जब देश आजाद हुआ तो मूलतः दो तरह के इलाके थे– रजवाड़े और वे हिस्से जिन पर अंग्रेजों का सीधा नियंत्रण था। रजवाड़ों के सामने यों तो तीन विकल्प थे- भारत, पाकिस्तान या स्वतंत्र अस्तित्व, लेकिन जुलाई 1947 में ही ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली, भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ स्टेट्स और तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने अलग-अलग मौकों पर लगभग साफ कर दिया था कि स्वतंत्रता कोई वास्तविक विकल्प नहीं है। लेकिन कश्मीर के तत्कालीन शासक हरि सिंह अपने एक ज्योतिषी की भविष्यवाणी के भरोसे भारत या पाकिस्तान से मिलने की जगह आजाद कश्मीर का सपना देख रहे थे। उस समय उनके प्रधानमंत्री रहे रामचंद्र काक ने अपने एक नोट में बताया है कि जब माउंटबेटन इस मुद्दे पर बात करने कश्मीर गए, तो महाराज पेटदर्द का बहाना बनाकर टालते रहे। इस टालमटोल ने कश्मीर के पूरे मुद्दे को उलझाने में बड़ी भूमिका निभाई। देखें तो तकनीकी रूप से 15 अगस्त 1947 से 26 अक्टूबर तक कश्मीर एक स्वतंत्र देश था। कबीलाई हमले के बाद विलय पत्र पर हस्ताक्षर हुए, तो इसमें तीन मुद्दों पर भारत के साथ विलय का प्रस्ताव था, विदेशी मामले, सुरक्षा और संचार। यह विलय पत्र अन्य विलय पत्रों के ही समान था। लेकिन जहां बाकी राज्य आगे चलकर पूर्णरूप से विलय के लिए तैयार हुए, वहीं कश्मीर के संदर्भ में यह नहीं हुआ।
भारत की संविधान सभा में जम्मू-कश्मीर से चार सीटें रखी गई थीं। 16 जून 1949 को शेख अब्दुल्ला, मिर्जा मोहम्मद अफजल बेग, मौलाना मोहम्मद सईद मसूदी और मोती राम बागड़ा संविधान सभा में शामिल हुए। अगले तीन महीनों तक कश्मीर के भारत से संबंधों को लेकर अनुच्छेद 370 (मसौदे में अनुच्छेद 306 ए) को लेकर गोपालस्वामी आयंगर, सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला तथा उनके साथियों के बीच तीखे बहस-मुबाहिसे चले। 12 अक्टूबर को सरदार पटेल ने भी इसकी जरूरत को स्वीकार करते हुए संविधान सभा में कहा, “उन विशेष समस्याओं को ध्यान में रखते हुए जिनका सामना जम्मू-कश्मीर सरकार कर रही है, हमने केंद्र के साथ राज्य के संवैधानिक संबंधों को लेकर वर्तमान आधारों पर विशिष्ट व्यवस्था की है।” 16 अक्टूबर को एक मसौदे पर सहमति बनी, लेकिन आयंगर ने बिना शेख को विश्वास में लिए इसकी उपधारा 1 के दूसरे बिंदु में परिवर्तन कर दिया और यही परिवर्तित रूप संविधान सभा में पेश कर पास करा लिया गया। शेख अब्दुल्ला ने इस बदलाव पर आपत्ति करते हुए आयंगर को पत्र लिखा और संविधान सभा से इस्तीफा देने की धमकी दी। 18 अक्टूबर को शेख को लिखे एक पत्र में आयंगर ने कहा कि यह बदलाव मामूली-सा है। 3 नवंबर को नेहरू के अमेरिका से लौटने पर पटेल ने इसकी सूचना नेहरू को दी। अंततः आयंगर द्वारा संशोधित 306-ए ही अनुच्छेद 370 के रूप में संविधान में शामिल हुआ। इस तरह इस रिश्ते की शुरुआत ही भरोसे की जगह शक-सुबहे से हुई। अगर आयंगर ने यह “मामूली बदलाव” न किया होता तो 1953 में शेख को बर्खास्त करना कभी संभव नहीं होता। इस बार भी इसी के भरोसे 370 के बाकी हिस्से को हटाया गया है।
