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फैसला कश्मीर का सियासत देश की

जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म, राज्य दो केंद्रशासित प्रदेशों में बंटा, सवाल उठे कि क्या यह मोदी सरकार का हिंदुत्व और चुनावी सियासत का एजेंडा
1951 में शेख अब्दुल्ला के साथ जवाहरलाल नेहरू

आजाद भारत में यह वाकई ऐतिहासिक लम्हा था, अलबत्ता बहुतों के लिए ‘उजला अध्याय’ तो दूसरे बहुतों के लिए ‘काला दिन!’ चौंकाऊ तो इतना कि नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने ही पहले कार्यकाल की नोटबंदी के हल्ले-हैरानी को पीछे छोड़ दिया। पहले के रचयिता प्रधानमंत्री मोदी खुद थे तो दूसरे का सेहरा उनके खास राजदार तथा अब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के माथे बंधा। नतीजा: संस्कृत कवि कल्हण की राजतरंगिणी, धरती पर जन्नत, भारत का ताज कश्मीर 5 अगस्त 2019 को अपना विशेष दर्जा खो चुका है, जो उसे भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 और 35ए से हासिल था। अभी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के इस संवैधानिक आदेश से देश चौंका ही था कि उसी सुबह संसद में शाह ने राज्य को दो टुकड़ों में बांटने और संपूर्ण राज्य का दर्जा भी हटा लेने का दूसरा धमाका पेश कर दिया। लिहाजा, संसद से सड़क तक जश्न, हैरानी, हताशा का माहौल तारी हो गया। भाजपा के लोगों और कश्मीरी पंडितों ने ढोल-नगाड़े निकाल लिए। भाजपा को कुछ अप्रत्याशित हलकों से समर्थन हासिल हुआ। बहुजन समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी, टीआरएस, टीडीपी, अन्नाद्रमुक, बीजद ने फौरन समर्थन जाहिर कर दिया। विरोध में हैरानी जताते अवाक रह गए कश्मीर की मुख्यधारा की पार्टियों नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और दूसरे नेताओं के साथ सिर्फ कांग्रेस, वामपंथी पार्टियां, द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस ही रह गईं। वैसे, एनडीए की बिहार में सहयोगी जद-यू ने भी विरोध जताया लेकिन संसद का बहिष्कार करके। इससे राज्यसभा में सरकार को जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन संविधान संशोधन विधेयक पर दो-तिहाई बहुमत हासिल करने में मदद मिल गई। संविधान की प्रति फाड़ने के कारण पीडीपी के दो सदस्यों को पहले ही बाहर कर दिया गया था। बिल 6 अगस्त को लोकसभा में 72 के मुकाबले 351 वोटों से पास हुआ। बिना बहुत बहस और संसदीय समीक्षा के राज्य पुनर्गठन विधेयक पारित होने का यह पहला मौका था। पहला मौका यह भी था कि किसी राज्य को दो हिस्सों (जम्मू-कश्मीर और लद्दाख) में बांटकर केंद्रशासित राज्य बना दिया जाए।

अमित शाह के साथ नरेंद्र मोदी

आजादी के वक्त जम्मू-कश्मीर को भारत में विलय के बड़े पहलकारों में एक शेख अब्दुल्ला के बेटे, नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला तो श्रीनगर में अपने आवास पर फफक कर रो पड़े, ‘‘लगता है, मेरे शरीर के टुकड़े हो गए... मैंने कभी ये हिंदुस्तान नहीं देखा। हम हर ऊंच-नीच में साथ रहे हैं। उम्मीद है, आप हमारे साथ खड़े रहेंगे।’’ लोकसभा और राज्यसभा में कांग्रेस के नेताओं ने ऐसी ही भावना जताई और आखिरी दम तक सरकार की कोशिशों का विरोध करने का संकल्प जताया। लेकिन 6 अगस्त को पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भावनाएं बंटी नजर आईं।

