उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों ने भाजपा की प्रदेश पर मजबूत पकड़ को ही स्पष्ट नहीं किया बल्कि वहां की राजनीति में आए बदलाव को भी रेखांकित किया है। मिथकों को तोड़ते हुए भाजपा ने लगातार दूसरी बार सरकार बनाई और लगभग सभी क्षेत्रों में अपना दबदबा साबित कर अनेक चुनावी पंडितों को गलत साबित किया। हालांकि समाजवादी पार्टी ने अपने पिछले प्रदर्शन में काफी सुधार किया लेकिन बहुमत के करीब पहुंचने में नाकाम रही। इसका एक बड़ा कारण सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो सकता है। कहा जा रहा था कि इस बार जाट, अन्य पिछड़ा वर्ग और मुसलमान एक साथ आ गए हैं और सपा इस फॉर्मूले के सहारे चुनाव जीत जाएगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसका एक हद तक असर दिखा भी और संगीत सोम तथा सुरेश राणा जैसे उम्मीदवार चुनाव हारे जो पिछले चुनावों में पश्चिम में भाजपा के सबसे प्रमुख अलंबरदार थे, लेकिन बाकी इलाकों में असर उस तरह नहीं दिखा। चुनाव से ठीक पहले सपा छोड़ कर आए स्वामी प्रसाद मौर्य और धरम सिंह सैनी जैसे लोग अपनी सीट भी नहीं बचा पाए। आंकड़े बताते हैं कि गैर-यादव पिछड़े वोटों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ गया है।
लेकिन इस ध्रुवीकरण के साथ पांच किलो अनाज जैसे कार्यक्रमों का भी असर रहा। कोविड काल में सरकार की नाकामी ऐसी योजनाओं के पीछे दब गई। उत्तर प्रदेश में, खासकर पूरब और बुंदेलखंड में जिस तरह की आर्थिक असमानता है, उसे दूर करने की कोई प्रत्यक्ष कोशिश लंबे समय से नहीं की गई। भाजपा के तो वह एजेंडे पर ही नहीं रहा। कोविड के प्रकोप के दौरान सरकार ने किसी सक्रिय पहलकदमी की जगह तमाशबीन की भूमिका निभाई और उसके बाद जिस तरह की बेरोजगारी और विपन्नता फैली, उसमें रोजगारपरक कोई योजना चलाने की जगह लोगों को थोड़ा अनाज और पैसा देने की नीति अपनाई गई। विवेचना तो खाए-पिए आदमी का काम है, भूख के समय तो अनाज बड़ा सहारा बनता है और प्रदेश सरकार ने इस योजना में न्यूनतम संभव भ्रष्टाचार सुनिश्चित कर जो घर-घर अनाज पहुंचाया उसने चुनावों में उसके लिए एक वोट बैंक तैयार किया। विपक्ष के पास इसकी काट नहीं थी।
इस चुनाव में एक बड़ी परिघटना बहुजन समाज पार्टी की ऐतिहासिक हार थी। मायावती जिस तरह की राजनीति करती आई हैं, अब उसके लिए जगह खत्म हो चुकी है। दलितों की एक नई पीढ़ी अब तैयार हो चुकी है जो पारंपरिक श्रद्धा के सहारे वोट नहीं करती। नतीजा यह हुआ कि अब वह केवल जाटवों के एक हिस्से की पार्टी रह गई हैं। चुनाव के पहले प्रबुद्ध सम्मेलनों के सहारे सतीश मिश्र को आगे कर उन्होंने ब्राह्मण वोटों के लिए कोशिश जरूर की, लेकिन सतीश मिश्र की छवि कभी जमीन के नेता की नहीं रही और वे अपने मकसद में पूरी तरह नाकाम रहे। मजेदार यह है कि मायावती ने हार के बाद ठीकरा मुसलमानों पर फोड़ा। उन्होंने बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट भी दिए थे लेकिन चुनावों के दौरान धारणा यही बनी कि वह सपा को हराने की कोशिश कर रही हैं। नतीजे इतना तो बताते ही हैं कि कई सीटों पर वह सपा की हार या कहें भाजपा की जीत का कारण बनीं। यही हाल बड़े जोर-शोर से आए ओवैसी का भी हुआ। उनकी पार्टी किसी भी सीट पर जीत पाने में तो असफल रही लेकिन सपा उम्मीदवारों को हराने भर के वोट उन्होंने काफी सीटों पर बटोरे।
