भारत छोड़ो आंदोलन में हिंदी के कई लेखक जेल गए, उनमें से एक बिहार के रंगकर्मी वीरेंद्र नारायण भी थे, जो जयप्रकाश नारायण के अखबार जनता में सहायक संपादक थे। भागलपुर जेल में सतीनाथ भादुड़ी और फणीश्वर नाथ रेणु के साथ एक ही वार्ड में बंदी रहे। रेणु जी बीमारी के कारण एक साल के बाद रिहा कर दिए गए। भादुड़ी जी दो साल बाद। वीरेंद्र जी तीन साल के बाद छूटे। जेपी के अनुयायी थे पर मूलतः कलाकार थे। संपूर्ण कलाकार। अपने जीवन काल में उन्होंने करीब 14 नाटक लिखे, अभिनय किया, नाटकों का निर्देशन किया, नाट्य आलोचना लिखी, उपन्यास, कविता, कहानी भी लिखी। वे सितार और बांसुरी भी बजाते थे। 16 नवंबर 1923 को उनका जन्म हुआ और उसी तारीख को 2003 में वे दुनिया छोड़कर चले गए।
वे मोहन राकेश से उम्र में दो साल और इब्राहिम अलकाजी से एक साल बड़े थे। हबीब तनवीर उनसे मात्र दो माह ही बड़े थे। उन्होंने मोहन राकेश से पहले नाटकों की रचना और अलकाजी से पहले नाटकों का निर्देशन शुरू किया था। 1952 में उन्होंने शरतचन्द्र पर सामग्री जुटाकर वाह नाटक लिखा था। विष्णु प्रभाकर के आवारा मसीहा लिखने से करीब बीस वर्ष पहले। वीरेंद्र जी भागलपुर के थे जहां, शरतचंद्र की ननिहाल थी। इसलिए भी वीरेंद्र जी का उनसे आत्मीय लगाव था।
उन्होंने 1954 में अपना पहला उपन्यास लिखा था, जिसकी भूमिका अज्ञेय ने लिखी थी। 1960 में उन्होंने सूरदास नामक नाटक लिखा, जो कल्पना में धारावाहिक छपा था। तब उसे काफी सराहा गया था।
उन्होंने 1954 में पटना में ही रामबृक्ष बेनीपुरी जी के प्रसिद्ध नाटक अम्बपाली में मुख्य पात्र अरुण ध्वज का अभिनय किया था। निर्देशन भी उन्होंने किया था। दिल्ली के ऑल इंडिया ड्रामा फेस्टिवल में जब यह नाटक आया, तो नाटक को प्रथम पुरस्कार मिला था। नाटक देखने राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद भी आए थे। उन्हें अभिनय का बहुत शौक था। उन्होंने ब्रिटिश रंगमंच के प्रथम अभिनेता सर लॉरेन्स ओलिवर से पत्राचार किया था। फिर उनकी संस्था अकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट ऐंड म्यूजिक, लंदन में दाखिला लिया।
तेजी बच्चन के साथ एक नाटक में
वे बेनीपुरी जी के साथ नई धारा में थे पर लंदन जाने के लिए इस्तीफा दे दिया। घर में जो थोड़ा-बहुत फर्नीचर था, उसको भी बेच दिया। कुछ पैसा जो इसके लिए बचाते आ रहे थे बस उससे किसी तरह टिकट वगैरह का इंतजाम करके वे चले गए। वहां एक होटल में बैरे का काम करते हुए किसी तरह वहां अपना खर्च चलाते रहे। वहां उन्होंने गोल्ड मेडल जीता और चेखव के नाटक चेरी का बगीचा में काम किया। लौटने पर उनको जगदीश चन्द्र माथुर ने आकाशवाणी के सॉन्ग ऐंड ड्रामा डिवीजन में नौकरी दी। बाद में वे उसके निदेशक भी बने। बच्चन जी ने जब शेक्सपियर के मैकबेथ का अनुवाद किया तो उस नाटक का निर्देशन उन्होंने किया। तेजी बच्चन ने उसमें लेडी मैकेबेथ की भूमिका निभाई थी।
वे चेखव के प्रशंसक थे। चेखव और जयशंकर प्रसाद के नाटकों पर उनका एक महत्वपूर्ण लेख भी है। चेखव के नाटक चेरी के बगीचे और तीन बहनों का भी उन्होंने अनुवाद किया था। श्रीराम सेंटर पर उनका 1977 में मंचन भी हुआ था। उससे पहले लक्ष्मी नारायण लाल के मिस्टर अभिमन्यु का भी निर्देशन किया था। 1969 में जब गांधी की जन्मशती मनाई गई तो उन्होंने बापू के साये में नाटक लिखा जो शायद हिंदी में गांधी पर पहला नाटक था। रंगकर्मी के अलावा नाट्य आलोचना में उनका बड़ा महत्वपूर्ण काम है। साठ के दशक में प्रसाद के नाटकों पर उनके लेख कल्पना में छपे।
उपेन्द्र नाथ अश्क के साथ (बाएं)
भारतीय रंगमंच की अवधारण पर हिंदी में उनका लेख आलोचना में उस जमाने में आया, जब इस तरह की बहस हिंदी में नहीं थी। रंगकर्म पर हिंदी में पहली किताब भी उन्होंने लिखी। लाइट ऐंड साउंड कार्यक्रम के वे सूत्रधार थे। उन्होंने इलाहाबाद में कुंभ में लाइट ऐंड साउंड का कार्यक्रम कर रामचरित मानस भी दिखाया था। दिल्ली में 1977 में मोरारजी देसाई और लालकृष्ण आडवाणी ने भी वह रामचरित मानस शो देखा था। उन्होंने तमिल के राष्ट्रकवि सुब्रह्मण्यम भारती पर भी इस तरह का शो किया था, जो दक्षिण भारत में लोकप्रिय हुआ था। विद्यापति पर लाइट ऐंड साउंड कार्यक्रम किया। खुद विद्यापति का अभिनय किया।
एक नाटक में अभिनेता के रूप में
वीरेंद्र जी को छपने छपाने को लेकर मोह नहीं था। वे किसी गुट में नहीं रहे। वे समाजवादी दर्शवादी मूल्य में जीने वाले निर्भीक और साहसी व्यक्ति थे। वे आजादी की लड़ाई के सेनानी थे इसलिए कभी नाम के चक्कर में नहीं रहे। वीरेंद्र सांसारिक यश से दूर रहे जबकि अज्ञेय, विष्णु प्रभाकर, डॉक्टर नगेन्द्र, बच्चन, जगदीश चन्द्र माथुर सबसे उनका आत्मीय परिचय रहा।