संसद में विपक्ष के आरोपों पर अमित शाह ने कहा, ‘‘अनुच्छेद 370 अस्थायी प्रावधान था, कोई भी अस्थायी प्रावधान कब तक लागू रह सकता है? इसे एक न एक दिन जाना ही था। लेकिन अभी तक किसी राजनैतिक दल ने इच्छाशक्ति नहीं दिखाई। अब जम्मू-कश्मीर वास्तव में भारत का अभिन्न अंग हो गया है।’’

लंबी पोशीदा तैयारी और नजरबंदी

जाहिर है, इसकी तैयारी एनडीए सरकार लंबे समय से कर रही थी और शायद इसी वजह से विधानसभा चुनाव नहीं कराए गए थे। लेकिन अपने पोशीदा तरीकों में माहिर एनडीए सरकार ने इसकी किसी को भनक तक नहीं लगने दी। सूत्रों के मुताबिक इसकी पुख्ता कवायद जून में शुरू हुई, जब छत्तीसगढ़ काडर के आइएएस बीवीआर सुब्रह्मण्यम को जम्मू-कश्मीर का मुख्य सचिव बनाया गया। सुब्रह्मण्यम नरेंद्र मोदी के साथ पीएमओ में संयुक्त सचिव के रूप में काम कर चुके हैं। कहा जा रहा है कि अमित शाह ने बजट सत्र से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत से इस बारे में मुलाकात की थी। शाह ने कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के साथ मिलकर पहले इसके कानूनी पहलुओं पर विचार किया। इसके लिए बनाई गई कोर टीम में विधि सचिव आलोक श्रीवास्तव, एटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल और गृह सचिव राजीव गौबा भी शामिल थे। इसके बाद सुरक्षा का जायजा लेने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को श्रीनगर भेजा गया। वे वहां तीन दिन रहे।

अजीत डोभाल के वहां पहुंचने के बाद तेजी से घटनाक्रम बदले और आशंकाएं भी उभरने लगीं। खासकर सोशल मीडिया में तरह-तरह की खबरें तैरने लगीं। लेकिन सरकार ने जब 26 जुलाई 2019 को अचानक अमरनाथ यात्रियों  और सभी पर्यटकों को तत्काल घाटी छोड़कर लौट जाने को कहा, तब लगा कि एनडीए सरकार की जम्मू-कश्मीर के बारे में कोई बड़ी योजना है। दूसरे राज्यों के मजदूरों और शिक्षण संस्थानों के हॉस्टल में रहने वाले छात्रों को भी फौरन घाटी छोड़ने को कहा गया। एनआइटी श्रीनगर के छात्रों को तो रात 12 बजे कहा गया कि सुबह एयरपोर्ट पहुंचें। इस बीच सुरक्षा और कड़ी करते हुए अर्धसैनिक बलों की 100 कंपनियां भेजी गईं। हर थाने की कमान स्थानीय पुलिस से लेकर केंद्रीय बलों को सौंप दी गई। घाटी के नेता अनहोनी की आशंका व्यक्त करने लगे और हिदायत देने लगे कि दिल्ली की सरकार कोई दुस्साहसिक कदम उठाती है तो उसके नतीजे भी भुगतने को तैयार रहे।

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 4 अगस्त की रात प्रदेश के सभी प्रमुख नेताओं को भी नजरबंद कर लिया गया। मोबाइल और लैंडलाइन फोन बंद करने और धारा 144 लागू करने का आदेश जारी हुआ। लगभग समूची घाटी में कर्फ्यू और सन्नाटा पसर गया। प्रदेश के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को नजरबंद कर लिया गया।

अगले दिन, यानी 5 अगस्त को मोदी सरकार ने एक झटके में जम्मू-कश्मीर का भूगोल बदल दिया। राज्य का विशेष दर्जा खत्म करते हुए इसे दो केंद्रशासित प्रदेशों, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया गया। जम्मू-कश्मीर की हैसियत घटकर दिल्ली जैसे आधे-अधूरे राज्य की रह गई। यहां विधानसभा तो होगी, लेकिन शासकीय प्रमुख लेफ्टिनेंट गवर्नर होगा। लद्दाख की हैसियत चंडीगढ़ जैसे केंद्रशासित प्रदेश की होगी, यानी यहां विधानसभा नहीं रहेगी।

