उन बातों पर गौर कीजिए, जिसे भारत में लोग देश में हो रहे बदलावों के बारे में तयशुदा मान लेते हैं। कुछ बदलाव तो बहुत पहले ही अनुभव किए जाने लगे, भले वे कुछ कम चर्चित रहे। लेकिन इन कम चर्चित बदलावों पर भी आज लोग पहले से अधिक निर्भर हैं, जानकारियां एक-दूसरे से साझा करते हैं और एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं। यह भी सही है कि लोग पूर्वाग्रह और अन्याय को लेकर अधिक संवेदनशील बन रहे हैं। लोग अधिक भरोसेमंद हैं और हर व्यक्ति आज पहले की तुलना में अधिक सक्षम है। विश्वास का चक्र बढ़ा है।
भारत के लोग जेनोफोबिक कभी भी नहीं थे, लेकिन आज वे अजनबियों पर अधिक भरोसा करते हैं, पहले से कहीं अधिक असहमति का स्वागत करते हैं। ये अमूर्त बदलाव हैं, जो तभी दिखाई देते हैं जब आप आजकल तयशुदा मानी जाने वाली कई चीजों को देखते हैं। हमारी आने वाली किताब में यह तर्क है कि कम-से-कम भारत में, भौतिक स्थितियों में इन नाटकीय बदलावों को समझने की हमारी क्षमता विस्तृत हो गई है। 19वीं सदी में विकसित हमारे विचारों के टूल किट निर्णय लेने के लिए गैर-भरोसेमंद साबित हुए हैं और आज के दौर में भ्ारोसे में हो रही वृद्धि को समझने में असमर्थ है। इसके नतीजे अक्सर विश्लेषण में अक्सर अतिरंजना और पक्षपात के रूप में सामने आते हैं। जरा सोचिए कि पीएमसी बैंक में जो कुछ गड़बड़झाला हाल में हुआ, वह ज्यादातर आमने-सामने के रिश्तों पर अनुचित निर्भरता के कारण हुई, जो एक ही समुदाय, एक ही जाति, एक ही धर्म का हिस्सा थे।
दूसरे स्तर पर, लोगों की एक-दूसरे पर निर्भरता और उनकी विश्वसनीयता केवल फोन कनेक्टिविटी, इंटरनेट और सोशल मीडिया के बारे में नहीं है। इसका तात्पर्य उस हवा को भी साझा करने से नहीं, जिसमें हम सांस लेते हैं या पानी जिसे हम पीते हैं या अनियंत्रित ट्रैफिक जिससे मृत्यु दर बढ़ती है। यह उससे कहीं अधिक व्यापक है। मैं यह भी शर्त लगा सकता हूं कि अगर कोई 1980 के दशक के उत्तरार्ध में सो गया था, आज उठे तो वह भी आज के भारत को नहीं पहचान पाएगा।
तीन दशक पहले भारत अपेक्षाकृत छोटे स्तर का समाज था, जहां आप अपने आसपास के सभी लोगों को जानते थे और वे भी आपको या आपके बारे में जानते थे। हमारी खरीदारी, नौकरी और यहां तक कि वैवाहिक संबंध सभी इस सीमित सामाजिक दायरे से निर्धारित थे। छोटे शहर के बाहर की दुनिया, मुहल्ला या गांव या पारिवारिक दायरे बमुश्किल ही हमारे जीवन को प्रभावित करते थे। हमारा विश्वास उन लोगों तक सीमित था, जिनसे हम सीधे जुड़े हुए थे। अब ऐसा नहीं है। विश्वास का दायरा कैसे बढ़ा है, इसकी झलक बड़े-कस्बों के भारत में नए जीवन पद्धति पनपने से दिखाई देती है।
1990 के दशक तक युवा माता-पिता और दोस्तों की सलाह से ही ज्यादातर यह तय करते थे कि उन्हें किस तरह के जूते खरीदने हैं, किस कोर्स की पढ़ाई करनी है, किस तरह की नौकरी करनी है और किससे दोस्ती करनी है या नहीं। मित्रता और विश्वास का चक्र वास्तव में सीमित था। मसलन, चंडीगढ़ के िकसी होनहार छात्र खासकर किसी छात्रा को उसके मां-बाप कानपुर या चेन्नै आइआइटी में पढ़ने के लिए भेजने में संकोच करते थे, क्योंकि वहां उनके कोई रिश्तेदार नहीं थे। आज तो आइआइटी में पढ़ाई का विचार ही हमें उतना जोरदार नहीं लग सकता है। पहले कोई छात्र मेडिकल प्रवेश परीक्षा पास नहीं कर पाता था, तो मेडिकल की पढ़ाई ही छोड़ देता था, लेकिन आज उसके सामने दंत चिकित्सा, माइक्रो बॉयोलॉजी जैसे अनेक विकल्प खुले हुए हैं।