अनुच्छेद 370 को अस्थायी इस बदले रूप में कहा गया था। इसे समझने के लिए इस अनुच्छेद के प्रस्ताव पर मौलाना हसरत मोहानी की आपत्ति पर गोपाल कृष्ण आयंगर का जवाब देख लेना उचित होगा। वे कहते हैं, “यह भेदभाव कश्मीर की विशिष्ट परिस्थितियों के कारण है। वह विशेष राज्य अब तक इस तरह के एकीकरण के लिए तैयार नहीं है। यहां बैठे हर व्यक्ति को यह उम्मीद है कि समय के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर भी उस तरह के एकीकरण के लिए तैयार हो जाएगा, जैसा अन्य राज्यों के साथ हुआ है...भारत सरकार कश्मीर के लोगों के प्रति कुछ मामलों में वचनबद्ध है। उन्होंने इस अवस्थिति के प्रति वचनबद्धता प्रकट की है कि राज्य के लोगों को यह तय करने का मौका दिया जाएगा कि वे गणराज्य के साथ रहना चाहते हैं या इससे बाहर जाना चाहते हैं। हम लोग इस बात के लिए भी वचनबद्ध हैं कि जनता की इच्छा जनमतसंग्रह द्वारा तय की जाएगी, बशर्ते शांतिपूर्ण और सामान्य स्थितियां कायम हों और जनमतसंग्रह की निष्पक्षता की गारंटी दी जा सके। हम इस बात से भी सहमत हुए हैं कि राज्य की संविधान सभा के माध्यम से लोगों की इच्छा के अनुसार राज्य का संविधान स्थापित किया जाएगा और राज्य पर केंद्र का प्राधिकार तय होगा। जब तक राज्य की संविधान सभा निर्मित नहीं होती केवल एक अंतरिम व्यवस्था ही संभव है, और ऐसी व्यवस्था संभव नहीं है जैसी अन्य राज्यों के मामलों में है। आपको मेरे द्वारा प्रस्तुत किए गए विचार याद हों तो यह एक अवश्यंभावी निष्कर्ष है कि हम केवल एक अंतरिम व्यवस्था लागू कर सकते हैं। अनुच्छेद 306 ए (370) ऐसी ही व्यवस्था स्थापित करने की एक कोशिश है।”
इसमें दो बिंदु महत्वपूर्ण हैं। पहला तो अनुकूल परिस्थितियां होने पर जनमतसंग्रह द्वारा कश्मीर राज्य में भारतीय गणराज्य के साथ संबंध को सुनिश्चित करने का संकल्प और दूसरा यह कि अनुच्छेद 370 का भविष्य राज्य की संविधान सभा तय करेगी। इसे उस दौर में किसी समस्या की जगह भारतीय एकता की विजय के रूप में देखा जा रहा था। इसे गुलजारीलाल नंदा एक ऐसी सुरंग के रूप में देख रहे थे जिससे भारतीय संविधान धीमे-धीमे कश्मीर तक पहुंचेगा। श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी उस समय नेहरू कैबिनेट के सदस्य के रूप में इसके समर्थन में थे। उन्होंने कैबिनेट से इस्तीफा अनुच्छेद 370 के खिलाफ नहीं, बल्कि 8 अप्रैल 1950 को नेहरू-लियाकत समझौते के खिलाफ दिया था।
इसलिए अनुच्छेद 370 के अस्थायी होने का मतलब यह था कि इसका भविष्य कश्मीर की जनता के अंतिम निर्णय द्वारा तय होगा। अगर कश्मीर में जनमतसंग्रह हुआ होता और वहां की जनता ने भारत के साथ आने का स्पष्ट निर्णय दिया होता तो संभव था कि अनुच्छेद 370 का स्वरूप बदल जाता या इसकी आवश्यकता ही नहीं रहती। यहां यह याद रखना चाहिए कि उस समय कश्मीर में जो हालात थे, उनमें किसी संविधान सभा का निर्माण निकट भविष्य में संभव नहीं दिख रहा था। लेकिन इस व्यवस्था में यह अंतर्निहित था कि ऐसी कोई संविधान सभा इस अनुच्छेद को खत्म भी कर सकती थी, संशोधित भी और अनुसंशित भी। ऐसे में जाहिर तौर पर इसीलिए जनमतसंग्रह या संविधान सभा के निर्माण के बाद अनुच्छेद 370 का स्वरूप बदल भी सकता था और यह समाप्त भी हो सकती थी। इस धारा के अस्थायी होने का संदर्भ इन्हीं दोनों स्थितियों से था और यह एक गलत