 

संवैधानिक असर और आशंकाएं

इससे ढेरों सवाल खड़े होने लगे हैं। क्या यह संवैधानिक कसौटी पर खरा उतरेगा? सुप्रीम कोर्ट अपने कई फैसलों में अनुच्छेद 370 को अनुलंघनीय बता चुका है। हाल में 2018 में भी सर्वोच्च न्यायालय इसे अस्थायी मानने से इनकार कर चुका है। यही नहीं, राज्य के बंटवारे के लिए भी विधानसभा से संस्तुति अनिवार्य है, जबकि इस मामले में विधानसभा स्थागित होने के कारण राज्यपाल की सहमति को ही राज्य विधायिका की सहमति मान लिया गया है। ऐसे में, पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त तथा एक वक्त जम्मू-कश्मीर की वार्ताकार टोली के सदस्य रहे वजाहत हबीबुल्ला के अनुसार इसकी प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने की संभावना है। हबीबुल्ला कहते हैं, “राज्य के लोगों की राय नहीं ली गई है। अगर सरकार राज्य के शासन में किसी तरह का बदलाव करती है तो उसे लोगों की राय अवश्य लेनी चाहिए। एकतरफा कदम लोकतंत्र और संवैधानिक मान्यताओं के विरुद्ध है।”

नेशनल अकेदमी ऑफ लीगल स्टडीज ऐंड रिसर्च (एनएएलएसएआर) यूनिवर्सिटी के कुलपति फैजान मुस्तफा कहते हैं, "जम्मू-कश्मीर का सिर्फ विशेष दर्जा ही खत्म नहीं हुआ है, बल्कि उसका दर्जा अब दूसरे राज्यों की तुलना में भी कम हो गया है। अब भारत में 29 की जगह 28 राज्य होंगे। अब जम्मू-कश्मीर में कॉरपोरेट या कोई व्यक्ति जमीन खरीद सकेगा। साथ ही राज्य में गैर-कश्मीरियों को भी नौकरियां मिल सकेंगी। इस बदलाव से राज्य में जनसांख्यिकी बदलाव की प्रक्रिया भी शुरू हो जाएगी, जिसका असर आने वाले दशक में दिखेगा।"

नजरबंदी से पहलेः जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने से पहले फारूक अब्दुल्ला के घर राजनैतिक दलों की बैठक

अनुच्छेद 370 में संशोधन किया जा सकता है या नहीं, इसकी व्याख्या भी अलग-अलग की जा रही है। अमित शाह के अनुसार अनुच्छेद 370 की धारा 3 में ही कहा गया है कि इस अनुच्छेद को खत्म किया जा सकता है या बदला जा सकता है। राष्ट्रपति को इसके लिए नोटिफिकेशन जारी करने का अधिकार है। कांग्रेस ने 1952 और 1962 में अनुच्छेद 370 में संशोधन के लिए जो रास्ता अपनाया था, हम भी वही रास्ता अपना रहे हैं। लेकिन पूर्व गृह मंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम का मानना है कि अनुच्छेद 370 के ही एक प्रावधान का इस्तेमाल कर इस अनुच्छेद को नहीं बदला जा सकता है। आउटलुक से बातचीत में उन्होंने कहा, "भारतीय संविधान के इतिहास का यह सबसे काला दिन है। सरकार ने जो किया वह अप्रत्याशित और जोखिम भरा है। सरकार ने संविधान के अनुच्छेदों की गलत व्याख्या की है। मैं सभी राजनैतिक दलों, राज्यों और देश की जनता से कहना चाहता हूं कि भारत का विचार गंभीर खतरे में है।"

