कोयले का रंग सिर्फ काला नहीं होता। आग लगती है तो झरिया दशकों तक धधकता है। पावर सेंटर बनता है तो धनबाद का सिंह मेंशन (यहीं से कोयलांचल का असली शासन चलता रहा) आकार लेता है। माफिया गिरोहों के विवाद में अनगिनत लाशें गिरी हैं। इसके धन की महिमा से प्रदेश की सत्ता भी अछूती नहीं रहती। आर्थिक महिमा का रंग कुछ इस तरह कि यह नक्सलियों का भी नया सेंटर बन चुका है। कोयला खदान खुलते हैं तो वन क्षेत्रों को भारी नुकसान होता है, रैयतों के पुनर्वास के संकट की अलग कहानी ही है। कोरोनाकाल में पैदा वैश्विक आर्थिक संकट के बीच केंद्र सरकार ने कोल ब्लॉकों की नीलामी कर कॉमर्शियल माइनिंग का फैसला किया, तो इसका नया रंग सामने आया है। झारखंड की सरकार ने देश की सबसे बड़ी अदालत में केंद्र के फैसले को चुनौती दे दी है। झारखंड पहला प्रदेश है जिसने सुप्रीम कोर्ट में केंद्र के फैसले को चुनौती दी। प्रदेश में झामुमो के नेतृत्व वाली हेमंत सरकार है और कांग्रेस सहयोगी पार्टी। अब महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की सरकार भी आगे आई है। विरोध जताया है, तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने। उन्होंने शत-प्रतिशत एफडीआई पर प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर आपत्ति की है।
केंद्र सरकार द्वारा 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज के एेलान के तुरंत बाद कोल ब्लॅाकों की नीलामी की घोषणा की गई। भाजपा नेताओं का तर्क है कि इससे राज्य को सालाना हजारों करोड़ रुपये की अतिरिक्त आय होगी। कोरोना संकट के दौरान पूरी दुनिया की माली हालत खराब है, झारखंड सरकार का खजाना भी खाली है। आय के स्रोत तलाशे जा रहे हैं। कुछ छूटों को बंद किया गया है। ऐसे में, हजारों करोड़ रुपये की अतिरिक्त आय को छोड़ सीधा केंद्र के खिलाफ मोर्चा खोलना आसान नहीं है। झारखंड की राजनीति के जानकार मानते हैं कि आदिवासियों के हितों की लड़ाई लड़ने वाला झामुमो, जनजाति और प्रदेश के लिए इससे पैदा होने वाले दीर्घकालिक संकट को देखकर अड़ा है। दरअसल, ज्यादातर खनिज वाले इलाके वन क्षेत्र हैं और उन जिलों में आदिवासी और पिछड़ों की बड़ी आबादी है। खनन की वजह से वन उजड़े हैं, तो अनेक परियोजनाओं में पुनर्वास के लिए रैयतों को लंबे समय के बाद भी संघर्ष करना पड़ रहा है। बहरहाल, झारखंड के केंद्र के खिलाफ मोर्चा खोले जाने के बाद इसने गैर-भाजपाशासित राज्यों को एकजुट होने का बड़ा मौका दे दिया है। झारखंड प्रभावित होने वाले ऐसे अन्य प्रदेशों से संपर्क साध रहा है। इधर कॉमर्शियल माइनिंग के खिलाफ श्रमिक संगठनों ने तीन दिवसीय हड़ताल कर दी। श्रमिक संगठन आगे की लड़ाई की भी तैयारी कर रहे हैं। इसमें इंटक का बड़ा प्रभाव है। सुप्रीम कोर्ट में झारखंड के पक्ष में निर्णय आता है, तो हेमंत सोरेन का राजनीतिक कद और बड़ा हो जाएगा।
