Advertisement

आवरण कथा/किसान लामबंदी/पंजाब: पगड़ी बचाने पर पहुंची लड़ाई

आंदोलन किसान स्वाभिमान से जुड़ा और उसने नई धार पकड़ी तो राज्य की सियासी सरगर्मी भी तेज हो उठी
गाजीपुर बॉर्डर पर किसान नेता राकेश टिकैत के साथ सुखबीर बादल

गणतंत्र दिवस की ट्रैक्टर रैली के बाद अधिक मायूसी पंजाब में ही थी क्योंकि आंदोलन को 'खालिस्तानी' और सिर्फ सिखों के इर्दगिर्द सिमटे होने के आरोपों को लाल किले की प्राचीर पर पंथक झंडा फहराए जाने की घटना मानो मुहर लगा रही थी। उसके बाद केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को धरनास्थलों को खाली कराने के लिए सख्त रुख अपनाने का मौका मिल गया। लेकिन दो दिन बाद गाजीपुर बॉर्डर पर राकेश टिकैत के आंसुओं ने बाजी पलटी तो पश्चिम उत्तर प्रदेश और हरियाणा के साथ पंजाब में भी नए सिरे से जोश-जज्बा उठ खड़ा हुआ। किसान बड़ी संख्या में धरने की ओर लौटने लगे। टैक्टरों और गाड़ियों के काफिले चल पड़े। गांव-गांव में मुनादी और पंचायतें शुरू हो गईं। हर घर से एक आदमी के धरने पर पहुंचने का पंचायती फैसला होने लगा। गुरुद्वारों से अपील जारी होने लगी।

मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के गृह क्षेत्र पटियाला से लगते एक गांव वजीदपुर की सरपंच मनदीप कौर की पंचायत ने तो सर्वसम्मति से फैसला किया कि गांव के जिस घर से कोई सदस्य आंदोलन में नहीं जाएगा, उस घर को 1,500 रुपए जुर्माना भरना होगा। जाहिर है, किसान आंदोलन अब पगड़ी और मूंछ की लड़ाई में तब्दील हो गया। 20वीं सदी की शुरुआत में खेती और जमीन बचाने का शहीद भगत सिंह के चाचा अजित सिंह का नारा 'पगड़ी संभाल जट्टा' फिर जज्बा बिखेरने लगा है।  हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश, राजस्थान के बाद सबसे प्रभावी जाट आबादी पंजाब में ही है, जो जट्ट सरदार कहलाते हैं। ज्यादातर प्रभावशाली खेतिहर समुदाय जट्ट सिखों का है। आज, राज्य का शायद ही कोई इलाका बचा है, जहां से किसान दिल्ली के धरनास्‍थलों सिंघू और टिकरी बॉर्डर की ओर रवाना नहीं हो रहे हैं। ये 26 नवंबर से ही कायम हैं और अब सरकार की किलेबंदी की वजह से बिजली-पानी तक की किल्लतें शुरू हो गई हैं। 

किसान आंदोलन ने नई धार पकड़ी तो राज्य की सियासी पिच भी गरमा उठी। राज्य में विधानसभा चुनाव को एक साल बाकी है, जबकि 14 फरवरी को होने वाले स्थानीय निकाय चुनाव ट्रेलर साबित होंगे। संयुक्त किसान मोर्चे में आंदोलनरत पंजाब के 32 किसान संगठनों को अपने-अपने पाले में करने के लिए कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल  (शिअद) और आम आदमी पार्टी में जद्दोजहद जारी है। भाजपा कहीं नजर नहीं आ रही है।

किसान आंदोलन की सियासी पिच पर खुलकर खेल रहे पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की नजर 2022 के विधानसभा चुनाव पर है। कैप्टन लगातार दूसरी पारी खेलना चाहते हैं, इसलिए पंजाब की सत्तारूढ़ कांग्रेस ने किसानों के समर्थन में पूरी ताकत झोंक दी है। पहले विधानसभा के विशेष सत्र में केंद्र के कृषि कानूनों के बदले अपने कानून पारित किए गए। फिर किसानों के समर्थन में दिल्ली के जंतर-मंतर पर कांग्रेस सांसदों-विधायकों के धरने हुए। अब कांग्रेस ने गणतंत्र दिवस पर लापता और दिल्ली पुलिस की हिरासत और जेल में बंद पंजाब के करीब 70 किसानों की पैरवी के लिए 70 वकीलों की टीम बनाई है। मुख्यमंत्री ने कृषि कानून निरस्त करने और एमएसपी को कानूनी दर्जा देने के लिए केंद्र पर दबाव बनाने की रणनीति पर चर्चा के लिए 2 फरवरी सर्वदलीय बैठक बुलाई। उसमें राज्य के भाजपा नेता शामिल नहीं हुए। आम आदमी पार्टी के नेता भी बैठक में शामिल हाने के कुछ समय बाद बहिष्कार कर चले गए। 

किसानों के समर्थन पर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने आउटलुक से कहा कि पंजाब में केंद्र के कृषि कानून लागू नहीं होने देंगे। 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी का मुख्य एजेंडा राज्य के अपने कृषि कानून होंगे। आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पंजाब के कृषि बिलों को कोरी सियासत करार दिया। उन्होंने कहा कि कैप्टन ने किसानों की भावना से खिलवाड़ किया है। ऐसे कानून का क्या मतलब है जो लागू ही नहीं हो पाएगा। आम आदमी पार्टी के प्रदेश के अध्यक्ष भगवंत मान का कहना है कि कैप्टन सरकार एमएसपी पर गेहूं और धान की खरीद की गारंटी दे।