मान्यता होगी कि अनुच्छेद 369 की तरह संविधान में इसका अस्तित्व थोड़े दिनों के लिए मुकर्रर किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने अभी हाल में संतोष गुप्ता बनाम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया मामले में इसकी ताईद की थी और कहा था कि इसे राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है लेकिन इसके लिए जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा से अनुमोदित कराना होगा और चूंकि वह सभा भंग हो चुकी है इसलिए यह किया नहीं जा सकता। अब भी जिसे हटाना कहा जा रहा है, वह मूलतः एक संशोधन है जिसे लेकर संविधान विशेषज्ञों में एकमत नहीं है। देखना होगा कि भविष्य में अगर यह मामला सर्वोच्च न्यायालय जाता है तो न्यायालय इस पर क्या निर्णय लेता है।
अक्सर कश्मीर को दिए गए विशेष राज्य के दर्जे को अनुच्छेद 370 से जोड़कर देखा जाता है लेकिन हकीकत यह है कि विशेष राज्य के दर्जे का अनुच्छेद 370 से कोई लेना-देना नहीं है। यह दर्जा देने संबंधी निर्णय राष्ट्रीय विकास परिषद लेती है जिसके सदस्य प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री तथा योजना आयोग (अब नीति आयोग) के सदस्य होते हैं। इन राज्यों को वित्त आयोग द्वारा धन का आवंटन करते समय विशेष ध्यान दिया जाता है। शुरुआत में तीन राज्यों, असम, नगालैंड और जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया था। बाद में इस सूची में आठ और राज्यों, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, उत्तराखंड, त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश और सिक्किम को जोड़ा गया।
किसी राज्य को विशेष दर्जा देने के लिए जो आधार बनाए गए, वे हैं– पहाड़ी और दुर्गम इलाके, कम जनसंख्या घनत्व और/या आदिवासी जनसंख्या का बाहुल्य, रणनीतिक महत्व वाले पड़ोसी देशों के सीमावर्ती इलाके, आर्थिक और आधारभूत ढांचे का पिछड़ापन और राज्यों की खराब वित्तीय स्थिति। जाहिर है इन मानदंडों के अनुसार पाकिस्तान से लंबी सीमा साझा करने वाला पहाड़ी क्षेत्र कश्मीर विशेष श्रेणी के राज्य का दर्जा पाने का हकदार है।
अनुच्छेद 35ए असल में जम्मू-कश्मीर में 1920 के दशक में कश्मीरी पंडितों के आंदोलन ‘कश्मीर कश्मीरियों के लिए’ के फलस्वरूप राजा हरि सिंह के समय बने राज्य उत्तराधिकार कानून का ही नया रूप था। नेहरू ने इसके बारे में संसद में कहा था, “यह कोई नई चीज नहीं है, बल्कि एक पुराना नियम है जो चला आ रहा है और मुझे लगता है यह बहुत अच्छी चीज है और इसे जारी रहना चाहिए, क्योंकि कश्मीर एक बेहद लुभावनी जगह है और (अगर यह नियम रद्द किया गया तो) यहां के निवासियों के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा कि अमीर लोग यहां की सारी जमीन ख्ारीद लेंगे। यह वास्तविक कारण है और यह कारण अंग्रेजों के जमाने से सौ से अधिक वर्षों से लागू है।”