जब लोगों ने दूर बड़े शहरों में नौकरी शुरू की, तो उन्हें कंपनियों ने अकेले रहने वाले बैरकों में रखा, क्योंकि अकेले, अनुभवहीन और कम संपन्न लोगों के रहने के लिए शहरों में लॉजिस्टिकल सपोर्ट बहुत कम थे। आज साझा फ्लैटों का विकल्प है, जिसे युवा सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म के जरिए किराए पर लेते हैं। फिर फ्लैट मालिक उन सभी के साथ एक अलग अनुबंध पर हस्ताक्षर करता है। फ्लैट में रहने वाले सभी साथी अलग-अलग कंपनी में काम करते हैं और उनके आने-जाने का समय भी अलग-अलग होता है। इस तरह का भरोसा हाल तक दिखाई नहीं दिया था। इन युवाओं को नौकरानी की तलाश करने की कोई जरूरत नहीं है। वह बस सफाई करने और फ्लैट में रहने वालों के लिए खाना बनाने के लिए आती है। अक्सर वह खाली फ्लैट में काम करती है। वह हर दिन दो या तीन फ्लैटों में काम कर सकती है। यदि किसी मरम्मत की जरूरत पड़ती है, तो इंटरनेट के जरिए स्थानीय मरम्मतकर्ता की मदद ली जा सकती है। वह फ्लैट में रहने वालों के काम पर चले जाने के बाद आता है और मरम्मत करता है। उसे भीम जैसे एप्लिकेशन के जरिए भुगतान किया जाता है।
समाज में रोजमर्रा की नौकरियों के लगातार व्यवसायीकरण से भरोसे में बढ़ोतरी हुई है, जिस पर ध्यान नहीं गया है। आज किसी कॉन्स्टेबल की बेटी के आइपीएस परीक्षा पास करने की खबरें भी सुनी जाती हैं। यह खास बदलाव भी समाज को कई तरीकों से प्रभावित कर रहा है।
1960 के दशक में गरीबी उन्मूलन पर जोर देने वाले देश के केंद्रीय नेतृत्व ने देश में टेलीविजन नेटवर्क विकसित करने के अवसर को इस भरोसे में दरकिनार कर दिया कि टीवी विलासिता की चीज थी। तब फोन भी विलासिता की वस्तु थी। आज हर घर में टीवी है और लोगों के पास इंटरनेट कनेक्शन से लैस फोन हैं। वास्तव में आज उलटा है, टीवी या मोबाइल न रखना भी अलग हैसियत और गर्व या कहें दंभ का प्रतीक है। देश भर के किसान-मजदूरों को मुफ्त टीवी, मुफ्त इंटरनेट और मुफ्त टेलीफोन कनेक्टिविटी जैसे प्रस्तावों से आकर्षित किया जाता है।
कुछ उदाहरणों से पता चलता है कि कैसे सूचना तक आसानी से पहुंच ने सामाजिक हिंसा को भड़काने का काम किया। लोगों को यह महसूस करने में कुछ समय लगा कि आसानी से उपलब्ध जानकारी गुमराह भी कर सकती है। लेकिन, आज बहुत सारे सबूत हैं कि आम लोग जल्दी से सीख रहे हैं कि कैसे तथ्यों की पहचान करें, अफवाह पर ध्यान न दें। यहां तक कि नई प्रौद्योगिकियों द्वारा अति-राष्ट्रवाद का डर अक्टूबर 2019 के चुनावी नतीजों के बाद अतिरंजित साबित हुआ है। ऐसी कई वेबसाइट हैं, जो अनुसंधान करने वालों को लाखों पुस्तकों और वैज्ञानिक लेख मुहैया कराती हैं। और, इसने औपचारिक ज्ञान को नियंत्रित करने वालों के एकाधिकार को पूरी तरह से खत्म कर दिया है। विश्वविद्यालय व्यापक ऑनलाइन पाठ्यक्रमों से जो ज्ञान देते हैं, इंटरनेट आज उसी औपचारिक ज्ञान से आम लोगों को सशक्त बना रहा है। आज विश्वविद्यालय ज्ञान का एकमात्र स्रोत होने के बजाय बाजार के लिए ज्ञान को प्रमाणित करने की भूमिका तक सीमित हो गए हैं।
यह सब इंटरनेट से संभव हुआ है। भारत में किसी भी विचारधारा, सामाजिक सुधार आंदोलन या सामाजिक असमानता को कम करने वाले कानून की तुलना में फोन, इंटरनेट और टेलीविजन के प्रसार ने स्वतंत्रता और समृद्घि में वृद्धि की है। इसने लोगों को सामाजिक बुराई के प्रति संवेदनशील भी बनाया है और यह बुरा व्यवहार करने वालों पर नकेल कसने का मौका देता है। इंटरनेट ने सामाजिक गतिशीलता, बेहतर निर्णय लेने और उच्च लाभ के लिए तेजी से संभावनाओं का विस्तार किया है।
सूचना के संस्थागत स्रोतों की उपलब्धता ने लोगों के लिए विश्वास का दायरा बढ़ाया है। सोच में इस तरह के बदलाव ने दैनिक जीवन की दिनचर्या को प्रभावी ढंग से बदल दिया है और लोगों को सशक्त बनाया है। आज हमारे दोस्त सिर्फ कॉलेज, स्कूल या नौकरी वाली जगह तक सीमित नहीं हैं, बल्कि सोशल मीडिया अकाउंट अद्भुत काम कर सकता है। कोई व्यक्ति किसी नौकरी से नाखुश है, तो इंटरनेट वैकल्पिक प्लेसमेंट खोजने का जरिया बन सकता है। लोग बेहतर निर्णय लेने में सक्षम हुए हैं।
(पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ में इतिहास के प्रोफेसर, कई किताबों के लेखक)
--देश में फोन, इंटरनेट और टेलीविजन के प्रसार ने स्वतंत्रता और समृद्घि में वृद्धि की है, जो कोई कानून भी नहीं कर पाया