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ज्ञान-विरोधी विचारधारा

उच्च शिक्षा संस्थानों में जिस प्रकार की घटनाएं घट रही हैं, उससे लगता है, शोध पर गाज गिराई जा रही है
एनसीईआरटी ने पाठ्य पुस्तकों से हटाए कई अध्याय

वर्तमान भारतीय यथार्थ का एक नकारात्मक पहलू यह भी है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान सुनियोजित और सुव्यवस्थित रूप से ज्ञान-विरोधी और विवेक-विरोधी विचारधारा को फैलाया और प्रोत्साहित किया जा रहा है। इस काम में केंद्र और कई राज्यों में शासन कर रही भारतीय जनता पार्टी ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिनकी शैक्षिक योग्यता आज तक रहस्य के कुहासे में लिपटी हुई है, ने “हार्वर्ड बनाम हार्डवर्क” की बहस छेड़कर सिद्ध कर दिया था कि हार्वर्ड यानी उत्कृष्ट शिक्षा संस्थान में अध्ययन कड़ी मेहनत के सामने कुछ भी नहीं है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय समेत देश के अनेक उच्च कोटि के शिक्षा संस्थानों में जिस प्रकार की घटनाएं घट रही हैं, उनसे यही पता चलता है कि वहां ऊंचे दर्जे की पढ़ाई और शोध के ऊपर गाज गिराई जा रही है और विवेकशून्य सैन्यवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। फीस बढ़ाना और शोध पर नियंत्रण करने की कोशिश करना भी इसी प्रक्रिया की कड़ी है। खबर है कि “अप्रासंगिक” विषयों पर शोध करने को स्वीकृति प्रदान न की जाए, इसके प्रयास किए जा रहे हैं।

प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक जॉर्ज लुकाच ने जर्मनी में नात्सीवाद के उदय के पीछे की लंबी विवेकवाद-विरोधी दार्शनिक परंपरा की पड़ताल करते हुए महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखा था, जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘द डेस्ट्रक्शन ऑफ रीजन’ (विवेक का ध्वंस) शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने विभिन्न जर्मन दार्शनिकों के विचारों का विश्लेषण कर दर्शाया था कि नात्सीवाद अचानक प्रकट नहीं हुआ बल्कि उसकी वैचारिक जड़ें जर्मन परंपरा में दूर तक फैली हुई थीं, इसलिए अनुकूल परिस्थितियों में एक चतुर नेता के नेतृत्व में वह एक राजनीतिक प्रवृत्ति के रूप में उभरकर अपना वर्चस्व जमाने में आसानी से सफल हो सका। भारत के संदर्भ में विवेकवाद-विरोधी विचार परंपरा का अध्ययन और विश्लेषण करने का संभवतः ऐसा वृहत प्रयास अभी तक नहीं हुआ है।

वस्तुनिष्ठता, तथ्य और सत्य- इन सभी पर हमला विवेकवाद-विरोधी दर्शन यानी अविवेकवाद का मूलमंत्र है। जर्मन कंजरवेटिव क्रांतिकारी हरमन रॉशनिंग, जो 1934 से लेकर 1936 तक नात्सी पार्टी के सदस्य रहे और फिर भाग कर अमेरिका जा बसे, ने हिटलर के साथ अपनी बातचीत के आधार पर एक पुस्तक 1940 में प्रकाशित की थी, जो कई देशों में अलग-अलग नाम से छपी जिनमें एक नाम ‘द वॉयस ऑफ डेस्ट्रक्शन’ (ध्वंस की आवाज) भी था। इसमें हिटलर ने राष्ट्र की अवधारणा को नस्ल के आधार पर परिभाषित करने पर जोर दिया था और साथ में यह भी कहा था, “मुझे अच्छी तरह पता है कि वैज्ञानिक अर्थ में नस्ल जैसी कोई चीज नहीं है। लेकिन एक राजनीतिज्ञ के तौर पर मुझे एक ऐसी अवधारणा की जरूरत है जो पहले के ऐतिहासिक आधारों को नष्ट करके उनके स्थान पर एक नितांत नई, अनैतिहासिक प्रणाली को बौद्धिक आधार पर स्थापित करे।” जब रॉशनिंग ने “प्रोटोकॉल्स ऑफ द वाइज मेन ऑफ जियोन” के बारे में पूछा तो हिटलर ने कहा कि उसे इस बात से कोई मतलब नहीं है कि यह पुस्तक और उसमें वर्णित कहानी ऐतिहासिक रूप से सच है या नहीं। यहां यह बता दें कि इस पुस्तक में यहूदियों द्वारा अपना वर्चस्व स्थापित करने की मनगढ़ंत कहानी लिखी गई थी और इसका नात्सियों ने अपने यहूदी-विरोधी प्रचार और उन पर हमले करने का औचित्य सिद्ध करने के लिए भरपूर इस्तेमाल किया था।

