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8 जनवरी 2023 · JAN 08 , 2024

आवरण कथा/अवैध खुदाईः गुमनाम मौतों के सूबे में

धनबाद के दर्जनों गांवों के बाशिंदों के लिए रोजगार का संकट उन्हें अवैध खनन की ओर ले जाता है
अवैध खदानों के सहारे कई मजदूर जीवनयापन करते हैं

पहले कागज, फिर कर्ज माफी! पिछले एक साल में ऐसा कोई हफ्ता नहीं बीता जब महिला मंडल ने रमेश (36 साल, बदला हुआ नाम) से कर्ज माफी के लिए उसकी पत्‍नी सीता का मृत्‍यु प्रमाण-पत्र न मांगा हो। पिछले साल 1 फरवरी को धनबाद के निरसा में ओपन कास्ट खदान के एक हिस्‍से के धंसने से कथित अवैध खनन करने वाले 16 मजदूरों की मौत हो गई थी, जिसमें सीता (32 साल, बदला हुआ नाम) भी शामिल थी। कानूनी पचड़े से बचने के लिए आनन-फानन रमेश ने पत्नी के शव को खदान से जैसे-तैसे बाहर निकाला और कुछ ही घंटों में उसका दाह संस्कार कर दिया। रमेश के मुताबिक सीता की मौत का कारण खनन के दौरान मिट्टी में दबकर दम घुटना थी, लेकिन आधिकारिक तौर पर यह मौत दर्ज ही नहीं की गई।

रमेश आउटलुक से बताते हैं, “पुलिसिया कार्रवाई के डर से हम लोगों को जल्दीबाजी में अंतिम संस्कार करना पड़ा। मुझे नहीं पता था मेरा यह फैसला बड़ी समस्या बन जाएगा। अब ऐसा लगता है कि मेरी पत्नी की मौत गुमनाम है, जिसका सत्यापन शायद कभी नहीं हो पाएगा। डेथ सर्टिफिकेट बन जाता, तो महिला मंडल वाले लोग उसका कर्जा माफ कर देते। चालीस हजार रुपये कर्ज का हर महीने ब्याज बढ़ रहा है। मेरी उतनी कमाई ही नहीं है कि कर्ज की रकम या ब्याज भर पाऊं।” 

अवैध खदानों के सहारे कई मजदूर जीवनयापन करते हैं

अवैध खदानों के सहारे कई मजदूर जीवनयापन करते हैं

धनबाद जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर की दूरी पर बसा रमेश का गांव उन दर्जनों गांवों में शामिल है जिनकी जमीनें कोयले के खदानों से बंजर हो चुकी हैं। इसलिए लोगों के जीवनयापन का सहारा दूसरे शहरों में जाकर मजदूरी करना या आसपास बंद पड़ी कोयला खदानों से अवैध ढंग से कोयला निकाल कर बेचना है। यहां के लोग राशन, पानी, बिजली और घर जैसी समस्याएं तो गिनाते ही नहीं हैं। यहां के लोगों को अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए जान जोखिम में डालकर बंद पड़ी खदानों में छोटे-छोटे कुएं या गड्डे खोदकर कोयला निकालना पड़ता है। इसी प्रक्रिया को अंग्रेजी में रैटहोल माइनिंग कहते हैं। 

सीता भी यही जोखिम उठाती थी ताकि वह अपने दोनों बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ा सके। उसकी मौत के बाद दोनों बच्चों का प्राइवेट स्कूल जाना छूट गया है। रमेश कहते हैं, “दोनों को अब सरकारी स्कूल में डाल दिया है। बच्चों की देखभाल के लिए मुझे दो महीना घर और दो महीना बाहर (गोआ, गुजरात) रहना पड़ता है। हर महीने स्कूल की फीस, नई ड्रेस, महंगी किताब कहां से ला पाता? सीता पढ़ाई का खर्चा निकाल लेती थी।” 

रमेश के मुताबिक सीता रोजाना रैटहोल माइनिंग करके लगभग 200 रुपये तक का कोयला बेच लेती थी। रैट होल माइनिंग के दौरान सिर्फ धनबाद जिले में इस साल दर्जनों मौतें हुई हैं। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक मार्च में 4, जून में 3, सितंबर में 3, अक्टूबर में 2, नवंबर में 1 मौत हुई है, हालांकि ये आंकड़े न्यूनतम हैं। सैकड़ों के घायल होने की खबर नियमित आती है।

काला सोनाः उद्योगपतियों के लिए कोयला फायदे का सौदा, मजदूरों के लिए मौत का सामान

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आउटलुक ने इस सिलसिले में रैटहोल माइनिंग से जुड़े दर्जन भर मजदूरों और कई मजदूर संगठनों से यह जानने की कोशिश की कि हर साल कितने कोयला मजदूर अवैध खनन में दब कर मर जाते हैं, लेकिन इसका कोई निर्धारित आंकड़ा नहीं मिल पाया। उदाहरण के तौर पर, रामगढ़ के मांडू ब्लॉक में पड़ने वाली तपिन बस्ती में इसी साल अप्रैल में सुधनी (38 साल, बदला हुआ नाम) रैटहोल माइनिंग करते हुए एक मलबे में दबकर मर गई। इनके पति का देहांत पंद्रह साल पहले हो चुका है। बच्चों के पालन-पोषण और घर की जरूरतों को पूरा करते-करते सुधनी भी उन गुमनाम मौतों में शामिल हो चुकी है जिसके बारे में उनके बच्चे भी अब बात करना पसंद नहीं करते। 