उधर, केंद्र की भाजपा पंजाब को लेकर गंभीर नहीं है। केंद्र सरकार ने शायद यही सोचकर किसान आंदोलन को भी गंभीरता से नहीं लिया कि आंदोलन का नेतृत्व पंजाब के किसानों के हाथ है और उसे कांग्रेस शह दे रही है। अकाली दल ने एनडीए से किनारा किया तो भी भाजपा को ज्यादा चिंता नहीं हुई क्योंकि पंजाब में भाजपा के पास खोने को ज्यादा कुछ नहीं है। पंजाब में भाजपा हमेशा अकाली दल की पिछलग्गू बनकर 113 विधानसभा सीटों में 23 सीटों पर चुनाव मैदान में उतरती रही है। तीन दशक बाद ऐसा पहली बार होगा कि पंजाब में भाजपा को अपनी सियासी जमीन खुद तलाशनी होगी।

भाजपा ने 14 फरवरी को होने वाले स्थानीय निकाय चुनाव के लिए प्रदेश की तमाम सीटों पर 700 उम्मीदवारों में कई सिख चेहरे भी उतारे हैं, पर भाजपा के बड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं को प्रचार के दौरान किसानों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा रहा है। पंजाब भाजपा के प्रमुख नेता शिअद का दामन थाम रहे हैं। चुनाव के समय होने वाले बड़े दलबदल जैसे हालात भाजपा के अभी से हो गए हैं। विधानसभा चुनाव मार्च 2022 में है और भाजपा का दामन छोड़ इसके प्रदेश महासचिव मलविंदर सिंह और किसान मोर्चे के संयोजक तरलोचन सिंह गिल ने अभी से शिअद का दामन थाम लिया है। पंजाब भाजपा में पहले ही प्रमुख सिख चेहरों का अकाल है। ऐसे में जो गिने-चुने सिख चेहरे हैं, उनका भी साथ छोड़ना भाजपा को भारी पड़ सकता है। भाजपा के सामने पंजाब में अपना वजूद बचाए रखने की चुनौती है।

शिअद 1996 में एनडीए का हिस्सा बना था, लेकिन उसने पंजाब की किसान सियासत के लिए 24 वर्ष पुराने ‘अटल’ गठबंधन और केंद्रीय मंत्रिमंडल से किनारा कर लिया। 2017 के विधानसभा चुनाव से ठीक एक साल पहले पंजाब में धार्मिक ग्रंथों की बेअदबी के चलते पंथक सियासत में आधार खोने वाली शिअद लगातार 10 साल की सत्ता से करारी हार के साथ बेदखल हुई। राज्य की 113 विधानसभा सीटों में शिअद 15 तो भाजपा सिर्फ तीन सीटों पर सिमट गई थी। पंथक और किसान सियासत के दम पर पंजाब का सत्ता सुख भोगने वाली शिअद किसी सूरत में नहीं चाहती कि पंथक एजेंडे के बाद उसके पाले से राज्य का बड़ा किसान वोट बैंक भी खिसक जाए। किसान नेता राकेश टिकैत के गाजीपुर मोर्चे पर समर्थन जताने गए शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर बादल ने पार्टी कार्यकर्ताओं को किसानों के साथ मोर्चों पर डटने को कहा है। वैसे, पंजाब में स्‍थानीय चुनाव के सिलसिले में निकले सुखबीर को विरोध का सामना करना पड़ा और उनकी गाड़ी भी तोड़ी गई।

शिअद हलकों में ये कयास भी तेज हो गए हैं कि अब केंद्र की मोदी सरकार बदले की भावना से उसके नेताओं के खिलाफ 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले बड़ी कार्रवाई कर सकती है। उसके निशाने पर सबसे पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल के भाई और पूर्व कैबिनेट मंत्री बिक्रम मजीठिया हो सकते हैं। ड्रग्स तस्करी के आरोपों से घिरे मजीठिया को एनसीबी (नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो) और डीआरआइ की कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि ऐसी कार्रवाई करने का वादा अमरिंदर सिंह ने भी 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान किया था, पर चार साल बीतने के बावजूद मामला ठंडे बस्ते में है।

आम आदर्मी पार्टी इसे चुनावी मुद्दा बना सकती है, पर उसके पास मुख्यमंत्री का कोई चेहरा नहीं है। पार्टी ने किसानों के धरनास्थलों पर जलापूर्ति, शौचालय और बिजली जैसी मूलभूत सेवाएं उपलब्ध कराई थीं लेकिन दिल्ली पुलिस की बाड़ेबंदी में उसकी किसानों तक पहुंच रोक दी गई है।

बहरहाल, अब देखना है कि पंजाब की सियासत और किसान आंदोलन क्या करवट लेता है। आशंका यह भी है कि केंद्र ने ज्यादा सख्ती दिखाई तो राज्य में कहीं पुराने अतिवादी दौर की वापसी न हो जाए। उम्मीद यही की जानी चाहिए कि पुराना दौर न लौटे और कोई समाधान निकले।

Advertisement
Advertisement
Advertisement