कहने को तो एजीआर (एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू) एक तरह की फीस है, लेकिन यह फीस आम आदमी से लेकर टेलीकॉम इंडस्ट्री को कितनी भारी पड़ने वाली है, इसी का हिसाब-किताब करने में पूरी इंडस्ट्री फंस गई है। सुप्रीम कोर्ट ने बीते 14 फरवरी को 20 साल से चल रहे एजीआर विवाद पर फैसला सुना दिया है। फैसले के अनुसार, टेलीकॉम कंपनियों को 17 मार्च 2020 तक सरकार को 1.47 लाख करोड़ रुपये चुकाने होंगे। चार लाख करोड़ रुपये के कर्ज में डूबी टेलीकॉम कंपनियों के लिए यह रकम चुकाना आसान नहीं दिख रहा है। इसलिए जहां वोडाफोन-आइडिया के भारत से अपना कारोबार बंद करने के कयास लगाए जा रहे हैं, वहीं इंडस्ट्री एक्सपर्ट यह भी मान रहे हैं कि आने वाले दिनों में कॉल और डाटा रेट भी बढ़ जाएंगे। साथ ही, सेक्टर में बड़े पैमाने पर छंटनी का दौर भी शुरू हो सकता है। देश में केवल एयरटेल और रिलायंस जियो कंपनियां ही प्राइवेट सेक्टर (डुओपोली) में रह जाएंगी। इसका नुकसान सीधे तौर पर उपभोक्ता को होगा।
वोडाफोन-आइडिया के भारत से कारोबार समेटने के कयास को इसलिए बल मिल रहा है, क्योंकि नवंबर 2019 में एजीआर विवाद पर वोडाफोन ग्रुप के सीईओ निक रीड ने कहा था, “भारत में बिजनेस करने के लिए लंबे समय से चुनौतीपूर्ण स्थितियां बनी हुईं हैं, इसकी एक प्रमुख वजह ज्यादा टैक्स और गैर सहयोगी रेग्युलेशन हैं।” सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वोडाफोन-आइडिया को 53,000 करोड़ रुपये और एयरटेल को करीब 35,500 करोड़ रुपये चुकाने होंगे। जबकि टाटा टेलीसर्विसेज को 13,800 करोड़ रुपये, बीएसएनएल को 4,989 करोड़ रुपये और एमटीएनएल को 3,122 करोड़ रुपये चुकाने होंगे। गिरती कमाई से परेशान कंपनियों के लिए यह रकम चुकाना बेहद मुश्किल नजर आ रहा है। इसलिए वोडाफोन-आइडिया ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी कि पैसे समय पर नहीं चुकाने की स्थिति में वह दूरसंचार विभाग को यह निर्देश दे कि वह कंपनी पर कोई सख्त कार्रवाई नहीं करेगा। हालांकि कोर्ट ने कंपनी की यह अपील ठुकरा दी है। फैसला आने के बाद जहां एयरटेल ने बकाया रकम में से 10 हजार करोड़ रुपये चुका दिए हैं। वोडाफोन ने 2,500 करोड़ रुपये चुकाए हैं, जबकि उसने एक हजार करोड़ रुपये आने वाले हफ्ते चुकाने की बात कही थी।
कंपनियों की शिकायत है कि एजीआर के जरिए ली जाने वाली फीस का फॉर्मूला उचित नहीं है, जिसकी वजह से वे 20 साल से भुगतान नहीं कर रही हैं। विवाद कैसे शुरू हुआ, इस पर बीएसएनएल के पूर्व सीएमडी आर.के. उपाध्याय का कहना है, “टेलीकॉम सेक्टर एक बार फिर 20 साल पहले वाली स्थिति में पहुंच गया है। 1994 में न्यू टेलीकॉम पॉलिसी आने के बाद कंपनियों को फिक्स्ड लाइसेंस फीस के जरिए लाइसेंस देने की नीति तैयार की गई। लेकिन कुछ ही समय में कंपनियों को लगा कि फिक्स्ड लाइसेंस फीस के जरिए वे जितनी रकम चुकाएंगी उससे टेलीकॉम बिजनेस फायदेमंद नहीं रह जाएगा। आज की तरह उस वक्त भी कंपनियां बिजनेस बंद करने की धमकी दे रही थीं। ऐसे में, कंपनियों को बचाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाते हुए 1999 में नया फॉर्मूला तैयार किया, जिसके तहत कंपनियों को लाइसेंस फीस और स्पेक्ट्रम यूसेज चार्ज देना था। यही फॉर्मूला एजीआर कहलाया।”