हमारे देश में भी वस्तुनिष्ठता और ऐतिहासिक तथ्य को नकारने की प्रवृत्ति फलती-फूलती जा रही है। जब भी और जहां भी भाजपा सत्ता में आती है, इतिहास के साथ छेड़छाड़ शुरू हो जाती है। कुछ समय पहले राजस्थान में पद्मावती पर इसी कारण बेवजह का हंगामा खड़ा किया गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने तो इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में यह ऐतिहासिक तथ्य तक बदलवा डाला कि हल्दी घाटी की लड़ाई में मुगल बादशाह अकबर की सेनाओं से राणा प्रताप हार गए थे। अब खबर है कि एनसीईआरटी ने कक्षा नौ की पाठ्य पुस्तकों से जो तीन अध्याय हटाए हैं, उनमें एक जाति संघर्ष पर भी है। यानी विद्यार्थियों को दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों द्वारा अपना आत्मसम्मान और अस्मिता हासिल करने के लिए किए गए संघर्षों के बारे में जानने की कोई जरूरत नहीं है।

इसी विवेकवाद-विरोधी प्रवृत्ति का नतीजा है कि अब निर्दोष लोगों पर हिंसा रोजमर्रा की सामान्य-सी बात लगने लगी है क्योंकि उसका औचित्य सिद्ध करने के लिए मनगढ़ंत तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं। यूं भी पिछले डेढ़ सौ साल का इतिहास सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं से भरा पड़ा है और दिल्ली एवं अन्य शहरों में हुई 1984 की सिख-विरोधी हिंसा तथा 2002 में गुजरात में हुई मुस्लिम-विरोधी हिंसा के कारण समाज की संवेदना भी भोथरी हो गई है। महमूद ममदानी ने अपनी पुस्तक ‘गुड मुस्लिम, बैड मुस्लिम’ (अच्छा मुस्लिम, बुरा मुस्लिम) में बताया है कि उन्नीसवीं सदी में किस तरह यूरोपीय विचार परंपरा में नस्ली श्रेष्ठता की अवधारणा जड़ जमा चुकी थी और उपनिवेशवादियों ने साठ वर्षों के दौरान आयरलैंड के क्षेत्रफल वाले द्वीप तस्मानिया की पूरी आबादी का सफाया कर दिया था। यही हाल न्यूजीलैंड के माओरी आदिवासियों और दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका के हेर्रो आदिवासियों का हुआ था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार वस्तुनिष्ठता और सही आंकड़ों की परवाह नहीं करती और इसलिए 108 अर्थशा‌स्त्रियों और समाज वैज्ञानिकों को एक बयान जारी करके अपना विरोध जताना पड़ा। हमारी प्राचीन विचार परंपरा में विवेकवाद को पुष्ट करने वाले अनेक तत्व हैं। यदि इस देश में वस्तुनिष्ठता और सत्य का मान न होता, तो क्या यहां आर्यभट्ट और वराहमिहिर जैसे गणितज्ञ पैदा हो सकते थे?          

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

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