हेमंत सोरेन हाल ही में भाजपा को पराजित कर झारखंड की सत्ता पर काबिज हुए हैं। वे केंद्र के खिलाफ आवाज उठाने का कोई मौका नहीं चूकते। केंद्रीय ऊर्जा मंत्री के साथ वीडियो काॅन्फ्रेंसिंग में अपना विरोध जताने के बाद उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार गैर-भाजपाशासित राज्यों को अस्थिर करने में लगी है। रोजगार योजना व अनाज योजना को भी बिहार चुनाव से जोड़कर केंद्र की खिंचाई की। मई में भारत के 50 सबसे प्रभावशाली लोगों की जो सूची फेम इंडिया ने जारी की, उसमें हेमंत सोरेन 12वें स्थान पर हैं। हेमंत सोरेन ने सुप्रीम कोर्ट में जाकर जो किया है उससे उनके दोनों हाथों में लड्डू है। झारखंड सरकार अगर मुकदमा जीतती है, या उसके पक्ष में कुछ भी होता है, तो उसका श्रेय मिलने से अचानक राष्ट्रीय स्तर के चर्चित नेताओं और मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित होंगे। यदि हार जाते हैं या सुप्रीम कोर्ट कोई नोटिस नहीं लेता है, तो आने वाले दिनों में चुनाव में इसे मुद्दा बना सकेंगे। उन्हें राज्य और आदिवासी हितों के लिए खड़ा माना जाएगा। उन्हें केंद्र के खिलाफ लगातार संघर्ष का एक धारदार हथियार मिल जाएगा।
प्रधानमंत्री ने 18 जून को 41 कोयला ब्लॉक की नीलामी प्रक्रिया की शुरुआत की थी। इसके करीब एक सप्ताह पहले 10 जून को हेमंत सोरेन ने केंद्रीय कोयला मंत्री प्रहलाद जोशी को पत्र लिखकर कॉमर्शियल माइनिंग को ऐतिहासिक और बोल्ड फैसला बताया था, हालांकि कोरोना संकट और दूसरे पहलुओं की चर्चा करते हुए खनन नीलामी की प्रक्रिया को छह से नौ माह तक टालने का आग्रह किया था। प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने का फैसला लेते हुए हेमंत सोरेन ने कहा कि केंद्र ने झारखंड को भरोसे में नहीं लिया। खनन हमेशा ज्वलंत समस्या रही है। कोल ब्लॉक की नीलामी के पूर्व राज्यव्यापी सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण पर पड़ने वाले असर का सर्वेक्षण होना चाहिए था, जिससे पता चलता कि कोयला खनन से यहां के लोग लाभान्वित हुए या नहीं, नहीं हुए तो क्या वजह रही। केंद्र सरकार कोल ब्लॉक नीलामी में विदेशी निवेश की भी बात कह रही है, लॉकडाउन से पूरी दुनिया प्रभावित है। राज्य की अपनी समस्याएं भी हैं। ऐसे में, नीलामी प्रक्रिया राज्य को लाभ देने वाली प्रतीत नहीं होती।
खनन मामलों के जानकार राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि शुरू से झारखंड का खनिज के मामले में सिर्फ दोहन होता रहा। जो फायदा मिलना चाहिए था, नहीं मिला। इंग्लैंड के मैनचेस्टर का यहीं के संसाधनों से विकास हुआ। आजादी के बाद बड़े महानगर यहीं के संसाधनों से विकसित हुए। आज कोयला, आयरन और यूरेनियम से पूरा देश जगमग हो रहा है। एटॉमिक पावर से देश में आठ प्लांट चल रहे हैं, सारा यूरेनियम यहीं से जाता है। यहां के लोगों को क्या मिला- सिर्फ रेडिएशन झेलना पड़ रहा है।