370 लागू होने के बाद से ही जहां एक तरफ शेख अब्दुल्ला और कश्मीरी नेतृत्व राज्य की अलग पहचान और स्वायत्तता बनाने पर जोर दे रहा था, वहीं भारतीय राज्य लगातार इसे दूसरे राज्यों की तरह ही बनाना चाहता था। भूमि सुधारों के बाद जम्मू के डोगराओं का संगठन प्रजा सभा, आरएसएस के साथ मिलकर लगातार शेख के खिलाफ आंदोलन चलाने लगा तो उस समय अनुच्छेद 370 को मुद्दा बनाया गया। मुखर्जी इसके नायक बने और श्रीनगर में उनकी हृदयाघात से मृत्यु के बाद देश भर में अनुच्छेद 370 के नाम पर भावनाएं भड़काई गईं। शेख की गिरफ्तारी के बाद सत्ता में आए बख्शी गुलाम मोहम्मद के समय कश्मीर के एकीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई। 20 अक्टूबर 1953 को बेसिक प्रिंसिपल कमेटी तथा मूलभूत अधिकारों तथा नागरिकता पर एक सलाहकार समिति बनाई गई। 6 फरवरी 1954 को जम्मू-कश्मीर संविधान सभा ने दिल्ली समझौते के आधार पर की गई समिति की सिफारिशें स्वीकार कर लीं।
15 फरवरी 1954 को भारत में कश्मीर का विलय संविधान सभा द्वारा संस्तुत कर दिया गया। 1953 में पाकिस्तान द्वारा जनमतसंग्रह का प्रस्ताव ठुकराने के बाद भारत द्वारा इस संस्तुति को विलय का अंतिम फैसला मान लेना स्वाभाविक था। 13 अप्रैल 1954 को कश्मीर और शेष भारत के बीच का व्यापार सीमा शुल्क से मुक्त कर दिया गया, उसी महीने राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद अपनी पहली कश्मीर यात्रा पर गए और विलय संबंधी कागजात पर हस्ताक्षर किए। लाल बहादुर शास्त्री के समय गृहमंत्री रहे गुलजारी लाल नंदा इस एकीकरण को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे, तो तत्कालीन कश्मीरी प्रधानमंत्री गुलाम मोहम्मद सादिक ने उनका पूरा साथ दिया। भारी जनविरोध के बावजूद एक के बाद एक परिवर्तन लाकर प्रदेश की स्वायत्तता को लगातार कम किया गया, जिसमें जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टी, दोनों की सहमति थी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 और 357 अब कश्मीर के संदर्भ में भी लागू होने थे, यानी केंद्र, राज्य सरकार को अपदस्थ कर सकता था। राज्य की विधानसभा द्वारा अपना सदर-ए-रियासत चुनने की आजादी खत्म कर बाकी राज्यों की तरह केंद्र द्वारा नामित व्यक्ति की राज्यपाल के रूप में नियुक्ति का नियम बनाया गया। इसके अलावा, प्रधानमंत्री तथा सदर-ए-रियासत की जगह बाकी राज्यों जैसे मुख्यमंत्री और राज्यपाल के संबोधन तय किए गए।
यह प्रक्रिया आगे भी निर्बाध चलती रही। 2010 में कश्मीर गए दिलीप पडगांवकर, प्रो. एम.एम. अंसारी और प्रो. राधा कुमार की सदस्यता वाले वार्ताकार समूह ने अपनी रिपोर्ट में उस समय तक 370 के भीतर किए गए बदलावों की एक लम्बी सूची दी थी। (देखें बॉक्स) जम्मू-कश्मीर राज्य के संविधान के खंड iii के अनुसार, महाराजा हरि सिंह द्वारा 20 अप्रैल 1927 को बनाए गए कानूनों की परम्परा में, जम्मू-कश्मीर की महिलाओं के बाहर के किसी राज्य के पुरुष से विवाह करने पर राज्य में अचल संपत्ति खरीदने तथा नौकरी के अधिकार छिन जाते थे। लेकिन 17 अक्टूबर 2002 को जम्मू-कश्मीर की हाइकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में इसे भी निरस्त कर दिया था। इनको देखते हुए बहुत साफ है कि अनुच्छेद 370 का कुल मिलाकर प्रतीकात्मक महत्व रह गया था, और यह अलगाव का प्रतीक कम और कश्मीरी जनता के लिए अपनी अस्मिता का प्रतीक अधिक रह गया था।
अब उस प्रतीक को पूरी तरह खत्म करके सरकार ने जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाने का जो निर्णय लिया है, वह संविधान की दृष्टि से कितना सही है और कश्मीर समस्या को किस दिशा में ले जाएगा, यह तो उच्चतम न्यायालय और भविष्य ही बताएगा।
