सत्रहवीं लोकसभा की सांध्य वेला यानी आखिरी औपचारिक शीतकालीन सत्र में पश्चिम बंगाल की कृष्णानगर से सदस्य महुआ मोइत्रा के निष्कासन पर तीखा विवाद जारी है। गोड्डा (झारखंड) से भारतीय जनता पार्टी के सांसद निशिकांत दुबे के अनुसार, ‘‘टीएमसी सांसद ने 2019 से अब तक सदन में कुल 61 सवाल किए, जिनमें 50 सवाल अडानी ग्रुप से जुड़े थे। अदाणी के खिलाफ सवाल पूछने के लिए उन्होंने रियल एस्टेट अरबपति दर्शन हीरानंदानी से ‘रिश्वत’ ली।’’ इसे ‘कैश फॉर क्वेरी’ यानी पैसे लेकर सवाल पूछने का मामला बताया गया, जैसा कि 2005 में एक स्टिंग ऑपरेशन में 12 सांसदों को रुपये लेते देखा गया था, जिसमें ज्यादातर सांसद भारतीय जनता पार्टी के थे। तब उनका निष्कासन हुआ था। खुद पर लगे आरोप के बाद महुआ पूछती हैं, ‘‘कैश कहां है?’’
कथित रिश्वत के नाम पर रियल इस्टेट कारोबारी दर्शन हीरानंदानी का एक हलफनामा है, जिसमें कुछ तोहफे और सेक्रेटेरियल सेवाएं मुहैया कराने वगैरह का जिक्र है। महुआ ने खुद कुछ तोहफे लेने और लॉगइन, पासवर्ड देने की बात स्वीकार की है। लेकिन भाजपा सांसद की शिकायत पर संसद की भाजपा के ही सांसद विनोद कुमार सोनकर की अगुआई वाली एथिक्स कमेटी ने न हीरानंदानी को गवाही और जिरह के बुलाया, न वकील जय अनंत देहाद्रयी को बुलाया गया। जबकि देहाद्रयी की मूल शिकायत को ही दुबे ने आधार बनाया, जिन्हें महुआ “एस्ट्रैंज्ड एक्स” बताती हैं। शायद इसी वजह से महुआ का संसद से निष्कासन का आधार लोकसभा वेबसाइट की आइडी और लॉग इन साझा करने को बनाया गया। बकौल महुआ या दूसरे विपक्षी सांसद, इसे नहीं बनाया जा सकता क्योंकि नियमों में ऐसा कुछ नहीं है।
निष्कासन के खिलाफ महुआ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई हैं, जहां सुनवाई होनी है। उन्होंने निष्कासन के दिन 8 दिसंबर को संसद के बाहर तमाम विपक्षी सांसदों की मौजूदगी में कहा, “मैं अभी 49 साल की हूं, अगले 30 साल तक में भाजपा के खिलाफ संसद और सड़क पर लड़ती रहूंगी।”
विपक्षी नेताओं का आरोप है कि अदाणी समूह के खिलाफ तीखे सवाल करने के लिए महुआ पर बदले की कार्रवाई की गई, जैसा इसके पहले कांग्रेस के राहुल गांधी और आम आदमी पार्टी के संजय सिंह को भी निशाना बनाया गया। इन आरोप-प्रत्यारोपों के अलावा, तथ्य यह भी है कि संसद के आखिरी सत्र में बर्खास्तगी के खास मायने नहीं हैं क्योंकि वे फिर चुनकर आ सकती हैं। टीएमसी नेता ममता बनर्जी ने कह ही दिया है कि वे फिर चुनाव लड़ेंगी। बस एक ही शर्त है कि सीबीआइ जैसी एजेंसियां कोई मुकदमा दायर न कर दें। लेकिन अगले आम चुनाव सिर पर खड़े हैं और इतनी जल्दी अदालतों से सजा मिलना संभव नहीं है, इसलिए राजनैतिक लड़ाई जारी रहेगी।