कोल ब्लॉकों के लिए 1,15,000 हेक्टेयर जमीन कोल कंपनियों को दी गई। इसके अतिरिक्त, 1957 के कोल बेयरिंग एक्ट के तहत 57,000 हेक्टेयर जमीन ले ली गई। कोल कंपनियां इन जमीनों का न तो सरफेस रेंट दे रही हैं, न सलामी। कोल बेयरिंग एक्ट की धारा 18 के तहत ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश यह राशि दे रहे हैं। झारखंड से शिबू सोरेन और कडि़या मुंडा केंद्र में कोयला मंत्री रहे, मगर यह बकाया नहीं मिला। आज यह बकाया राशि बढ़कर करीब 32,000 करोड़ रुपये हो गई है। कोयला के लिए झारखंड को चारागाह मान लिया गया है।
इधर, झारखंड विधानसभा चुनाव में पराजित भाजपा को भी कोल ब्लॉक के बहाने हेमंत सरकार को घेरने का मौका मिल गया है। हाल में प्रदेश भाजपा की कमान संभालने वाले और राज्यसभा सदस्य बने दीपक प्रकाश सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने को आत्मनिर्भर होने के प्रयास से वंचित होने वाला कदम बता रहे हैं। वह कहते हैं कि झारखंड में नौ कोयला खदानों की नीलामी से करीब 50 हजार लोगों को रोजगार मिलेगा। भाजपा को घेरते हुए झारखंड मुक्ति मोर्चा के महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य कहते हैं कि कोल ब्लॉक नीलामी से मिलने वाला पैसा केंद्र द्वारा घोषित 20 लाख करोड़ के पैकेज का हिस्सा कैसे हो सकता है। यह भाजपा सरकार का अडानी, अंबानी जैसे औद्योगिक घरानों को उपकृत करने का हथियार है। इस गलतफहमी में न रहें कि प्रदेश के सिर्फ नौ कोल ब्लॉक की नीलामी होने जा रही है, आने वाले दिनों में इसकी संख्या 21 होगी। कोल कंपनियों में प्राइवेट पार्टी की घुसपैठ होगी। झारखंड सरकार, केंद्र की इस साजिश के खिलाफ अन्य राज्यों को भी एक मंच पर लाने की तैयारी कर रही है।
झारखंड के पहले मुख्यमंत्री और भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी भी आक्रामक मुद्रा में हैं। वे कहते हैं, “हेमंत सोरेन निजी स्वार्थ के कारण अड़ंगा डाल रहे हैं। यूपीए-1 में कई कोल कंपनियों को खदान दिए गए थे। 2012 में सीएजी की रिपोर्ट आई कि नीलामी के बदले आवंटन के कारण एक लाख 86 हजार करोड़ का नुकसान हुआ। भारत कोयले का दुनिया में चौथा सबसे बड़ा भंडार वाला देश है, इसके बावजूद आयात हो रहा है। राज्य सरकार मॉडल नियम बनाए कि 85 फीसदी विस्थापितों को नौकरी मिले। सरकार रैयतों को जमीन के बदले जमीन दे, तो हमलोग भी सहयोग करेंगे।” फिलहाल, झामुमो और भाजपा अपने-अपने पक्ष में तर्क गढ़ रहे हैं। समय ही बताएगा कि प्रदेश के हित में क्या हुआ।
कोयले में आर्सेनिक, हेवी मेटल्स और पर्यावरण पर असर पर शोध करने वाले पर्यावरणविद नीतीश प्रियदर्शी कहते हैं कि कोयला खदानों से खेतीवाली जमीन, पर्यावरण और भूमिगत जल पर बुरा असर पड़ता है। खनन को रोका नहीं जा सकता, इसलिए जरूरी है कि प्रदूषण के नुकसान को कम करने वाले मानकों का सख्ती से पालन किया जाए। वनों की कटाई के बदले नए वन लगाए जाएं। वाहनों की क्षमता से ज्यादा ढुलाई पर अंकुश लगाया जाए और खदानों को भरने का पूरा ध्यान रखा जाए। अमूमन इन नियमों का पालन नहीं किया जाता है। इन इलाकों में रहने वाले लोगों की उम्र कम होती है। उनके फेफड़े में संक्रमण से संबंधित बीमारियों का प्रकोप अधिक रहता है।