(लेखक कश्मीर के विशेषज्ञ हैं। उनकी चर्चित कृति कश्मीरनामा है)
पहले ही अमल में संविधान के ये अनुच्छेद
अनुच्छेद 248 : विधानसभा के रेजीड्युएरी अधिकार
अनुच्छेद 249 : राष्ट्रीय हित में राज्य की सूची से संबद्ध किसी मामले पर संसद काे कानून बनाने का अधिकार
अनुच्छेद 250 : आपातकाल की स्थिति में राज्य की सूची से संबद्ध किसी मामले पर संसद काे कानून बनाने का अधिकार
अनुच्छेद 251 : अनुच्छेद 249 तथा अनुच्छेद 250 के तहत संविधान द्वारा बनाए गए कानूनों और राज्य द्वारा बनाए गए कानूनों के बीच विसंगति पर निर्णय का अधिकार
अनुच्छेद 254 : संसद तथा राज्य द्वारा बनाए गए कानूनों के संबंध में अधिकार
अनुच्छेद 262 : अंतरराज्यीय नदियों तथा नदी घाटियों से जुड़े विवादों पर निर्णय का अधिकार
अनुच्छेद 263 : अन्तःराज्य काउंसिल
अनुच्छेद 355 : बाहरी आक्रमण तथा आंतरिक गड़बड़ियों के मामले में राज्य की सुरक्षा
अनुच्छेद 356, 357 : केंद्र की संघीय सरकार को राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता या संविधान के स्पष्ट उल्लंघन की दशा में राज्य सरकार को बर्खास्त कर उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का अधिकार
अनुच्छेद 358 : आपातकाल के समय अनुच्छेद 19 के प्रावधानों का स्थगन
अनुच्छेद 359 : आपातकाल के समय भाग iii द्वारा दिए गए अधिकारों का स्थगन
अनुच्छेद 360 : आर्थिक आपातकाल के प्रावधान
अनुच्छेद 72 (1) सी : सजा-ए-मौत के मामले में राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान
अनुच्छेद 72 (93) सजा-ए-मौत के संबंध में राज्यपाल के अधिकार
अनुच्छेद 133-136 : उच्चतम न्यायालय के पुनर्विचार संबंधी, फेडरल कोर्ट और स्पेशल लीव पिटीशन के अधिकार
अनुच्छेद 138 : उच्चतम न्यायालय के क्षेत्राधिकार का विस्तार
अनुच्छेद 145 (1) सी : खंड iii में दिए गए अधिकारों के संबंध में उच्चतम न्यायालय के अधिकार
अनुच्छेद 151 (2) : राज्यपाल द्वारा विधानसभा में भारत के नियंत्रक तथा महालेखाकार द्वारा राज्य के खर्चों के लेखों की प्रस्तुति
अनुच्छेद 149 : भारत के नियंत्रक एवं महालेखाकार के अधिकार और कर्तव्य यहां भी लागू होंगे
अनुच्छेद 150 : केंद्र तथा राज्य के लेखों से संबद्ध
अनुच्छेद 151 : ऑडिट रिपोर्ट
अनुच्छेद 218 : उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का महाभियोग
अनुच्छेद 220 : उच्च न्यायालय का स्थायी जज नियुक्त होने के बाद वकालत पर प्रतिबंध
अनुच्छेद 222 : उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरण
अनुच्छेद 226 : उच्च न्यायालयों के कुछ रिट जारी करने का अधिकार
अनुच्छेद 338 : अनुसूचित जातियों के लिए राष्ट्रीय आयोग
अनुच्छेद 339 : अनुसूचित क्षेत्र तथा अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के मामलों में प्रशासन पर केंद्र का नियंत्रण
अनुच्छेद 340 : पिछड़ी जातियों की स्थिति जानने के लिए आयोग की नियुक्ति
अनुच्छेद 341 : अनुसूचित जातियां
अनुच्छेद 342 : अनुसूचित जनजातियां
अनुच्छेद 368 क्लाज़ (4) : अनुच्छेद 368 के तहत हुए संशोधन के किसी न्यायालय में चुनौती न दे सकने से संबद्ध