विशेष प्रावधान वाले राज्यों में आशंका

इससे यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि देश के दूसरे राज्यों और अनुसूचित आदिवासी क्षेत्रों के विशेष अधिकारों का क्या होगा? अनुच्छेद 370 की ही तरह अनुच्छेद 371 और कुछ अन्य अनुच्छेदों के तहत हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पूर्वोत्तर के राज्यों और अनुसूचित क्षेत्रों में बाहरी लोगों के जमीन खरीदने या बसने पर पाबंदियां हैं। सो, नए बदलाव से पूर्वोत्तर राज्यों से प्रतिक्रियाएं आने लगी हैं। मिजोरम के पूर्व मुख्यमंत्री ललथन हवला ने कहा, “हमारे लिए यह रेड अलर्ट की तरह है। अनुच्छेद 371जी में मिजोरम के लोगों के हित सुरक्षित किए गए हैं, आगे चलकर इस पर भी खतरा हो सकता है।”

राजनैतिक असर

देश भर में बड़े पैमाने पर लोगों की सकारात्मक प्रतिक्रिया से भाजपा काफी खुश है। उसने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में अनुच्छेद 370 हटाने का वादा भी किया था। सो, दूसरे कार्यकाल के सौ दिन के भीतर यह वादा पूरा कर दिया। भाजपा और संघ परिवार के एजेंडे पर यह दशकों से रहा है। इससे भाजपा को उम्मीद है कि उसका प्रसार उन इलाकों में भी हो जाएगा, जहां अब तक उसकी पहुंच नहीं है। भाजपा शायद ऐसे ही प्रयासों से अगले कई साल तक राज करने का दावा करती है। इसका सबसे ताजा असर तो इसी साल के अंत तक विधानसभा चुनाव वाले राज्यों हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली, झारखंड में दिखेगा क्योंकि इस मुद्दे पर विपक्ष बिखरा हुआ दिखता है। शायद भाजपा की नजर में कश्मीर फैसले के वक्त यह भी रहा होगा। जो भी है, यह तो आगे पता चलेगा लेकिन देश के बड़े इलाके में भाजपा के लिए सकारात्मक संदेश मिल गए हैं।

इसके अलावा कश्मीर में विधानसभा और संसदीय क्षेत्रों का परिसीमन भी रुका हुआ था। अब परिसीमन से जम्मू की सीटें बढ़ाई जा सकती हैं और वहां हिंदू बहुल सरकार बनाई जा सकती है। बहरहाल, आगे क्या होगा, यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा।

राज्य में संचार व्यवस्था बंद होने के कारण अभी यह साफ नहीं है कि केंद्र के इस फैसले के बाद कश्मीर में क्या स्थिति है, लेकिन वहां के नेता बेहद खफा हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने भावुक होते हुए मीडिया से कहा, "यह सेकुलर भारत नहीं है। जैसे ही गेट खुलेंगे, हमारे लोग बाहर जाएंगे, हम कोर्ट जाएंगे। हम ग्रेनेड या पत्थर फेंकने वाले लोग नहीं हैं। वे हमें मारना चाहते हैं तो हम भी मरने के लिए तैयार हैं।" फारूक ने गृह मंत्री के इस बयान को गलत बताया कि उन्हें नजरबंद नहीं किया गया है। उन्होंने कहा, एक डीएसपी मेरे घर के बाहर बैठा है। कोई आ-जा नहीं सकता। राज्य में दो साल से ज्यादा समय तक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ गठबंधन सरकार चलाने वाली पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने तो यहां तक कह दिया कि लगता है पाकिस्तान को छोड़ कर भारत के साथ जाने का फैसला सही नहीं था। यकीनन फिलहाल भले भाजपा विजयी दिख रही हो, देश भर में उसके समर्थक ढोल-नगाड़े बजा रहे हों, लेकिन ऐसे फैसलों का असर वर्षों बाद ही दिखता है। इसके संवैधानिक और सियासी पहलू तो अब खुलने शुरू होंगे, जब हालात कुछ स्थिर होंगे। आगे इन मसलों पर व्यापक विचार-विमर्श के लिए कई जानकारों के लेख भी हैं। उम्मीद तो यही की जानी चाहिए शांति और मर्यादाएं बहाल हो जाएं।