असल में, सीएए जैसे मुद्दों पर खामोश रहीं मायावती या निष्क्रिय रहे अखिलेश यादव भाजपा का भय दिखाकर मुसलमानों की गोलबंदी की जो कोशिश कर रहे थे उसमें इस बार अखिलेश को सफलता मिली क्योंकि उनकी पार्टी चुनाव से पहले भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी दिख रही थी। बंगाल की तरह का ही ध्रुवीकरण हुआ लेकिन वह उन्हें भी बहुमत तक नहीं ले जा सका। इन्हीं आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाने वाली कांग्रेस सहानुभूति के बावजूद चुनावी सफलता नहीं पा सकी।
‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ जैसे सकारात्मक नारे और रैलियों में जुटी अच्छी भीड़ के बावजूद कांग्रेस इस समर में पूरी तरह से किनारे कर दी गई। कारण कई हैं। पहला तो यही कि सपा के पक्ष में बने परसेप्शन के कारण कांग्रेस के मतदाताओं ने भाजपा को हराने के लिए सपा को चुना। दूसरा, प्रदेश में किसी प्रभावी चेहरे की अनुपस्थिति के चलते प्रियंका गांधी को कोई सहयोग नहीं मिल पाया। प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू चुनाव से काफी पहले से अपने क्षेत्र में सिमट जाने के कारण पार्टी को नेतृत्व नहीं दे पाए और अंत में अपनी भी सीट नहीं बचा पाए। प्रियंका गांधी के संदेश को घर-घर पहुंचाने के लिए कांग्रेस के पास सांगठनिक ढांचा ही नहीं था। उसके प्रचार को सोशल मीडिया पर तो वाहवाही मिली लेकिन 40 प्रतिशत महिलाओं में से अधिकतर जमानत बचा पाने में भी विफल रहीं। राज्य में किसी भी वर्ग में वोट बैंक न होने के कारण पार्टी असमंजस की स्थिति में है, प्रियंका गांधी के सलाहकारों पर सीधे सवाल उठ रहे हैं और उम्मीद है कि जल्द ही सांगठनिक ढांचे में बड़ा बदलाव होगा। लोकसभा चुनावों में भाजपा के खिलाफ एक राष्ट्रीय विकल्प होने की बात उसके पक्ष में जाएगी और सूझबूझ से काम किया गया तो अप्रत्याशित सफलता मिल सकती है।
विपक्ष को समझना होगा कि बिना समाज में अपना वैचारिक आधार बनाए भाजपा जैसी पार्टी को सिर्फ चुनावी जोड़-तोड़ से हराना मुश्किल है। आरएसएस की पहुंच घर-घर तक है और फिलहाल इसे चुनौती दे सकने वाला कोई संगठन अस्तित्व में नहीं है।
हालांकि चुनाव खत्म होने से मुद्दे खत्म नहीं होते। बेरोजगारी उत्तर प्रदेश में बहुत बड़ा मुद्दा है। परीक्षाओं का पर्चा लीक होने से लेकर भर्तियां न निकलने से युवा परेशान है। धर्म के नाम पर उसने सरकार तो बना दी है, लेकिन देर-सबेर योगी को इन सब सवालों का सामना करना पड़ेगा। उस समय विपक्ष किस तरह सक्रिय हो पाता है, इस पर उसका भविष्य तय होगा।
(हिंदी के चर्चित लेखक और टिप्पणीकार, विचार निजी हैं)