रैटहोल माइनिंग से रामगढ़ और हजारीबाग जिलों के हजारों घरों का चूल्हा जलता है। रामगढ़ के मांडू ब्लॉक में कई ओपेन कास्ट खदानें बंद पड़ी हैं, जहां लोग चोरी-छुपे रैटहोल माइनिंग करते थे। मांडू के सामाजिक कार्यकर्ता माहालाल हंसदा कहते हैं, “मौत सिर्फ खनन में दबकर नहीं होती है। यहां के लोगों को कोयले के धुएं और धूल से टीबी, दमा होता है। साथ ही जब वे साइकिल से कोयला ढोकर बेचने जाते हैं तब हाइवे पर ट्रक की चपेट में आकर भी मरते हैं। इन मजदूरों के हाथ से जमीन, जंगल निकल गया है। दूसरा कोई रोजगार नहीं है इनके पास। जीने के लिए अवैध खनन ही साधन है।” हंसदा के पास भी इस इलाके में अवैध खनन के दौरान दबकर हुई मौतों का कोई आंकड़ा नहीं है।

सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू), झारखंड के सदस्य के. समीर दास बताते हैं कि अवैध खनन में मरने वाले मजदूरों का कोई आंकड़ा नहीं होता है। उनका कहना है कि यह प्रतिबंधित काम है जहां लोगों को संगठित नहीं किया जा सकता, इस लिहाज से इनका आंकड़ा जुटाना बहुत मुश्किल है।

अखड़ा प्रोडक्शन द्वारा झारखंड के कोयला खनन पर 2022 में बनाई डॉक्युमेंट्री ‘रैट ट्रैप’ के निर्देशक रूपेश कुमार साहू बताते हैं कि फिल्म में कोयले का अवैध खनन करने वाले मजदूरों की बेबसी और रोजगार के संकट के साथ-साथ उनके जोखिम भरे काम के बारे में बताया गया है। वे कहते हैं कि फिल्म बनाने से पहले उन लोगों ने काफी रिसर्च किया, लेकिन रैटहोल माइनिंग के दौरान मरने वालों का सही आंकड़ा नहीं जुटा पाए।

रैटहोल माइनिंग के दौरान मरने वाले मजदूरों के विषय को अक्सर मुद्दा बनाने वाले निरसा के पूर्व विधायक और बिहार कोलियरी कामगार यूनियन के सचिव अरूप चटर्जी का कहना है कि मीडिया रिपोर्ट में जो मजदूरों के मरने की खबरें आती हैं उससे कई गुना ज्यादा मौतें होती हैं। अरूप का दावा है कि अवैध खनन में सिर्फ धनबाद जिले में लगभग एक लाख मजदूर लगे हुए हैं और पिछले साल रैटहोल माइनिंग के दौरान दो से ढाई हजार लोग दबकर मरे हैं।

अरूप कहते हैं कि रैटहोल माइनिंग करने वाले मजदूर मुश्किल से पांच से छह सौ रुपया ही रोज का कमा पाते हैं। उनका दावा है कि करोड़ों की मोटी कमाई तो कोयला तस्कर करते हैं, जो इन मजदूरों से कोयला खरीदकर ईंट-भट्ठा वालों को बेचते हैं और इस कमाई का पैसा सरकार से लेकर सरकारी महकमे तक बांटा जाता है। चटर्जी बताते हैं कि जरूरी नहीं कि पुरानी या बंद पड़ी खदानों में ही अवैध रैटहोल माइनिंग होती हो। उनके मुताबिक धनबाद में इतना कोयला है कि हॉटस्पॉट पर 35 फुट गड्ढा करने पर ही कोयला आसानी से निकल आता है। 

पिछले साल फरवरी में हुई 16 मौतों के अलावा निरसा के गोपीनाथपुर कोलियरी के एक हिस्‍से के धंसने से पांच और लोग दबकर मरे थे। अरूप बताते हैं, “राजनीतिक कार्यकर्ता के बतौर मेरे 23 साल के काम में यह पहला मामला था जहां उन पांचों मरने वालों की आधिकारिक पुष्टि हुई थी। फर्क यह था कि समय रहते पब्लिक जागरूक हुई और हम लोगों ने अधिकारियों पर दबाव डालकर उनका पोस्टमार्टम करवाया जबकि आम तौर पर अवैध खनन के दूसरे मामलों में मजदूरों के मरने के काफी देर के बाद हम लोगों को घटना की जानकारी मिलती है। तब तक शव का दाह संस्कार हो जाता है।” 

अरूप कहते हैं, “इसी वजह से उन पांचों का डेथ सर्टिफिकेट बन पाया और कोयला कंपनी के प्रबंधन के खिलाफ एक मामला भी दर्ज हुआ, जिसकी जांच चल रही है!”

रमेश की पत्नी सीता का दुर्भाग्‍य यह था कि वह उन पांच लोगों में नहीं थी जिनका डेथ सर्टिफिकेट बन सका। रमेश बताते हैं कि अपने गांव के मुखिया से वे डेथ सर्टिफिकेट के लिए एक साल से गुहार लगा रहे हैं, लेकिन वे बार-बार कहते हैं कि उसकी मौत अवैध खनन में हुई थी इसलिए सर्टिफिकेट नहीं बन पाएगा, उसके लिए अस्पताल और पुलिस का कागज लाना पड़ेगा।”

सवाल है कि सीता का नाम क्‍या कभी उन गुमनाम मौतों की सूची से निकलकर आधिकारिक मौतों में शामिल हो पाएगा, जिसके लिए उसका परिवार साल भर से जद्दोजहद कर रहा है? ऐसे मसलों पर कब ध्यान दिया जाएगा।

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