अब सवाल उठता है कि जब कंपनियों ने सरकार के साथ मिलकर इस फॉर्मूले को स्वीकार किया था, तो वह पिछले 20 साल से इसके तहत ली जाने वाली फीस क्यों नहीं चुका रही हैं? एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने वाले टेलीकॉम एक्सपर्ट का कहना है, “एजीआर के तहत जो नियम बनाए गए, उसमें एक बड़ी खामी है। इस नियम के अनुसार फीस की गणना टेलीकॉम सेवाओं के अलावा कंपनियों को दूसरे मद से होने वाली कमाई पर भी होती है। यानी अगर कोई टेलीकॉम कंपनी अपने एसेट बेचती है, तो उसे भी एजीआर में शामिल किया जाएगा। इसी पर कंपनियों को आपत्ति है। उनका कहना है कि सरकार को उस कमाई पर फीस लेनी चाहिए, जो टेलीकॉम सेवाओं के जरिए की गई है।”
अब चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने कंपनियों की दलील को दरकिनार करते हुए फैसला सुना दिया है, तो उनके पास पैसे चुकाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। इस फैसले पर सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआइ) के डायरेक्टर जनरल राजन मैथ्यू का कहना है, “टेलीकॉम सेक्टर इस समय बुरे दौर से गुजर रहा है। करीब चार लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। उस पर से नई देनदारी सेक्टर पर बहुत भारी पड़ने वाली है। कंपनियां पहले ही अपनी कुल कमाई का 29-32 फीसदी टैक्स के रूप में चुका रही हैं। इन परिस्थितियों में संकट और बढ़ने वाला है।”
मामले को इतना लटकाने के लिए कौन जिम्मेदार है, इस पर आर.के.उपाध्याय कहते हैं, “इसके लिए टेलीकॉम इंडस्ट्री के साथ-साथ ब्यूरोक्रेसी भी जिम्मेदार है। समझ में नहीं आता कि जब 1999 में एजीआर का फॉर्मूला बना था तो उस वक्त कंपनियों ने क्यों नहीं सवाल खड़े किए। 20 साल से जब कंपनियां पैसा नहीं चुका रही हैं तो टेलीकॉम डिपार्टमेंट हाथ पर हाथ रखे क्यों बैठा था? ऐसा भी नहीं था कि किसी कोर्ट ने स्टे ऑर्डर दे रखा था, इसलिए पैसे वसूले नहीं गए। दूसरी बात, कंपनियों को यह पता था कि कानूनी रूप से वह इस मामले में जीत नहीं सकती थीं, फिर भी उन्होंने प्रोविजनिंग क्यों नहीं की। सीधी सी बात है कि दोनों पक्षों से मामले को लटकाने की कोशिश की गई। इसका खामियाजा टेलीकॉम ग्राहकों को उठाना पड़ रहा है।”
इंडस्ट्री से जुड़े लोगों की एक चिंता और भी है कि अगर वोडाफोन-आइडिया ने भारत से अपना कारोबार समेट लिया, तो फिर भारतीय टेलीकॉम ग्राहकों के लिए अच्छा नहीं होगा। क्योंकि देश में ज्यादातर टेलीकॉम बिजनेस एयरटेल और रिलायंस जियो के पास चला जाएगा। जिसका असर बढ़ी हुई टैरिफ दरों के रुप में दिखेगा। रिसर्च फर्म मोतीलाल ओसवाल की रिपोर्ट के अनुसार, “इन परिस्थितियों में वोडाफोन-आइडिया के ग्राहक इन दोनों कंपनियों के पास चले जाएंगे। और इन कंपनियों की कमाई 22 से 29 फीसदी तक बढ़ जाएगी।” यानी ग्राहकों से ज्यादा कंपनियों को फायदा होने वाला है।
इन परिस्थितियों में रास्ता क्या है, इस पर उपाध्याय और दूसरे एक्सपर्ट कहते हैं, “सबसे पहले यह समझना होगा कि एजीआर का फॉर्मूला गलत है। उसे खत्म किया जाना चाहिए। साथ ही जिस तरह से 1999 में वाजपेयी सरकार ने राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई थी, उसी तरह अभी मोदी सरकार को पहल करनी होगी।” ऐसा इसलिए जरूरी है, क्योंकि दुनिया के सबसे बड़े टेलिकॉम मार्केट में से एक भारत के ग्राहकों को न केवल “पॉकेट फ्रेंडली” माहौल चाहिए, बल्कि इकोनॉमी को बूस्ट करने के लिए विदेशी निवेश भी चाहिए। अब गेंद सरकार के पाले में है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला किया है वह बने नियमों के आधार पर किया है। सरकार ही इस संकट से निकलने का रास्ता निकाल सकती है। जो आने वाले समय में उसकी इच्छाशक्ति पर निर्भर करेगा।
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नई देनदारी भारी पड़ने वाली है। इंडस्ट्री पर चार लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। कंपनियां पहले ही भारी टैक्स चुका रही हैं
राजन मैथ्यू
डायरेक्टर जनरल, सीओएआइ