे बड़ा काम यह रहा कि उन्होंने स्वच्छता के महत्व को न केवल समझा, बल्कि उसके महत्व को लोगों को भी समझाया। इसके लिए उन्होंने रास्ता निकाला कि यह तभी संभव होगा, जब हम स्वयं से इसकी शुरुआत करें। गांधी समझ गए थे कि सफाई करने के काम में जो लोग शामिल हैं, वे स्वेच्छा से यह काम नहीं कर रहे हैं, उनको यह काम अपनी जाति की वजह से करना पड़ रहा है। इसीलिए उन्होंने इस काम को स्वयं करने पर जोर दिया। यानी शौचालय साफ करने का काम ब्राह्मण भी करेगा, क्षत्रिय भी करेगा और दूसरी जातियां भी करेंगी। लेकिन गांधी इस अभियान में एक चूक कर गए। इस काम से जुड़े सफाई करने वाली जातियों को मुक्ति कैसे मिले, इसका रास्ता निकालने की उन्होंने ज्यादा कोशिश नहीं की। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि गांधी ने सफाई से जुड़ी जाति को यह कह कर पूज्य बनाया कि आप हमारी गंदगी साफ करते हो, इसलिए आप पूजनीय हो।
लेकिन अगर कोई सफाई का काम नहीं करता है तो भी उसे उसी जाति संबोधन से क्यों पुकारा जाता है? जबकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और दूसरी उच्च जातियां अपनी गंदगी साफ भी करती हैं तो उन्हें उस विशेष जाति से संबोधित नहीं किया जाएगा। ऐसा क्यों होता है, इस जातिगत समस्या को दूर करने की कोशिश गांधी ने नहीं की। इस वजह से यह जातिगत समस्या बनी रही। लोगों ने गांधी के आह्वान पर सफाई का काम तो किया लेकिन उनके दिमाग से जातिगत बेड़ियां नहीं टूटी। फिर भी हमें यह स्वीकार करना होगा कि गांधी ने सफाई को जन आंदोलन बना दिया, जिसका फायदा यह हुआ कि सफाई हर आदमी का मुद्दा बन गया। लेकिन इस समस्या के उन्मूलन का पूर्ण रास्ता आंबेडकर ने दिखाया। उन्होंने कहा कि जब तक जाति उन्मूलन नहीं होगा, उस वक्त तक कोई वाल्मिकी सफाई का काम न करने पर भी वही कहलाएगा।
आंबेडकर ने जाति को स्वतंत्र भारत के लिए खतरनाक बताया। उन्होंने कहा कि सफाई करने का काम जाति विशेष का व्यक्ति नहीं करेगा। इन लोगों को पुनर्वास चाहिए। यह उनका हक है। वे सीधे तौर पर मानते थे कि जब तक जातियां खत्म नहीं होंगी, तब तक सामाजिक समानता नहीं आएगी।
लेकिन विडंबना यह है कि आजादी के 70 साल बाद भी हम उसी जगह पर खड़े हैं। देश में आज भी मैला ढोने का काम एक विशेष जाति के पास है। अकेले 2019 में सितंबर तक 95 सफाईकर्मियों की काम के दौरान मौत हो चुकी है। अफसोस यह है कि देश में लोग मौत को भी अलग-अलग नजरिए से देखते हैं। अगर काम करते वक्त किसी सफाईकर्मी की मौत हो जाए, तो उसे देखने का नजरिया बिलकुल अलग है। वहीं, किसी सैनिक की मौत हो जाए तो उसे देखने का नजरिया एकदम जुदा है। जब तक हम इस नजरिए को नहीं बदलेंगे, तब तक समस्या का निदान नहीं होगा।
शायद इसकी वजह राजनीति है। नेताओं को लगता है कि ऐसा करने से उनकी वोट बैंक की राजनीति खतरे में पड़ जाएगी। जो उन्हें सत्ता में लाने का सबसे आसान जरिया है।
लेकिन उम्मीद की किरण पूरी तरह खत्म हो गई है, ऐसा नहीं है। देश भर की सफाईकर्मी महिलाएं आज सड़कों पर उतर रही हैं, वे सरकार और प्रशासन से अपने पुनर्वास का हक मांग रही हैं। साफ है कि समाज में बदलाव हो रहा है। यह संभव भी संविधान के जरिए हो पाया है। संविधान ने एक काम तो कर दिया है कि हम राजनैतिक रूप से एक समान हो गए हैं। यानी देश के नागरिक की जाति चाहे कुछ भी हो, उसके वोट का मूल्य समान है। यानी उच्च जाति के लोगों का वोट भी उतना ही महत्व रखता है जितना निम्न जाति के लोगों का वोट। इस बराबरी के बावजूद अभी सामाजिक और आर्थिक रूप से समानता हमें नहीं मिल पाई है। हमारी आजादी की यह सबसे बड़ी विफलता है।
अगर हमें सामाजिक और आर्थिक रूप से बराबरी का लक्ष्य हासिल करना है तो हमें महात्मा गांधी और आंबेडकर दोनों के दिखाए रास्ते पर चलना होगा। लेकिन चिंता की बात यह है कि अभी लक्ष्य को पाने की दिशा लोकतांत्रिक नहीं है। हम फैसले लेते वक्त जन के बारे में नहीं सोच रहे हैं। ऐसा करने के लिए हमें गांधी के “दरिद्र नारायण” के रास्ते को अपनाना होगा। उन्होंने कहा था कि जब भी कोई फैसला करो तो सबसे पहले समाज के सबसे कमजोर आदमी के बारे में सोचो। समझो कि तुम्हारे फैसले का असर उस पर क्या होगा। अगर ऐसा करोगे तों सही रास्ता खुद ही मिल जाएगा। केवल दिखावा और आडंबर कर हम सही मायने में स्वच्छता का लक्ष्य हासिल नहीं कर सकते क्योंकि स्वच्छता का मतलब केवल शौचालय बनाना और अपने आसापास की गंदगी साफ करना नहीं है, बल्कि सदियों से पीड़ित समाज को उस गंदगी से भी बाहर निकालना है, जो अधिकार होने के बावजूद वंचित है। अगर गांधी का जनांदोलन और आंबेडकर के सामाजिक समानता का रास्ता एक हो जाए तो पूर्ण स्वच्छता का लक्ष्य पाना नामुमकिन नहीं रह जाएगा।
(सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक और रमन मैगसायसाय पुरस्कार विजेता, यह लेख प्रशांत श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित है)